Monday 25 May 2020

गोस्वामी तुलसीदास-कवितावली




गोस्वामी तुलसीदास-कवितावली
















केवल पढ़ने व समझने के लिए


कवितावली (उत्तर कांड से) 
कवि परिचय
जीवन परिचय- गोस्वामी तुलसीदास का जन्म बाँदा जिले के राजापुर गाँव में सन 1532 में हुआ था। कुछ लोग इनका जन्म-स्थान सोरों मानते हैं। इनका बचपन कष्ट में बीता। बचपन में ही इन्हें माता-पिता का वियोग सहना पड़ा। गुरु नरहरिदास की कृपा से इनको रामभक्ति का मार्ग मिला। इनका विवाह रत्नावली नामक युवती से हुआ। कहते हैं कि रत्नावली की फटकार से ही वे वैरागी बनकर रामभक्ति में लीन हो गए थे। विरक्त होकर ये काशी, चित्रकूट, अयोध्या आदि तीर्थों पर भ्रमण करते रहे। इनका निधन काशी में सन 1623 में हुआ।
रचनाएँ- गोस्वामी तुलसीदास की रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
रामचरितमानस, कवितावली, रामलला नहछु, गीतावली, दोहावली, विनयपत्रिका, रामाज्ञा-प्रश्न, कृष्ण गीतावली, पार्वती–मंगल, जानकी-मंगल, हनुमान बाहुक, वैराग्य संदीपनी। इनमें से ‘रामचरितमानस’ एक महाकाव्य है। ‘कवितावली’ में रामकथा कवित्त व सवैया छंदों में रचित है। ‘विनयपत्रिका’ में स्तुति के गेय पद हैं।
काव्यगत विशेषताएँ- गोस्वामी तुलसीदास रामभक्ति शाखा के सर्वोपरि कवि हैं। ये लोकमंगल की साधना के कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं। यह तथ्य न सिर्फ़ उनकी काव्य-संवेदना की दृष्टि से, वरन काव्यभाषा के घटकों की दृष्टि से भी सत्य है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि शास्त्रीय भाषा (संस्कृत) में सर्जन-क्षमता होने के बावजूद इन्होंने लोकभाषा (अवधी व ब्रजभाषा) को साहित्य की रचना का माध्यम बनाया।
तुलसीदास में जीवन व जगत की व्यापक अनुभूति और मार्मिक प्रसंगों की अचूक समझ है। यह विशेषता उन्हें महाकवि बनाती है। ‘रामचरितमानस’ में प्रकृति व जीवन के विविध भावपूर्ण चित्र हैं, जिसके कारण यह हिंदी का अद्वतीय महाकाव्य बनकर उभरा है। इसकी लोकप्रियता का कारण लोक-संवेदना और समाज की नैतिक बनावट की समझ है। इनके सीता-राम ईश्वर की अपेक्षा तुलसी के देशकाल के आदशों के अनुरूप मानवीय धरातल पर पुनः सृष्ट चरित्र हैं।
भाषा-शैली- गोस्वामी तुलसीदास अपने समय में हिंदी-क्षेत्र में प्रचलित सारे भावात्मक तथा काव्यभाषायी तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनमें भाव-विचार, काव्यरूप, छंद तथा काव्यभाषा की बहुल समृद्ध मिलती है। ये अवधी तथा ब्रजभाषा की संस्कृति कथाओं में सीताराम और राधाकृष्ण की कथाओं को साधिकार अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं। उपमा अलंकार के क्षेत्र में जो प्रयोग-वैशिष्ट्य कालिदास की पहचान है, वही पहचान सांगरूपक के क्षेत्र में तुलसीदास की है।

कविताओं का प्रतिपादय एवं सार-

(क) कवितावली (उत्तरकांड से)
प्रतिपादय-कवित्त में कवि ने बताया है कि संसार के अच्छे-बुरे समस्त लीला-प्रपंचों का आधार ‘पेट की आग’ का दारुण व गहन यथार्थ है, जिसका समाधान वे राम-रूपी घनश्याम के कृपा-जल में देखते हैं। उनकी रामभक्ति पेट की आग बुझाने वाली यानी जीवन के यथार्थ संकटों का समाधान करने वाली है, साथ ही जीवन-बाह्य आध्यात्मिक मुक्ति देने वाली भी है।
सार-कवित्त में कवि ने पेट की आग को सबसे बड़ा बताया है। मनुष्य सारे काम इसी आग को बुझाने के उद्देश्य से करते हैं चाहे वह व्यापार, खेती, नौकरी, नाच-गाना, चोरी, गुप्तचरी, सेवा-टहल, गुणगान, शिकार करना या जंगलों में घूमना हो। इस पेट की आग को बुझाने के लिए लोग अपनी संतानों तक को बेचने के लिए विवश हो जाते हैं। यह पेट की आग समुद्र की बड़वानल से भी बड़ी है। अब केवल रामरूपी घनश्याम ही इस आग को बुझा सकते हैं।
पहले सवैये में कवि अकाल की स्थिति का चित्रण करता है। इस समय किसान खेती नहीं कर सकता, भिखारी को भीख नहीं मिलती, व्यापारी व्यापार नहीं कर पाता तथा नौकरी की चाह रखने वालों को नौकरी नहीं मिलती। लोगों के पास आजीविका का कोई साधन नहीं है। वे विवश हैं। वेद-पुराणों में कही और दुनिया की देखी बातों से अब यही प्रतीत होता है कि अब तो भगवान राम की कृपा से ही कुशल होगी। वह राम से प्रार्थना करते हैं कि अब आप ही इस दरिद्रता रूपी रावण का विनाश कर सकते हैं।
दूसरे सवैये में कवि ने भक्त की गहनता और सघनता में उपजे भक्त-हृदय के आत्मविश्वास का सजीव चित्रण किया है। वे कहते हैं कि चाहे कोई मुझे धूर्त कहे, अवधूत या जोगी कहे, कोई राजपूत या जुलाहा कहे, किंतु मैं किसी की बेटी से अपने बेटे का विवाह नहीं करने वाला और न किसी की जाति बिगाड़ने वाला हूँ। मैं तो केवल अपने प्रभु राम का गुलाम हूँ। जिसे जो अच्छा लगे, वही कहे। मैं माँगकर खा सकता हूँ तथा मस्जिद में सो सकता हूँ किंतु मुझे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। मैं तो सब प्रकार से भगवान राम को समर्पित हूँ।
(क) कवितावली
1. किसबी, किसान.. आग पेटकी।। (पृष्ठ-48)




शब्दार्थ-किसबी-धंधा। कुल- परिवार। बनिक- व्यापारी। भाट- चारण, प्रशंसा करने वाला। चाकर- घरेलू नौकर। चपल- चंचल। चार- गुप्तचर, दूत। चटकी- बाजीगर। गुनगढ़त- विभिन्न कलाएँ व विधाएँ सीखना। अटत- घूमता। अखटकी- शिकार करना। गहन गन- घना जंगल। अहन- दिन। करम-कार्य। अधरम- पाप। बुझाड़- बुझाना, शांत करना। घनश्याम- काला बादल। बड़वागितें- समुद्र की आग से। आग येट की- भूख।
प्रसंग- प्रस्तुत कवित्त हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित ‘कवितावली’ के ‘उत्तरकांड’ से उद्धृत है। इसके रचयिता तुलसीदास हैं। इस कवित्त में कवि ने तत्कालीन सामाजिक व आर्थिक दुरावस्था का यथार्थपरक चित्रण किया है।
व्याख्या- तुलसीदास कहते हैं कि इस संसार में मजदूर, किसान-वर्ग, व्यापारी, भिखारी, चारण, नौकर, चंचल नट, चोर, दूत, बाजीगर आदि पेट भरने के लिए अनेक काम करते हैं। कोई पढ़ता है, कोई अनेक तरह की कलाएँ सीखता है, कोई पर्वत पर चढ़ता है तो कोई दिन भर गहन जंगल में शिकार की खोज में भटकता है। पेट भरने के लिए लोग छोटे-बड़े कार्य करते हैं तथा धर्म-अधर्म का विचार नहीं करते। पेट के लिए वे अपने बेटा-बेटी को भी बेचने को विवश हैं। तुलसीदास कहते हैं कि अब ऐसी आग भगवान राम रूपी बादल से ही बुझ सकती है, क्योंकि पेट की आग तो समुद्र की आग से भी भयंकर है।
विशेष-

(i) समाज में भूख की स्थिति का यथार्थ चित्रण किया गया है।
(ii) कवित्त छंद है।
(iii) तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग है।
(iv) ब्रजभाषा  है।
(v) ‘राम घनस्याम’ में रूपक अलंकार  है।
(vi) निम्नलिखित में अनुप्रास अलंकार की छटा है-
‘किसबी, किसान-कुल’, ‘भिखारी, भाट’, ‘चाकर, चपल’, ‘चोर, चार, चेटकी’, ‘गुन, गढ़त’, ‘गहन-गन’, ‘अहन अखेटकी ‘, ‘ बचत बेटा-बेटकी’, ‘ बड़वागितें  बड़ी  ‘
(vii) अभिधा शब्द-शक्ति है।

प्रश्न

(क) पेट भरने के लिए लोग क्या-क्या अनैतिक काय करते हैं ?
(ख) कवि ने समाज के किन-किन लोगों का वर्णन किया है ? उनकी क्या परेशानी है ?
(ग) कवि के अनुसार, पेट की आग कौन बुझा सकता है ? यह आग कैसे है ?
(घ) उन कमों का उल्लेख कीजिए, जिन्हें लोग पेट की आग बुझाने के लिए करते हैं ?

उत्तर-

(क) पेट भरने के लिए लोग धर्म-अधर्म व ऊंचे-नीचे सभी प्रकार के कार्य करते है ? विवशता के कारण वे अपनी संतानों को भी बेच देते हैं ?
(ख) कवि ने मज़दूर, किसान-कुल, व्यापारी, भिखारी, भाट, नौकर, चोर, दूत, जादूगर आदि वर्गों का वर्णन किया है। वे भूख व गरीबी से परेशान हैं।
(ग) कवि के अनुसार, पेट की आग को रामरूपी घनश्याम ही बुझा सकते हैं। यह आग समुद्र की आग से भी भयंकर है।
(घ) कुछ लोग पेट की आग बुझाने के लिए पढ़ते हैं तो कुछ अनेक तरह की कलाएँ सीखते हैं। कोई पर्वत पर चढ़ता है तो कोई घने जंगल में शिकार के पीछे भागता है। इस तरह वे अनेक छोटे-बड़े काम करते हैं।

2.

खेती न किसान को.. तुलसी हहा करी। 

शब्दार्थ-बलि- दान-दक्षिणा। बनिक- व्यापारी। बनिज- व्यापार। चाकर- घरेलू नौकर। चाकरी- नौकरी। जीविका बिहीन- रोजगार से रहित। सदयमान-दुखी। सोच- चिंता। बस- वश में। एक एकन सों- आपस में। का करी- क्या करें। बेदहूँ- वेद। पुरान- पुराण। लोकहूँ- लोक में भी। बिलोकिअत- देखते हैं। साँकरे- संकट। रावरें- आपने। दारिद- गरीबी। दसानन- रावण। दबाढ़- दबाया। दुनी- संसार। दीनबंधु- दुखियों पर कृपा करने वाला। दुरित- पाप। दहन-जलाने वाला, नाश करने वाला। हहा करी-दुखी हुआ।
प्रसंग-प्रस्तुत कवित्त हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित ‘कवितावली’ के ‘उत्तरकांड’ से उद्धृत है। इसके रचयिता तुलसीदास हैं। इस कवित्त में कवि ने तत्कालीन सामाजिक व आर्थिक दुरावस्था का यथार्थपरक चित्रण किया है।
व्याख्या- तुलसीदास कहते हैं कि अकाल की भयानक स्थिति है। इस समय किसानों की खेती नष्ट हो गई है। उन्हें खेती से कुछ नहीं मिल पा रहा है। कोई भीख माँगकर निर्वाह करना चाहे तो भीख भी नहीं मिलती। कोई बली भोजन भी नहीं देता। व्यापारी को व्यापार का साधन नहीं मिलता। नौकर को नौकरी नहीं मिलती। इस प्रकार चारों तरफ बेरोज़गारी है। आजीविका के साधन न रहने से लोग दुखी हैं तथा चिंता में डूबे हैं। वे एक-दूसरे से पूछते हैं-कहाँ जाएँ? क्या करें? वेदों-पुराणों में ऐसा कहा गया है और लोक में ऐसा देखा गया है कि जब-जब भी संकट उपस्थित हुआ, तब-तब राम ने सब पर कृपा की है। हे दीनबंधु! इस समय दरिद्रतारूपी रावण ने समूचे संसार को त्रस्त कर रखा है अर्थात सभी गरीबी से पीड़ित हैं। आप तो पापों का नाश करने वाले हो। चारों तरफ हाय-हाय मची हुई है।
विशेष-

(i) तत्कालीन समाज की बेरोजगारी व अकाल की भयावह स्थिति का चित्रण है।
(ii) तुलसी की रामभक्ति प्रकट हुई है।
(iii) ब्रजभाषा का सुंदर प्रयोग है।
(iv) ‘दारिद-दसानन’ व ‘दुरित दहन’ में रूपक अलंकार है।
(v) कवित्त छंद है।
(vi) तत्सम शब्दावली की प्रधानता है।
(vi) निम्नलिखित में अनुप्रास अलंकार की छटा है ‘किसान को’, ‘सीद्यमान सोच’, ‘एक एकन’, ‘का करी’, ‘साँकरे सबैं’, ‘राम-रावरें’, ‘कृपा करी’, ‘दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु’, ‘दुरित-दहन देखि’।

प्रश्न

(क) कवि ने समाज के किन-किन वरों के बारे में बताया है?
(ख) लोग चिंतित क्यों हैं तथा वे क्या सोच रहे हैं?
(ग) वेदों वा पुराणों में क्या कहा गया है ?
(घ) तुलसीदास ने दरिद्रता की तुलना किससे की हैं तथा क्यों ?

उत्तर-

(क) कवि ने किसान, भिखारी, व्यापारी, नौकरी करने वाले आदि वर्गों के बारे में बताया है कि ये सब बेरोजगारी से परेशान हैं।
(ख) लोग बेरोजगारी से चिंतित हैं। वे सोच रहे हैं कि हम कहाँ जाएँ क्या करें?
(ग) वेदों और पुराणों में कहा गया है कि जब-जब संकट आता है तब-तब प्रभु राम सभी पर कृपा करते हैं तथा सबका कष्ट दूर करते हैं।
(घ) तुलसीदास ने दरिद्रता की तुलना रावण से की है। दरिद्रतारूपी रावण ने पूरी दुनिया को दबोच लिया है तथा इसके कारण पाप बढ़ रहे हैं।

3.

धूत कहो, अवधूत कहों.. लेबोको एकु न दैबको दोऊ।।
शब्दार्थ- धूत- त्यागा हुआ। अवधूत– संन्यासी। रजपूतु- राजपूत। जलहा- जुलाहा। कोऊ- कोई। काहू की- किसी की। ब्याहब- ब्याह करना है। बिगार-बिगाड़ना। सरनाम- प्रसिद्ध। गुलामु- दास। जाको- जिसे। रुच- अच्छा लगे। आोऊ- और। खैबो- खाऊँगा। मसीत- मसजिद। सोढ़बो- सोऊँगा। लैंबो-लेना। वैब-देना। दोऊ- दोनों।
प्रसंग- प्रस्तुत कवित्त हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित ‘कवितावली’ के ‘उत्तरकांड’ से उद्धृत है। इसके रचयिता तुलसीदास हैं। इस कवित्त में कवि ने तत्कालीन सामाजिक व आर्थिक दुरावस्था का यथार्थपरक चित्रण किया है।
व्याख्या- कवि समाज में व्याप्त जातिवाद और धर्म का खंडन करते हुए कहता है कि वह श्रीराम का भक्त है। कवि आगे कहता है कि समाज हमें चाहे धूर्त कहे या पाखंडी, संन्यासी कहे या राजपूत अथवा जुलाहा कहे, मुझे इन सबसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे अपनी जाति या नाम की कोई चिंता नहीं है क्योंकि मुझे किसी के बेटी से अपने बेटे का विवाह नहीं करना और न ही किसी की जाति बिगाड़ने का शौक है। तुलसीदास का कहना है कि मैं राम का गुलाम हूँ, उसमें पूर्णत: समर्पित हूँ, अत: जिसे मेरे बारे में जो अच्छा लगे, वह कह सकता है। मैं माँगकर खा सकता हूँ, मस्जिद में सो सकता हूँ तथा मुझे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। संक्षेप में कवि का समाज से कोई संबंध नहीं है। वह राम का समर्पित भक्त है।
विशेष-

(i) कवि समाज के आक्षेपों से दुखी है। उसने अपनी रामभक्ति को स्पष्ट किया है।
(ii) दास्यभक्ति का भाव चित्रित है।
(iii) ‘लैबोको एकु न दैबको दोऊ’ मुहावरे का सशक्त प्रयोग है।
(iv) सवैया छंद है।
(v) ब्रजभाषा है।
(vi) मस्जिद में सोने की बात करके कवि ने धार्मिक उदारता और समरसता का परिचय दिया है।
(vii) निम्नलिखित में अनुप्रास अलंकार की छटा है-
‘कहौ कोऊ’, ‘काहू की’, ‘कहै कछु’।

प्रश्न

(क) कवि किन पर व्यंग्य करता है और क्यों ?
(ख) कवि अपने  किस रुप पर गर्व करता है ?
(ग) कवि समाज से क्या चाहता हैं?
(घ) कवि अपने जीवन-निर्वाह किस प्रकार करना चाहता है ?

उत्तर-

(क) कवि धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर राजनीति करने वाले ठेकेदारों पर व्यंग्य करता है, क्योंकि समाज के इन ठेकेदारों के व्यवहार से ऊँच-नीच, जाति-पाँति आदि के द्वारा समाज की सामाजिक समरसता कहीं खो गई है।
(ख) कवि स्वयं को रामभक्त कहने में गर्व का अनुभव करता है। वह स्वयं को उनका गुलाम कहता है तथा समाज की हँसी का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
(ग) कवि समाज से कहता है कि समाज के लोग उसके बारे में जो कुछ कहना चाहें, कह सकते हैं। कवि पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह किसी से कोई संबंध नहीं रखता।
(घ) कवि भिक्षावृत्ति से अपना जीवनयापन करना चाहता है। वह मस्जिद में निश्चित होकर सोता है। उसे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। वह अपने सभी कार्यों के लिए अपने आराध्य श्रीराम पर आश्रित है।




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1. बेकारी की समस्या तुलसी के जमाने में भी थी, उस बेकारी का वर्णन तुलसी के कवित्त के आधार पर कीजिए।

उत्तर-
तुलसीदास के युग में जनसामान्य के पास आजीविका के साधन नहीं थे। किसान की खेती नष्ट हो चुकी थी। भिखारी को भीख नहीं मिलती थी। दान-कार्य भी बंद  था। व्यापारी का व्यापार ठप्प था। नौकरी भी लोगों को नहीं मिलती थी। चारों तरफ बेरोज़गारी थी। लोगों को समझ में नहीं आता था कि वे कहाँ जाएँ? क्या करें?

2. तुलसी के समय के समाज के बारे में बताइए।

उत्तर-
तुलसीदास के समय का समाज मध्ययुगीन विचारधारा का था। उस समय बेरोज़गारी थी तथा आम व्यक्ति की हालत दयनीय थी। समाज में कोई नियम-कानून नहीं था। लोग अपनी भूख शांत करने के लिए सारे गलत कार्य भी करते थे। धार्मिक कट्टरता व्याप्त थी। जाति व संप्रदाय के बंधन कठोर थे। नारी की दशा हीन थी। नारी की हानि को विशेष नहीं माना जाता था।

3. तुलसी  युग की आर्थिक स्थिति का अपने शब्दों में वर्णन र्काजिए।

उत्तर-
तुलसी के समय आर्थिक दशा खराब थी। किसान के पास खेती न थी, व्यापारी के पास व्यापार नहीं था। यहाँ तक कि भिखारी को भीख भी नहीं मिलती थी। लोग यही सोचते रहते थे कि क्या करें, कहाँ जाएँ? वे धन-प्राप्ति के उपायों के बारे में सोचते थे। वे अपनी संतानों तक को बेच देते थे। भुखमरी का साम्राज्य फैला हुआ था।


4. क्या तुलसी युग की समस्याएँ वतमान में समाज में भी विद्यमान हैं? अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर-
तुलसी ने लगभग 500 वर्ष पहले जो कुछ कहा था, वह आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने अपने समय की मूल्यहीनता, नारी की स्थिति, आर्थिक दुरावस्था का चित्रण किया है। इनमें अधिकतर समस्याएँ आज भी विद्यमान हैं। आज भी लोग जीवन-निर्वाह के लिए गलत-सही कार्य करते हैं। नारी के प्रति नकारात्मक सोच आज भी विद्यमान है। अभी भी जाति व धर्म के नाम पर भेदभाव होता है। कृषि, वाणिज्य, रोज़गार की स्थिति में बहुत बदलाव आया है,परंतु सामाजिक दशा अभी भी शोचनीय है। तुलसी युग की अनेक समस्याएँ आज भी हमारे समाज में विद्यमान हैं।

5. 'कवितावली' में उद्धृत छंदों के आधार पर स्पष्ट करें कि तुलसीदास को अपने युग की आर्थिक विषमता की अच्छी समझ है।

त्तर:- कवितावली में उद्दृत छंदों से यह ज्ञात होता है कि तुलसीदास को अपने युग की आर्थिक विषमता की अच्छी समझ है। उन्होंने समकालीन समाज का यथार्थपरक चित्रण किया है। उन्होंने देखा कि उनके समय में बेरोज़गारी की समस्या से मजदूर, किसान, नौकर, भिखारी आदि सभी परेशान थे। गरीबी के कारण लोग अपनी संतानों तक को बेच रहे थे। सभी ओर भुखमरी और विवशता थी।


6. पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है – तुलसी का यह काव्य-सत्य क्या इस समय का भी युग-सत्य है? तर्कसंगत उत्तर दीजिए।

उत्तर:- तुलसी ने कहा है कि पेट की आग का शमन ईश्वर (राम) भक्ति का मेघ ही कर सकता है। मनुष्य का जन्म, कर्म, कर्म-फल सब ईश्वर के अधीन हैं। निष्ठा और पुरुषार्थ से ही मनुष्य के पेट की आग का शमन हो सकता है। फल प्राप्ति के लिए दोनों में संतुलन होना आवश्यक है। पेट की आग बुझाने के लिए मेहनत के साथ-साथ ईश्वर कृपा का होना जरूरी है।

7. तुलसी ने यह कहने की ज़रूरत क्यों समझी?
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ / काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ।
इस सवैया में काहू के बेटासों बेटी न ब्याहब कहते तो सामाजिक अर्थ में क्या परिवर्तन आता?

उत्तर:- तुलसी इस सवैये में यदि अपनी बेटी की शादी की बात करते तो सामाजिक संदर्भ में अंतर आ जाता क्योंकि विवाह के बाद बेटी को अपनी जाति छोड़कर अपनी पति की ही जाति अपनानी पड़ती है। दूसरे यदि तुलसी अपनी बेटी की शादी न करने का निर्णय लेते तो इसे भी समाज में गलत समझा जाता और तीसरे यदि किसी अन्य जाति में अपनी बेटी का विवाह संपन्न करवा देते तो इससे भी समाज में एक प्रकार का जातिगत या सामाजिक संघर्ष बढ़ने की संभावना पैदा हो जाती।


8. धूत कहौ… वाले छंद में ऊपर से सरल व निरीह दिखलाई पड़ने वाले तुलसी की भीतरी असलियत एक स्वाभिमानी भक्त हृदय की है। इससे आप कहां तक सहमत हैं?

उत्तर:- हम इस बात से सहमत है कि तुलसी स्वाभिमानी भक्त हृदय व्यक्ति है क्योंकि ‘धूत कहौ…’ वाले छंद में भक्ति की गहनता और सघनता में उपजे भक्तहृदय के आत्मविश्वास का सजीव चित्रण है, जिससे समाज में व्याप्त जात-पांत और दुराग्रहों के तिरस्कार का साहस पैदा होता है। तुलसी राम में एकनिष्ठा रखकर समाज के रीती-रिवाजों का विरोध करते है तथा अपने स्वाभिमान को महत्त्व देते हैं।


9. व्याख्या करें –
माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ।।

उत्तर:- तुलसीदास को समाज की उलाहना से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। वे किसी पर आश्रित नहीं है। वे श्री राम का नाम लेकर दिन बिताते हैं और मस्जिद में सो जाते हैं।(धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक)


10. व्याख्या करें –
ऊँचे नीचे करम, धरम-अधरम करि, पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।।

उत्तर:- तुलसीदास ने समकालीन समाज का यथार्थपरक चित्रण किया है। उन्होंने देखा कि उनके समय में बेरोजगारी की समस्या से मजदूर, किसान, नौकर, भिखारी आदि सभी परेशान थे। अपनी भूख मिटाने के लिए सभी अनैतिक कार्य कर रहे हैं। अपने पेट की भूख मिटाने के लिए लोग अपनी संतानों तक को बेच रहे थे। पेट भरने के लिए मनुष्य कोई भी पाप कर सकता है।


11. पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी-तुलसी के युग का ही नहीं आज के युग का भी सत्य है। भुखमरी में किसानों की आत्महत्या और संतानों (खासकर बेटियों) को भी बेच डालने की हृदय-विदारक घटनाएँ हमारे देश में घटती रही हैं। वर्तमान परिस्थितियों और तुलसी के युग की तुलना करें।

उत्तर:- तुलसीदास के समय में बेरोज़गारी के कारण अपनी भूख मिटाने के लिए सभी अनैतिक कार्य कर रहे थे। अपने पेट की भूख मिटाने के लिए लोग अपनी संतानों तक को बेच रहे थे। वे कहते है कि पेट भरने के लिए मनुष्य कोई भी पाप कर सकता है। वर्तमान समय में भी बेरोज़गारी और गरीबी के कारण समाज में अनैतिकता बढ़ती जा रही है। आज भी कई लोग अपने बच्चों को पैसे के लिए बेच देते है।


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शिरीष के फूल- श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी




शिरीष के फूल
लेखक परिचय

जिस आँगन में टहली हूं मैं ,
शिरीष एक पल्ल्वित हुआ
हरा भरा है वृक्ष वहाँ पर,
नव कलियों से भरा हुआ

सिंदूरी फूलों से लदकर,
टहनी टहनी गमक रही
छटा निराली मन को भाये,
धूप मद भरी लटक रही

आओ कवियो तुम सब आओ,
एक नवीन गोष्ठी रचाएँ।
वृक्ष शिरीष के नीचे हम सब,
एक नयी सी प्रथा बनाएँ।

गरमी के आने की आहट,
खुद शिरीष ने दे डाली
हर रेशा फूलों का कहता,
फिर रंगोली रच डाली

जिस आँगन में टहली हूं मैं ,
शिरीष एक पल्लवित हुआ
हरा भरा है वृक्ष वहाँ पर,
नव कलियों से भरा हुआ

सोच रही
इस बार गाँव में
मैं शिरीष से मिलने जाऊँ

बाग सघन वो याद अभी तक

पले बढ़े जिसमें ये जातक
जल जलाशय जब-जब देते
नम पुरवा बन जाती पालक

उन केसर
सुकुमार गुलों को
सहलाकर बचपन दोहराऊँ

ग्रीष्म-काल के अग्निकुंड से
झाँक रही छाया शिरीष की
लहराते गुल अल्प- दिवस ये
अलबेली माया शिरीष की

कोमल सुमन
बसे नज़रों में, मन
करता फिर नज़र मिलाऊँ

जेठी-धूप जवान हो रही
तन को बन धारा भिगो रही
ऐसे में कविता शिरीष से
कर शृंगार सुजान हो रही

तंग शहर
के ढंग भूल अब
रंग नए कुछ दिन अपनाऊँ

जीवन परिचय –श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक गाँव आरत दूबे का छपरा में सन 1907 में हुआ था। इन्होंने काशी के संस्कृत महाविद्यालय से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करके सन 1930 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद ये शांतिनिकेतन चले गए। वहाँ 1950 तक ये हिंदी भवन के निदेशक रहे। तदनंतर ये काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने। फिर सन 1960 में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में इन्होंने हिंदी विभागाध्यक्ष का पद ग्रहण किया। इनकी ‘आलोक पर्व’ पुस्तक पर साहित्य अकादमी द्वारा इन्हें पुरस्कृत किया गया। लखनऊ विश्वविद्यालय ने इन्हें डी०लिट् की मानद उपाधि प्रदान की और भारत सरकार ने इन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया। द्ववेदी जी संस्कृत, प्राकृत, बांग्ला आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। दर्शन, संस्कृति, धर्म आदि विषयों में इनकी विशेष रुचि थी। इनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति की गहरी पैठ और विषय-वैविध्य के दर्शन होते हैं। ये परंपरा के साथ आधुनिक प्रगतिशील मूल्यों के समन्वय में विश्वास करते थे। इनकी मृत्यु सन 1979 में हुई। रचनाएँ – इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
निबंध-संग्रह-अशोक के फूल, कल्पलता, विचार और वितर्क, कुटज, विचार-प्रवाह, आलोक-पर्व, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद।
उपन्यास-बाणभट्ट की आत्मकथा, चारुचंद्रलेख, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा।
आलोचना-साहित्यैतिहास-सूर साहित्य, कबीर, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, नाथ संप्रदाय, कालिदास की लालित्य योजना, हिंदी-साहित्य का आदिकाल, हिंदी-साहित्य की भूमिका, हिंदी-साहित्य : उद्भव और विकास।
ग्रंथ-संपादन-संदेश-रासक, पृथ्वीराज रासो, नाथ-सिद्धों की बानियाँ।
संपादन-विश्व भारती पत्रिका (शांति-निकेतन)।
साहित्यिक विशेषताएँ – आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्य भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास को दर्शाता है। ये ज्ञान को बोध और पांडित्य की सहृदयता में ढालकर एक ऐसा रचना-संसार हमारे सामने उपस्थित करते हैं जो विचार की तेजस्विता, कथन के लालित्य और बंध की शास्त्रीयता का संगम है। इस प्रकार इनमें एक साथ कबीर, रवींद्रनाथ व तुलसी एकाकार हो उठते हैं। इसके बाद, उससे जो प्राणधारा फूटती है, वह लोकधर्मी रोमैंटिक धारा है जो इनके उच्च कृतित्व को सहजग्राहय बनाए रखती है। इनकी सांस्कृतिक दृष्टि जबरदस्त है। उसमें इस बात पर विशेष बल है कि भारतीय संस्कृति किसी एक जाति की देन नहीं, बल्कि समय-समय पर उपस्थित अनेक जातियों के श्रेष्ठ साधनांशों के लवण-नीर संयोग से उसका विकास हुआ है। उसकी मूल चेतना विराट मानवतावाद है।
भाषा-शैली – लेखक की भाषा तत्सम-प्रधान है। इनकी रचनाओं में पांडित्य-प्रदर्शन की अपेक्षा सहजता व सरलता है। तत्सम शब्दावली के साथ इन्होंने तद्भव, देशज, उर्दू-फ़ारसी आदि भाषाओं का प्रयोग किया है। इन्होंने अपने निबंधों में विचारात्मक, भावात्मक, व्यंग्यात्मक शैलियों को अपनाया है।

पाठ का प्रतिपादय एवं सारांश

प्रतिपादय – ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबंध ‘कल्पलता’ से उद्धृत है। इसमें लेखक ने आँधी, लू और गरमी की प्रचंडता में भी अवधूत की तरह अविचल होकर कोमल पुष्पों का सौंदर्य बिखेर रहे शिरीष के माध्यम से मनुष्य की अजेय ज़िजीविषा और तुमुल कोलाहल कलह के बीच धैर्यपूर्वक, लोक के साथ चिंतारत, कर्तव्यशील बने रहने को महान मानवीय मूल्य के रूप में स्थापित किया है। ऐसी भावधारा में बहते हुए उसे देह-बल के ऊपर आत्मबल का महत्व सिद्ध करने वाली इतिहास-विभूति गांधी जी की याद हो आती है तो वह गांधीवादी मूल्यों के अभाव की पीड़ा से भी कसमसा उठता है।

निबंध की शुरुआत में लेखक शिरीष पुष्प की कोमल सुंदरता के जाल बुनता है, फिर उसे भेदकर उसके इतिहास में और फिर उसके जरिये मध्यकाल के सांस्कृतिक इतिहास में पैठता है, फिर तत्कालीन जीवन व सामंती वैभव-विलास को सावधानी से उकेरते हुए उसका खोखलापन भी उजागर करता है। वह अशोक के फूल के भूल जाने की तरह ही शिरीष को नजरअंदाज किए जाने की साहित्यिक घटना से आहत है। इसी में उसे सच्चे कवि का तत्त्व-दर्शन भी होता है। उसका मानना है कि योगी की अनासक्त शून्यता और प्रेमी की सरस पूर्णता एक साथ उपलब्ध होना सत्कवि होने की एकमात्र शर्त है। ऐसा कवि ही समस्त प्राकृतिक और मानवीय वैभव में रमकर भी चुकता नहीं और निरंतर आगे बढ़ते जाने की प्रेरणा देता है।



सारांश – लेखक शिरीष के पेड़ों के समूह के बीच बैठकर लेख लिख रहा है। जेठ की गरमी से धरती जल रही है। ऐसे समय में शिरीष ऊपर से नीचे तक फूलों से लदा है। कम ही फूल गरमी में खिलते हैं। अमलतास केवल पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलता है। कबीरदास को इस तरह दस दिन फूल खिलना पसंद नहीं है। शिरीष में फूल लंबे समय तक रहते हैं। वे वसंत में खिलते हैं तथा भादों माह तक फूलते रहते हैं। भीषण गरमी और लू में यही शिरीष अवधूत की तरह जीवन की अजेयता का मंत्र पढ़ाता रहता है। शिरीष के वृक्ष बड़े व छायादार होते हैं। पुराने रईस मंगल-जनक वृक्षों में शिरीष को भी लगाया करते थे। वात्स्यायन कहते हैं कि बगीचे के घने छायादार वृक्षों में ही झूला लगाना चाहिए। पुराने कवि बकुल के पेड़ में झूला डालने के लिए कहते हैं, परंतु लेखक शिरीष को भी उपयुक्त मानता है।

शिरीष की डालें कुछ कमजोर होती हैं, परंतु उस पर झूलनेवालियों का वजन भी कम ही होता है। शिरीष के फूल को संस्कृत साहित्य में कोमल माना जाता है। कालिदास ने लिखा है कि शिरीष के फूल केवल भौंरों के पैरों का दबाव सहन कर सकते हैं, पक्षियों के पैरों का नहीं। इसके आधार पर भी इसके फूलों को कोमल माना जाने लगा, पर इसके फलों की मजबूती नहीं देखते। वे तभी स्थान छोड़ते हैं, जब उन्हें धकिया दिया जाता है। लेखक को उन नेताओं की याद आती है जो समय को नहीं पहचानते तथा धक्का देने पर ही पद को छोड़ते हैं। लेखक सोचता है कि पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती। वृद्धावस्था व मृत्यु-ये जगत के सत्य हैं। शिरीष के फूलों को भी समझना चाहिए कि झड़ना निश्चित है, परंतु सुनता कोई नहीं। मृत्यु का देवता निरंतर कोड़े चला रहा है। उसमें कमजोर समाप्त हो जाते हैं। प्राणधारा व काल के बीच संघर्ष चल रहा है। हिलने-डुलने वाले कुछ समय के लिए बच सकते हैं। झड़ते ही मृत्यु निश्चित है।



लेखक को शिरीष अवधूत की तरह लगता है। यह हर स्थिति में ठीक रहता है। भयंकर गरमी में भी यह अपने लिए जीवन-रस ढूँढ़ लेता है। एक वनस्पतिशास्त्री ने बताया कि यह वायुमंडल से अपना रस खींचता है तभी तो भयंकर लू में ऐसे सुकुमार केसर उगा सका। अवधूतों के मुँह से भी संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर व कालिदास उसी श्रेणी के हैं। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जिससे लेखा-जोखा मिलता है, वह कवि नहीं है। कर्णाट-राज की प्रिया विज्जिका देवी ने ब्रहमा, वाल्मीकि व व्यास को ही कवि माना। लेखक का मानना है कि जिसे कवि बनना है, उसका फक्कड़ होना बहुत जरूरी है। कालिदास अनासक्त योगी की तरह स्थिर-प्रज्ञ, विदग्ध प्रेमी थे। उनका एक-एक श्लोक मुग्ध करने वाला है। शकुंतला का वर्णन कालिदास ने किया।

राजा दुष्यंत ने भी शंकुतला का चित्र बनाया, परंतु उन्हें हर बार उसमें कमी महसूस होती थी। काफी देर बाद उन्हें समझ आया कि शकुंतला के कानों में शिरीष का फूल लगाना भूल गए हैं। कालिदास सौंदर्य के बाहरी आवरण को भेदकर उसके भीतर पहुँचने में समर्थ थे। वे सुख-दुख दोनों में भाव-रस खींच लिया करते थे। ऐसी प्रकृति सुमित्रानंदन पंत ब रवींद्रनाथ में भी थी। शिरीष पक्के अवधूत की तरह लेखक के मन में भावों की तरंगें उठा देता है। वह आग उगलती धूप में भी सरस बना रहता है। आज देश में मारकाट, आगजनी, लूटपाट आदि का बवंडर है। ऐसे में क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। गांधी जी भी रह सके थे। ऐसा तभी संभव हुआ है जब वे वायुमंडल से रस खींचकर कोमल व कठोर बने। लेखक जब शिरीष की ओर देखता है तो हूक उठती है-हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!



शब्दार्थ

धरित्री – पृथ्वी। निर्धूम – धुआँ रहित। कर्णिकार – कनेर या कनियार नामक फूल। आरवग्ध – अमलतास नामक फूल। लहकना – खिलना। खखड़ – ढूँठ, शुष्क। दुमदार –पूँछवाला। लडूरे – पूँछविहीन। निधात – बिना आघात या बाधा के। उसस – गर्मी। लू – गर्म हवाएँ। कालजयी – समय को पराजित करने वाला। अवधूत – सांसारिक मोहमाया से विरक्त मानव। नितांत – पूरी तरह से। हिल्लोल – लहर। अरिष्ठ – रीठा नामक वृक्ष। पुन्नाग – एक बड़ा सदाबहार वृक्ष। घनमसृण – गहरा चिकना। हरीतिमा – हरियाली। परिवेटित – ढँका हुआ। कामसूत्र – वात्स्यायन के ग्रंथ का नाम। बकुल – मौलसिरी का वृक्ष। दोला – झूला। तुदिल – तोंद वाला।
यरवती – बाद के। समरित – पत्तों की खड़खड़ाहट की ध्वनि से युक्त। जीण – फटा-पुराना। ऊध्वमुखी – प्रगति कृी ओर अग्रसर। दुरंत – जिसका विनाश होना मुश्किल है। सर्वव्यापक – हर जगह व्याप्त। कालाग्नि – मृत्यु की आग। हज़रत – श्रीमान, (व्यंग्यात्मक स्वर)। अनासक्त – विषय-भोग से ऊपर उठा हुआ। अनाविल – स्वच्छ। उन्मुक्त – द्वंद्व रहित, स्वतंत्र। यक्कड़ – सांसारिक मोह से मुक्त। कयाटि – प्राचीनकाल का कर्नाटक राज्य।
उयालभ – उलाहना। स्थिरप्रज्ञता – अविचल बुद्ध की अवस्था। विदग्ध – अच्छी तरह तपा हुआ। मुग्ध – आनंदित। विस्मयविमूढ़ – आश्चर्यचकित। कार्पण्य – कंजूसी। गंडस्थल – गाल। शरच्चंद्र – शरद ऋतु का चंद्रमा। शुभ्र – श्वेत। मृणाल – कमलनाल। कृषिवल – किसान। निदलित – भलीभाँति निचोड़ा हुआ। द्वक्षुदड – गन्ना (ताजा) । अभ्र भेद –गगनचुंबी। गतव्य – लक्ष्य।
खून-खच्चर – लड़ाई-झगड़ा। हूक – वेदना।

अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

निम्नलिखित गदयांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
प्रश्न 1:
जहाँ बैठ के यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे-पीछे, दायें-बायें, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निधूम अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गरमी में फूल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आस-पास बहुत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्वध की तुलना नहीं की जा सकती। वह पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसंत ऋतु के पलाश की भाँति। कबीरदास को इस तरह पंद्रह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़-के-खंखड़-‘दिन दस फूला फूलिके, खंखड़ भया पलास!’ ऐसे दुमदारों से तो लैंडूरे भले। फूल है शिरीष। वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक जो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है।
प्रश्न:

लेखक कहाँ बैठकर लिख रहा है? वहाँ कैसा वातावरण हैं?
लेखक शिरीष के फूल की क्या विशेषता बताता हैं?
कबीरदास को कौन-से फूल पसंद नहीं थे तथा क्यों?
शिरीष किस ऋतु में लहकता है ?
उत्तर –

लेखक शिरीष के पेड़ों के समूह के बीच में बैठकर लिख रहा है। इस समय जेठ माह की जलाने वाली धूप पड़ रही है तथा सारी धरती अग्निकुंड की भाँति बनी हुई है।
शिरीष के फूल की यह विशेषता है कि भयंकर गरमी में जहाँ अधिकतर फूल खिल नहीं पाते, वहाँ शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लदा होता है। ये फूल लंबे समय तक रहते हैं।
कबीरदास को पलास (ढाक) के फूल पसंद नहीं थे क्योंकि वे पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलते हैं तथा फिर खंखड़ हो जाते हैं। उनमें जीवन-शक्ति कम होती है। कबीरदास को अल्पायु वाले कमजोर फूल पसंद नहीं थे।
शिरीष वसंत ऋतु आने पर लहक उठता है तथा आषाढ़ के महीने से इसमें पूर्ण मस्ती होती है। कभी-कभी वह उमस भरे भादों मास तक भी फूलता है।
प्रश्न 2:
मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्धात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्रप्रचार करता रहता है। यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर नितांत दूँठ भी नहीं हूँ। शिरीष के पुष्प मेरे मानस में थोड़ा हिल्लोल जरूर पैदा करते हैं।
प्रश्न:

अवधूत किसे कहते हैं? शिरीष को कालजयी अवधूत क्यों कहा गया हैं?
‘नितांत ठूँठ’ से यहाँ क्या तात्पर्य है? लेखक स्वयं को नितांत ठूँठ क्यों नहीं मानता ?
शिरीष जीवन की अजेयता का मत्र कैसे प्रचारित करता रहता है?
आशय स्पष्ट कीजिए-‘मन रम गया तो भरे भादों में भी निधति फूलता रहता है।”
उत्तर –

‘अवधूत’ वह है जो सांसारिक मोहमाया से ऊपर होता है। वह संन्यासी होता है। लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत कहा है क्योंकि वह कठिन परिस्थितियों में भी फलता-फूलता रहता है। भयंकर गरमी, लू, उमस आदि में भी शिरीष का पेड़ फूलों से लदा हुआ मिलता है।
‘नितांत ढूँठ’ का अर्थ है-रसहीन होना। लेखक स्वयं को प्रकृति-प्रेमी व भावुक मानता है। उसका मन भी शिरीष के फूलों को देखकर तरंगित होता है।
शिरीष के पेड़ पर फूल भयंकर गरमी में आते हैं तथा लंबे  समय तक रहते हैं। उमस में मानव बेचैन हो जाता है तथा लू से शुष्कता आती है। ऐसे समय में भी शिरीष के पेड़ पर फूल रहते हैं। इस प्रकार वह अवधूत की तरह जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचारित करता है।
इसका अर्थ यह है कि शिरीष के पेड़ वसंत ऋतु में फूलों से लद जाते हैं तथा आषाढ़ तक मस्त रहते हैं। आगे मौसम की स्थिति में बड़ा फेर-बदल न हो तो भादों की उमस व गरमी में भी ये फूलों से लदे रहते हैं।
प्रश्न 3:
शिरीष के फूले की कोमलता देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब-कुछ कोमल है! यह भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन के समय जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है, शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं। मुझे इनको देखकर उन नेताओं की बात याद आती है, जो किसी प्रकार जमाने का रुख नहीं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उन्हें धक्का मारकर निकाल नहीं देते तब तक जमे रहते हैं।
प्रश्न:

शिरीष के नए फल और पत्तों का पुराने फलों के प्रति व्यवहार संसार में किस रूप में देखने को मिलता हैं?
किसे आधार मानकर बाद के कवियों को परवर्ती कहा गया है ? उनकी समझ में क्या भूल थी ?
शिरीष के फूलों और फलों के स्वभाव में क्या अंतर हैं?
शिरीष के फूलों और आधुनिक नेताओं के स्वभाव में लेखक को क्या समय दिखाई पड़ता है ?
उत्तर –

शिरीष के नए फल व पत्ते नवीनता के परिचायक हैं तथा पुराने फल प्राचीनता के। नयी पीढ़ी प्राचीन रूढ़िवादिता को धकेलकर नव-निर्माण करती है। यही संसार का नियम है।
कालिदास को आधार मानकर बाद के कवियों को ‘परवर्ती’ कहा गया है। उन्होंने भी भूल से शिरीष के फूलों को कोमल मान लिया।
शिरीष के फूल बेहद कोमल होते हैं, जबकि फल अत्यधिक मजबूत होते हैं। वे तभी अपना स्थान छोड़ते हैं जब नए फल और पत्ते मिलकर उन्हें धकियाकर बाहर नहीं निकाल देते।
लेखक को शिरीष के फलों व आधुनिक नेताओं के स्वभाव में अडिगता तथा कुर्सी के मोह की समानता दिखाई पड़ती है। ये दोनों तभी स्थान छोड़ते हैं जब उन्हें धकियाया जाता है।
प्रश्न 4:
मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृत्यु, ये दोनों ही जगत के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगाई थी-‘धरा को प्रमान यही तुलसी, जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना!’ मैं शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है! सुनता कौन है? महाकालदेवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊध्र्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा जाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे!
प्रश्न:

जीवन का सत्य क्या हैं?
शिरीष के फूलों को देखकर लेखक क्या कहता हैं?
महाकाल के कोड़े चलाने से क्या अभिप्राय हैं?
मूर्ख व्यक्ति क्या समझते हैं ?
उत्तर –

जीवन का सत्य है-वृद्धावस्था व मृत्यु। ये दोनों जगत के अतिपरिचित व अतिप्रामाणिक सत्य हैं। इनसे कोई बच नहीं सकता।
शिरीष के फूलों को देखकर लेखक कहता है कि इन्हें फूलते ही यह समझ लेना चाहिए कि झड़ना निश्चित है।
इसका अर्थ यह है कि यमराज निरंतर कोड़े बरसा रहा है। समय-समय पर मनुष्य को कष्ट मिलते रहते हैं, फिर भी मनुष्य जीना चाहता है।
मूर्ख व्यक्ति समझते हैं कि वे जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो मृत्यु से बच जाएँगे। वे समय को धोखा देने की कोशिश करते हैं।
प्रश्न 5:
एक-एक बार मुझे मालूम होता है कि यह शिरीष एक अद्भुत अवधूत है। दुख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। जब धरती और आसमान जलते रहते हैं, तब भी यह हजरत न जाने कहाँ से अपना रस खींचते रहते हैं। मौज में आठों याम मस्त रहते हैं। एक वनस्पतिशास्त्री ने मुझे बताया है कि यह उस श्रेणी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस खींचता है। जरूर खींचता होगा। नहीं तो भयंकर लू के समय इतने कोमल तंतुजाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता था? अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। कबीर बहुत-कुछ इस शिरीष के समान ही थे, मस्त और बेपरवाह, पर सरस और मादक। कालिदास भी जरूर अनासक्त योगी रहे होंगे। शिरीष के फूल फक्कड़ाना मस्ती से ही उपज सकते हैं और ‘मेघदूत’ का काव्य उसी प्रकार के अनासक्त अनाविल उन्मुक्त हृदय में उमड़ सकता है। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है?
प्रश्न:

लेखक ने शिरीष को क्या संज्ञा दी है तथा क्यों ?
‘अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं?”-आशय स्पष्ट कीजिए।
कबीरदास पर लेखक ने क्या टिप्पणी की है ?
कबीरदास पर लेखक ने क्या टिप्पणी की हैं?
उत्तर –

लेखक ने शिरीष को ‘अवधूत’ की संज्ञा दी है क्योंकि शिरीष भी कठिन परिस्थितियों में मस्ती से जीता है। उसे संसार में किसी से मोह नहीं है।
लेखक कहता है कि अवधूत जटिल परिस्थितियों में रहता है। फक्कड़पन, मस्ती व अनासक्ति के कारण ही वह सरस रचना कर सकता है।
कालिदास को लेखक ने ‘अनासक्त योगी’ कहा है। उन्होंने ‘मेघदूत’ जैसे सरस महाकाव्य की रचना की है। बाहरी सुख-दुख से दूर होने वाला व्यक्ति ही ऐसी रचना कर सकता है।
कबीरदास शिरीष के समान मस्त, फक्कड़ व सरस थे। इसी कारण उन्होंने संसार को सरस रचनाएँ दीं।
प्रश्न 6:
कालिदास वजन ठीक रख सकते थे, वे मजाक व अनासक्त योगी की स्थिर-प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय पा चुके थे। कवि होने से क्या होता है? मैं भी छंद बना लेता हूँ तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छंद बना लेते थे-तुक भी जोड़ ही सकते होंगे इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते! पुराने सहृदय ने किसी ऐसे ही दावेदार को फटकारते हुए कहा था-‘वयमपि कवय: कवय: कवयस्ते कालिदासाद्द्या!’ मैं तो मुग्ध और विस्मय-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हूँ। अब इस शिरीष के फूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुंतला बहुत सुंदर थी। सुंदर क्या होने से कोई हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुंदर हृदय से वह सौंदर्य डुबकी लगाकर निकला है। शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यंत भी अच्छे-भले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था; लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुंलता के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थल तक लटके हुए थे, और रह गया है शरच्चंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।
प्रश्न:

लेखक कालिदास को श्रेष्ट कवी क्यों मानता है ?
आम कवि व कालिदास में क्या अंतर हैं?
‘शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी”-आशय स्पष्ट करें।
दुष्यंत के खीझने का क्या कारन था ? अंत में उसे क्या समझ में आया ?
उत्तर –

लेखक ने कालिदास को श्रेष्ठ कवि माना है क्योंकि कालिदास के शब्दों व अर्थों में सामंजस्य है। वे अनासक्त योगी की तरह स्थिर-प्रज्ञता व विदग्ध प्रेमी का हृदय भी पा चुके थे। श्रेष्ठ कवि के लिए यह गुण आवश्यक है।
ओम कवि शब्दों की लय, तुक व छंद से संतुष्ट होता है, परंतु विषय की गहराई पर ध्यान नहीं देता है। हालाँकि स्रकालिदास कविता के बाहरी तत्वों में विशेषज्ञ तो थे ही, वे विषय में डूबकर लिखते थे।
लेखक का मानना है कि शकुंतला सुंदर थी, परंतु देखने वाले की दृष्टि में सौंदर्यबोध होना बहुत जरूरी है। कालिदास की सौंदर्य दृष्टि के कारण ही शकुंतला का सौंदर्य निखरकर आया है। यह कवि की कल्पना का चमत्कार है।
दुष्यंत ने शकुंतला का चित्र बनाया था, परंतु उन्हें उसमें संपूर्णता नहीं दिखाई दे रही थी। काफी देर बाद उनकी समझ में आया कि शकुंतला के कानों में शिरीष पुष्प नहीं पहनाए थे, गले में मृणाल का हार पहनाना भी शेष था।
प्रश्न 7:
कालिदास सौंदर्य के बाहय आवरण को भेदकर उसके भीतर तक पहुँच सकते थे, दुख हो कि सुख, वे अपना भाव-रस उस अनासक्त कृपीवल की भाँति खींच लेते थे जो निर्दलित ईक्षुदंड से रस निकाल लेता है। कालिदास महान थे, क्योंकि वे अनासक्त रह सके थे। कुछ इसी श्रेणी की अनासक्ति आधुनिक हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत में है। कविवर रवींद्रनाथ में यह अनासक्ति थी। एक जगह उन्होंने लिखा-‘राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।” फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।
प्रश्न:

कालिदास की सौंदर्य-दूष्टि के बारे में बताइए।
कालिदास की समानता आधुनिक काल के किन कवियों से दिखाई गाई ?
रवींद्रनाथ ने राजोद्यान के सिंहद्वार के बारे में क्या लिखा हैं?
फूलों या पेड़ों से हमें क्या प्रेरणा मिलती हैं?
उत्तर –

कालिदास की सौंदर्य-दृष्टि सूक्ष्म व संपूर्ण थी। वे सौंदर्य के बाहरी आवरण को भेदकर उसके अंदर के सौंदर्य को प्राप्त करते थे। वे दुख या सुख-दोनों स्थितियों से अपना भाव-रस निकाल लेते थे।
कालिदास की समानता आधुनिक काल के कवियों सुमित्रानंदन पंत व रवींद्रनाथ टैगोर से दिखाई गई है। इन स में अनासक्त भाव है। तटस्थता के कारण ही ये कविता के साथ न्याय कर पाते हैं।
रवींद्रनाथ ने एक जगह लिखा है कि राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही गगनचुंबी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।
फूलों या पेड़ों से हमें जीवन की निरंतरता की प्रेरणा मिलती है। कला की कोई सीमा नहीं होती। पुष्प या पेड़ अपने सौंदर्य से यह बताते हैं कि यह सौंदर्य अंतिम नहीं है। इससे भी अधिक सुंदर हो सकता है।
प्रश्न 8:
शिरीष तरु सचमुच पक्के अवधूत की भाँति मेरे मन में ऐसी तरंगें जगा देता है जो ऊपर की ओर उठती रहती हैं। इस चिलकती धूप में इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाहय परिवर्तन-धूप, वर्षा, आँधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ है? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है।
प्रश्न:

शिरीष के वृक्ष की तुलना अवधूत से क्यों की गई है ? यह वृक्ष लेखक में किस प्रकार की भावना जनता है ?
चिलकती धूप में भी सरस रहने वाला शिरीष हमें क्या प्रेरणा दे रहा हैं?
गद्यांश में देश के ऊपर के किस बवंडर के गुजरने की ओर संकेत किया गया हैं?
अपने देश का एक बूढ़ा कौन था ? ऊसे बूढ़े और शिरीष में समानता का आधार लेखक ने क्या मन है ?
उत्तर –

अवधूत से तात्पर्य अनासक्त योगी से है। जिस तरह योगी कठिन परिस्थितियों में भी मस्त रहता है, उसी प्रकार शिरीष का वृक्ष भयंकर गर्मी, उमस में भी फूला रहता है। यह वृक्ष मनुष्य को हर परिस्थिति में संघर्षशील, जुझारू व सरस बनने की भावना जगाता है।
चिलकती धूप में भी सरस रहने वाला शिरीष हमें प्रेरणा देता है कि जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए तथा हर परिस्थिति में मस्त रहना चाहिए।
इस गद्यांश में देश के ऊपर से सांप्रदायिक दंगों, खून-खराबा, मार-पीट, लूटपाट रूपी बवंडर के गुजरने की ओर संकेत किया गया है।
‘अपने देश का एक बूढ़ा’ महात्मा गांधी है। दोनों में गजब की सहनशक्ति है। दोनों ही कठिन परिस्थितियों में सहज भाव से रहते हैं। इसी कारण दोनों समान हैं।
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न

पाठ के साथ

प्रश्न 1:
लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (सन्यासी) की तरह क्यों माना है ?

अथवा

शिरीष की तुलना किससे और क्यों की गई हैं?
उत्तर –
कालजयी संन्यासी का अर्थ है हर युग में स्थिर और अवस्थित रहना। वह किसी भी युग में विचलित या विगलित नहीं होता। शिरीष भी कालजयी अवधूत है। वसंत के आगमन के साथ ही लहक जाता है और आषाढ़ तक निश्चित रूप से खिला रहता है। जब उमस हो या तेज़ लू चल रही हो तब भी शिरीष खिला रहता है। उस पर उमस या लू का कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखता। वह अजेयता के मंत्र का प्रचार करता रहता है इसलिए वह कालजयी अवधूत की तरह है।

प्रश्न 2:
“हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती हैं।” प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें?
उत्तर –
हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है। मनुष्य को हृदय की कोमलता बचाने के लिए बाहरी तौर पर कठोर बनना पड़ता है तभी वह विपरीत दशाओं का सामना कर पाता है। शिरीष भी भीषण गरमी की लू को सहन करने के लिए बाहर से कठोर स्वभाव अपनाता है तभी वह भयंकर गरमी, लू आदि को सहन कर पाता है। संत कबीरदास, कालिदास ने भी समाज को उच्चकोटि का साहित्य दिया, परंतु बाहरी तौर पर वे सदैव कठोर बने रहे।



प्रश्न 3:
द्वविवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रहकर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है ? स्पष्ट करें?

अथवा

द्ववेदी जी ने ‘शिरीष के फूल’ पाठ में ” शिरीष के माध्यम से कोलाहल और संघर्ष से भरे जीवन में अविचल रहकर जिंदा रहने की सिख दी है। ” इस कथन की सोदाहरण पुष्टि कीजिए।
उत्तर –
लेखक ने कहा है कि शिरीष वास्तव में अद्भुत अवधूत है। वह किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होता। दुख हो या सुख उसने कभी हार नहीं मानी अर्थात् दोनों ही स्थितियों में वह निर्लिप्त रहा। मौसम आया तो खिल गया वरना नहीं। लेकिन खिलने न खिलने की स्थिति से शिरीष कभी नहीं डरा। प्रकृति के नियम से वह भलीभाँति परिचित था। इसलिए चाहे कोलाहल हो या संघर्ष वह जीने की इच्छा मन में पाले रहता है।

प्रश्न 4:
‘हाय, वह अवधूत आज कहाँ हैं!” ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वचस्व की वतमान सभ्यता के सकट की अोर सकेत किया हैं। कैसे?
उत्तर –
‘हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!” ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। आज मनुष्य में आत्मबल का अभाव हो गया है। अवधूत सांसारिक मोहमाया से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति होता है। शिरीष भी कष्टों के बीच फलता-फूलता है। उसका आत्मबल उसे जीने की प्रेरणा देता है। आजकल मनुष्य आत्मबल से हीन होता जा रहा है। वह मानव-मूल्यों को त्यागकर हिंसा, असत्य आदि आसुरी प्रवृत्तियों को अपना रहा है। आज चारों तरफ तनाव का माहौल बन गया है, परंतु गाँधी जैसा अवधूत लापता है। अब ताकत का प्रदर्शन ही प्रमुख हो गया है।



प्रश्न 5:
कवी (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का ह्रदय एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत करके लेखक ने साहित्य – कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाए। 
उत्तर –
कवि या साहित्यकार के लिए अनासक्त योगी जैसी स्थित प्रज्ञता होनी चाहिए क्योंकि इसी के आधार पर वह निष्पक्ष और सार्थक काव्य (साहित्य) की रचना कर सकता है। वह निष्पक्ष भाव से किसी जाति, लिंग, धर्म या विचारधारा विशेष को प्रश्रय न दे। जो कुछ समाज के लिए उपयोग हो सकता है उसी का चित्रण करे। साथ ही उसमें विदग्ध प्रेमी का-सा हृदय भी होना ज़रूरी है। क्योंकि केवल स्थित प्रज्ञ होकर कालजयी साहित्य नहीं रचा जा सकता। यदि मन में वियोग की विदग्ध हृदय की भावना होगी तो कोमल भाव अपने-आप साहित्य में निरूपित होते जाएंगे, इसलिए दोनों स्थितियों का होना अनिवार्य है।

प्रश्न 6:
‘सवग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता हैं, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी हैं?” पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर –
लेखक का मानना है कि काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। समय परिवर्तनशील है। हर युग में नयी-नयी व्यवस्थाएँ जन्म लेती हैं। नएपन के कारण पुराना अप्रासंगिक हो जाता है और धीरे-धीरे वह मुख्य परिदृश्य से हट जाता है। मनुष्य को चाहिए कि वह बदलती परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को बदल ले। जो मनुष्य सुख-दुख, आशा-निराशा से अनासक्त होकर जीवनयापन करता है व विपरीत परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेता है, वही दीर्घजीवी होता है। ऐसे व्यक्ति ही प्रगति कर सकते हैं।

प्रश्न 7:
आशय स्पष्ट कीजिए –

दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आंख बचा पाएँगे। भोले हैं वे।हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते  रहो, आगे की ओर मुहं किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे।
जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया , वह भी क्या कवि है ? …. मैं कहता हूँ कि कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।
फल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं हैं। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई उंगली है। वह इशारा है।
उत्तर –

लेखक कहता है कि काल रूप अग्नि और प्राण रूपी धारा का संघर्ष सदा चलता रहता है। मूर्ख व्यक्ति तो यह समझते हैं कि जहाँ टिके हैं वहीं टिके रहें तो मृत्यु से बच जाएंगे लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है। यदि स्थान परिवर्तन करते रहे अर्थात् जीने के ढंग को बदलते रहे तो जीवन जीना आसान हो जाता है। जीवन को एक ही ढरें पर चलोओगे तो समझो अपना जीवन नीरस हो गया। नीरस जीवन का अर्थ है मर जाना। अतः गतिशीलता ज़रूरी

लेखक का मानना है कि कवि बनने के लिए फक्कड़ बनना ज़रूरी है। जिस कवि में निरपेक्ष और अनासक्ति भाव नहीं होते वह श्रेष्ठ कवि नहीं बन सकता और जो कवि पहले से लिखी चली आ रही परंपरा को ही काव्य में अपनाता है वह भी कवि नहीं है। कबीर फक्कड़ थे, इसलिए कालजयी कवि बन गए। अतः कवि बनना है तो फक्कड़पने को ग्रहण करो।

लेखक के कहने का आशय है कि अंतिम परिणाम का अर्थ समाप्त होना नहीं है जो यह समझता है वह निरा बुद्धू है। फल हो या पेड़ वह यही बताते हैं कि संघर्ष की प्रक्रिया बहुत लंबी होती है। इसी प्रक्रिया से गुजरकर सफलता रूपी परिणाम मिलते हैं।
पाठ के आस-पास

प्रश्न 1:
शिरीष के पुष्प को शीतपुष्प भी कहा जाता है। ज्येष्ठ माह की प्रचड़ गरमी में फूलने वाले फूल को ‘शीतपुष्प’ की सज्ञा किस आधार पर दी गयी होगी ?
उत्तर –
लेखक ने शिरीष के पुष्प को ‘शीतपुष्प’ कहा है। ज्येष्ठ माह में भयंकर गरमी होती है, इसके बावजूद शिरीष के पुष्प खिले रहते हैं। गरमी की मार झेलकर भी ये पुष्प ठंडे बने रहते हैं। गरमी के मौसम में खिले ये पुष्प दर्शक को ठंडक का अहसास कराते हैं। ये गरमी में भी शीतलता प्रदान करते हैं। इस विशेषता के कारण ही इसे ‘शीतपुष्प’ की संज्ञा दी गई होगी।

प्रश्न 2:
कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गांधी जी के व्यक्तित्व की विशेषता बन गए ?
उत्तर –
गांधी जी सदैव अहिंसावादी रहे। दया, धर्म, करुणा, परोपकार, सहिष्णुता आदि भाव उनके व्यक्तित्व की कोमलता को प्रस्तुत करते हैं। वे जीवनभर अहिंसा का संदेश देते रहे लेकिन उनके व्यक्तित्व में कठोर भाव भी थे। कहने का आशय है। कि वे सच्चाई के प्रबल समर्थक थे और जो कोई व्यक्ति उनके सामने झूठ बोलने का प्रयास करता उसका विरोध करते। वे उस पर क्रोध करते। तब वे झूठे व्यक्ति को भला-बुरा भी कहते चाहे वह व्यक्ति कितने ही ऊँचे पद पर क्यों न बैठा हो। उनके लिए सत्य का एक ही मापदंड था दूसरा नहीं। इसी कारण कोमल और कठोर दोनों भाव उनके व्यक्तित्व की विशेषता बन गए।



प्रश्न 3:
आजकल अंतर्राष्टीय बाज़ार में भारतीय फूलों की बहुत माँग है। बहुत – से किसान सैग – सब्जी व् अन्न उत्पादन छोड़कर फूलों की खेती की ओर आकर्षित हो रहे है। इसी मुददे को विषय बनाते हुए वाद – विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं करें।

प्रश्न 4:
हज़ारीप्रसाद दविवेदी ने इस पथ की तरह ही वनस्पतियों के संदर्भ में कई व्यक्तित्व – व्यंजक ललित निबंध और भी लिखे है -कुटज ,आम फिर बैरा गए ,अशोक के फूल ,देवदारु आदि। शीक्षक की सहायता से इन्हें ढूँढ़िए और पढ़िए ?
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं करें।

प्रश्न 5:
द्वविवेदी जी की वनस्पतियों में ऐसी रुचि का क्या कारण हो सकता हैं? आज साहित्यिक रचना-फलक पर प्रकृति की उपस्थिति न्यून से न्यून होती जा रही हैं। तब ऐसी रचनाओं का महत्व बढ़ गया हैं। प्रकृति के प्रति आपका द्वष्टिकोण रुचिपूर्ण हैं या उपेक्षामय2 इसका मूल्यांकन करें।
उत्तर –
विद्यार्थी स्वयं करें।

भाषा की बात

प्रश्न 1:
‘दस दिन फूले और फिर खखड़-खखड़’-इस लोकोक्ति से मिलते-जुलते कई वाक्यांश पाठ में हैं। उन्हें छाँटकर लिखें।
उत्तर –
ऐसे वाक्यांश निम्नलिखित हैं –

ऐसे दुमदारों से लैंडूरे भले।
जो फरा सो झरा।
जो बरा सो बुताना।
न ऊधो का लेना, न माधो का देना।
जमे कि मरे।
वयमपि कवयः कवयः कवयस्ते कालिदासाद्या ।
इन्हें भी जानें

अशोक वृक्ष – भारतीय साहित्य में बहुचर्चित एक सदाबहार वृक्ष। इसके पत्ते आम के पत्तों से मिलते हैं। वसंत-ऋतु में इसके फूल लाल-लाल गुच्छों के रूप में आते हैं। इसे कामदेव के पाँच पुष्पवाणों में से एक माना गया है। इसके फल सेम की तरह होते हैं। इसके सांस्कृतिक महत्त्व का अच्छा चित्रण हजारी प्रसाद द्रविवेदी ने निबंध ‘अशोक के फूल’ में किया है। भ्रमवश आज एक-दूसरे वृक्ष को अशोक कहा जाता रहा है और मूल पेड़ (जिसका वानस्पतिक नाम सराका इंडिका है। को लोग भूल गए हैं। इसकी एक जाति श्वेत फूलों वाली भी होती है।
अरिष्ठ वृक्ष – रीठा नामक वृक्ष। इसके पत्ते चमकीले हरे होते हैं। फल को सुखाकर उसके छिलके का चूर्ण बनाया जाता है, बाल धोने एवं कपड़े साफ़ करने के काम में आता है। इस पेड़ की डालियों व तनों पर जगह-जगह काँटे उभरे होते हैं।
आरग्वध वृक्ष – लोक में उसे अमलतास कहा जाता है। भीषण गरमी की दशा में जब इसका पेड़ पत्रहीन ढूँठ-सा हो जाता है, तब इस पर पीले-पीले पुष्प गुच्छे लटके हुए मनोहर दृश्य उपस्थित करते हैं। इसके फल लगभग एक डेढ़ फुट के बेलनाकार होते हैं जिसमें कठोर बीज होते हैं।
शिरीष वृक्ष – लोक में सिरिस नाम से मशहूर पर एक मैदानी इलाके का वृक्ष है। आकार में विशाल होता है पर पत्ते बहुत छोटे-छोटे होते हैं। इसके फूलों में पंखुड़ियों की जगह रेशे-रेशे होते हैं।

अन्य हल प्रश्न

बोधात्मक प्रशन

प्रश्न 1:
कालिदास ने शिरीष की कोमलता और दविवेदी जी ने उसकी कठोरता के विषय में क्या कहा है ? ‘शिरीष के फूल’ पाठ  के आधार पर बताइए।
उत्तर –
कालिदास और संस्कृत-साहित्य ने शिरीष को बहुत कोमल माना है। कालिदास का कथन है कि ‘पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीष पुष्पं न पुन: पतत्रिणाम्”-शिरीष पुष्प केवल भौंरों के पदों का कोमल दबाव सहन कर सकता है, पक्षियों का बिलकुल नहीं। लेकिन इससे हजारी प्रसाद द्रविवेदी सहमत नहीं हैं। उनका विचार है कि इसे कोमल मानना भूल है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। जब तक नए फल-पत्ते मिलकर, धकियाकर उन्हें बाहर नहीं कर देते, तब तक वे डटे रहते हैं। वसंत के आगमन पर जब सारी वनस्थली पुष्प-पत्र से मर्मरित होती रहती है तब भी शिरीष के पुराने फल बुरी तरह खड़खड़ाते रहते हैं।

प्रश्न 2:
शिरीष के अवधूत रूप के कारण लेखक को किस महात्मा की यद् आती है और क्यों ?
उत्तर –
शिरीष के अवधूत रूप के कारण लेखक हजारी प्रसाद द्रविवेदी को हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की याद आती है। शिरीष तरु अवधूत है, क्योंकि वह बाहय परिवर्तन-धूप, वर्षा, आँधी, लू सब में शांत बना रहता है और पुष्पित पल्लवित होता रहता है। इसी प्रकार महात्मा गांधी भी मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खराबे के बवंडर के बीच स्थिर रह सके थे। इस समानता के कारण लेखक को गांधी जी की याद आ जाती है, जिनके व्यक्तित्व ने समाज को सिखाया कि आत्मबल, शारीरिक बल से कहीं ऊपर की चीज है। आत्मा की शक्ति है। जैसे शिरीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल, इतना कठोर हो सका है, वैसे ही महात्मा गांधी भी कठोर-कोमल व्यक्तित्व वाले थे। यह वृक्ष और वह मनुष्य दोनों ही अवधूत हैं।

प्रश्न 3:
शिरीष की तीन ऐसी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए जिनके कारण आचार्य हजारी प्रसाद दविवेद ने उसे ‘कलजारी अवधूत’ कहा है।
उत्तर –
आचार्य हजारी प्रसाद द्रविवेदी ने शिरीष को ‘कालजयी अवधूत’ कहा है। उन्होंने उसकी निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं –

वह संन्यासी की तरह कठोर मौसम में जिंदा रहता है।
वह भीषण गरमी में भी फूलों से लदा रहता है तथा अपनी सरसता बनाए रखता है।
वह कठिन परिस्थितियों में भी घुटने नहीं टेकता।
वह संन्यासी की तरह हर स्थिति में मस्त रहता है।
प्रश्न 4:
लेखक ने शिरीष के माध्यम से किस दवंदव को व्यक्त किया है ?
उत्तर –
लेखक ने शिरीष के पुराने फलों की अधिकार-लिप्सु खड़खड़ाहट और नए पत्ते-फलों द्वारा उन्हें धकियाकर बाहर निकालने में साहित्य, समाज व राजनीति में पुरानी व नयी पीढ़ी के द्वंद्व को बताया है। वह स्पष्ट रूप से पुरानी पीढ़ी व हम सब में नएपन के स्वागत का साहस देखना चाहता है।

प्रश्न 5:
‘शिरीष के फूल’ पाठ का प्रतिपाद्य स्पष्ट करें।
उत्तर –
पाठ के आरंभ में प्रतिपाद्य देखें।

प्रश्न 6:
कालिदास-कृत शकुंतला के सौंदर्य-वर्णन को महत्व देकर लेखक ‘सौंदर्य’ को स्त्री के एक मूल्य के रूप में स्थापित करता प्रतीत होता हैं। क्या यह सत्य हैं? यदि हों, तो क्या ऐसा करना उचित हैं?
उत्तर –
लेखक ने शकुंतला के सौंदर्य का वर्णन करके उसे एक स्त्री के लिए आवश्यक तत्व स्वीकार किया है। प्रकृति ने स्त्री को कोमल भावनाओं से युक्त बनाया है। स्त्री को उसके सौंदर्य से ही अधिक जाना गया है, न कि शक्ति से। यह तथ्य आज भी उतना ही सत्य है। स्त्रियों का अलंकारों व वस्त्रों के प्रति आकर्षण भी यह सिद्ध करता है। यह उचित भी है क्योंकि स्त्री प्रकृति की सुकोमल रचना है। अत: उसके साथ छेड़छाड़ करना अनुचित है।

प्रश्न 7:
‘ऐसे दुमदारों से तो लडूरे भले-इसका भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर –
लेखक कहता है कि दुमदार अर्थात सजीला पक्षी कुछ दिनों के लिए सुंदर नृत्य करता है, फिर दुम गवाकर कुरूप हो जाता है। यहाँ लेखक मोर के बारे में कह रहा है। वह बताता है कि सौंदर्य क्षणिक नहीं होना चाहिए। इससे अच्छा तो पूँछ कटा पक्षी ही ठीक है। उसे कुरूप होने की दुर्गति तो नहीं झेलनी पड़ेगी।

प्रश्न 8:
विज्जिका ने ब्रहमा, वाल्मीकि और व्यास के अतिरिक्त किसी को कवि क्यों नहीं माना है?
उत्तर –
कर्णाट राज की प्रिया विज्जिका ने केवल तीन ही को कवि माना है-ब्रहमा, वाल्मीकि और व्यास को। ब्रहमा ने वेदों की रचना की जिनमें ज्ञान की अथाह राशि है। वाल्मीकि ने रामायण की रचना की जो भारतीय संस्कृति के मानदंडों को बताता है। व्यास ने महाभारत की रचना की, जो अपनी विशालता व विषय-व्यापकता के कारण विश्व के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्यों में से एक है। भारत के अधिकतर साहित्यकार इनसे प्रेरणा लेते हैं। अन्य साहित्यकारों की रचनाएँ प्रेरणास्रोत के रूप में स्थापित नहीं हो पाई। अत: उसने किसी और व्यक्ति को कवि नहीं माना।

स्वय करें

प्रश्न:

आरवग्ध (अमलतास) और शिरीष के वृक्षों की तुलना ‘शिरीष के फूल’ पाठ के आधार पर कीजिए।
भारतीय रईस अपनी वृक्ष-वाटिका की शोभा किन-किन वृक्षों से बढ़ाते हैं और क्यों?
शिरीष के वृक्ष की किन विशेषताओं से लेखक प्रभावित हुआ है?’शिरीष के फूल’ के आधार पर उत्तर दीजिए।
कालिदास और लेखक के विचार शिरीष के प्रति किस प्रकार भिन्न हैं ?
लेखक ने पाठ में दो अवधूतों का वर्णन किया है? दोनों का नामोल्लेख करते हुए उनकी समानताओं का वर्णन कीजिए।
निम्नलिखित गद्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
(अ) यद्यपि पुराने कवि बकुल के पेड़ में ऐसी दोलाओं को लगा देखना चाहते थे, पर शिरीष भी क्या बुरा है! डाल इसकी अपेक्षाकृत कमजोर जरूर होती है, पर उसमें झूलनेवालियों का वजन भी तो बहुत ज्यादा नहीं होता। कवियों की यही तो बुरी आदत है कि वजन का एकदम खयाल नहीं करते। मैं तुंदिल नरपतियों की बात नहीं कह रहा हूँ, वे चाहें तो लोहे का पेड़ बनवा लें।
पुराने कवि क्या देखना चाहते थे?
शिरीष की डालों में क्या कमी हैं?   
लेखक कवियों की कौन – सी आदत बुरी मंटा है ?
लेखक के अनुसार कौन-से लोग लोहे के पेड़ बनवा सकते हैं?
(ब) इस चिलकती धूप में इतना सरस वह कैसे बना रहता है? क्या ये बाहय परिवर्तन-धूप, वर्षा, आँधी, लू-अपने आपमें सत्य नहीं हैं? हमारे देश के ऊपर से जो यह मार-काट, अग्निदाह, लूट-पाट, खून-खच्चर का बवंडर बह गया है, उसके भीतर भी क्या स्थिर रहा जा सकता है? शिरीष रह सका है। अपने देश का एक बूढ़ा रह सका था। क्यों मेरा मन पूछता है कि ऐसा क्यों संभव हुआ? क्योंकि शिरीष भी अवधूत है। शिरीष वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है। गाँधी भी वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर हो सका था। मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूँ, तब-तब हूक उठती है-हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!
अवधूत किसे कहते हैं? शिरीष को अवधूत मानना कहाँ तक तकसगत हैं?
किन आधारों पर लेखक महत्मा गाँधी और शिरीष को सामान धरातल पर पता है ?
देश के ऊपर से गुजर रहे बवंडर का क्या स्वरूप हैं? इससे कैसे जूझा जा सकता है?
आशय स्पष्ट कीजिए-मैं जब-जब शिरीष की ओर देखता हूँ तब-तब हूक उठती हैं- हाय, वह अवधूत आज कहाँ हैं?
1. लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह क्यों माना है?
उत्तर:- ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी’ शिरीष को अद्भुत अवधूत मानते हैं, क्योंकि संन्यासी की भाँति वह सुख-दुख की चिंता नहीं करता। शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता के मंत्र का प्रचार करता है। जब पृथ्वी अग्नि के समान तप रही होती है वह तब भी कोमल फूलों से लदा लहलहाता रहता है। बाहरी गरमी, धूप, वर्षा आँधी, लू उसे प्रभावित नहीं करती। इतना ही नहीं वह लंबे समय तक खिला रहता है। शिरीष विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्यशील तथा अपनी अजेय जिजीविषा के साथ निस्पृह भाव से प्रचंड गरमी में भी अविचल खड़ा रहता है।


2. हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी ज़रूरी हो जाती है – प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर:- मनुष्य को ह्रदय की कोमलता को बचाने के लिए बाहरी तौर पर कठोर बनना पड़ता है ताकि वे विपरीत परिस्थिति का सामना कर पाएँ। जिस प्रकार शिरीष का वृक्ष अपनी सरसता को बचाने के लिए बाहर से कठोर हो जाता है ताकि वह भीषण गर्मी, लू को सहन कर पाए।


3. द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रहकर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।
उत्तर:- जब पृथ्वी अग्नि के समान तप रही होती है, तब भी शिरीष का वृक्ष कोमल फूलों से लदा लहलहाता रहता है। बाहरी गरमी, धूप, वर्षा आँधी, लू उसे प्रभावित नहीं करती। इतना ही नहीं वह लंबे समय तक खिला रहता है। इसी तरह जीवन में किसी भी प्रकार की कठिनाई क्यों न आए मनुष्य को उस पर जीत हासिल करनी चाहिए। उसे चारों और फैले भ्रष्टाचार, अत्याचार, मारकाट, लूटपाट और खून खच्चर में भी निराश नहीं होना चाहिए अपितु स्थिर और शांत रहते हुए मंजिल पर पहुँचने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार शिरीष विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्यशील रहने तथा अपनी अजेय जिजीविषा के साथ निस्पृह भाव से रहने की सीख देता है।


4. हाय, वह अवधूत आज कहाँ है! ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। कैसे?
उत्तर:- अवधूत सांसारिक मोह-माया से ऊपर उठा व्यक्ति होता है। वे आत्मबल के प्रतीक होते हैं। परंतु आज मानव आत्मबल की बजाय देहबल, धनबल आदि जुटाने में लगें हैं। आज मनुष्य में आत्मबल का अभाव हो चला है। आज मनुष्य मूल्यों को त्यागकर हिंसा, असत्य आदि गलत प्रवृत्तियों को अपनाकर ताकत का प्रदर्शन कर रहा है। ऐसी स्थिति किसी भी सभ्यता के लिए संकट के समान है।


5. कवि (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिर प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय – एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक न साहित्य-कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाएँ।
उत्तर:- लेखक ने साहित्य-कर्म के लिए बहुत ही ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है क्योंकि लेखक के अनुसार वही महान कवि बन सकता है जो अनासक्त योगी की तरह स्थिर-प्रज्ञ तथा विदग्ध प्रेमी की तरह सहृदय हो। छंद तो कोई भी लिख सकता है परंतु उसका यह अर्थ नहीं कि वह महाकवि है। कवि में वज्र जैसा कठोर और पुष्प की तरह कोमल दोनों गुणों की अपेक्षा की जाती है। लेखक कबीरदास और कालीदास को इसलिए महान मानता है क्योंकि इन दोनों में अनासक्ति का भाव था।


6. सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरंतर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर:- मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं को बदलती परिस्थितियों के साथ ढाल ले। जो मनुष्य सुख-दुःख, निराशा-आशा से अनासक्त होकर अपना जीवनयापन करता है वही प्रतिकूल परिस्थतियों को भी अनुकूल बना लेता है अत:दीर्घजीवी होता है। शिरीष का वृक्ष और गाँधी जी दोनों अपनी विपरीत परिस्थिति के सामने जड़ होकर नष्ट नहीं हुए, बल्कि उन्हीं भीषण परिस्थिति को अपने अनुकूल बनाकर जीवन में सरस रह सकें।


7 आशय स्पष्ट कीजिए –
1. दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो काल देवता की आँख बचा पाएँगे। भोले हैं वे। हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे।
उत्तर:- इन पक्तियों का आशय जीवन जीने की कला से है। लेखक के अनुसार दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। जो बुद्धिमान हैं वे इससे संघर्ष कर अपना जीवनयापन करते हैं। मूर्ख व्यक्ति यह समझते हैं कि वे जहाँ है वहाँ डटे रहने से काल देवता की नज़र से बच जाएँगे। वे भोले होते हैं उन्हें यह नहीं पता होता है कि जड़ता मृत्यु के समान है तो गतिशीलता जीवन है। जो हिलता-डुलता है, स्थान बदलता है वही प्रगति के साथ-साथ मृत्यु से भी बचा रहता है क्योंकि गतिशीलता ही तो जीवन है।

2. जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका, जो किए-कराए का लेखा-जोखा मिलाने में उलझ गया, वह भी क्या कवि है?…..मैं कहता हूँ कवि बनना है मेरे दोस्तो, तो फक्कड़ बनो।
उत्तर:- इस पंक्तियों का आशय सच्चे कवि बनने से है। लेखक के अनुसार यदि श्रेष्ठ कवि बनना है तो अनासक्त और फक्कड़ बनना होगा। अनासक्ति से व्यक्ति तटस्थ भाव से निरिक्षण कर पाता है और फक्कड़ होने से वह सांसारिक आकर्षणों से दूर रहता है। जो अपने कार्यों का लेखा-जोखा, हानि-लाभ आदि मिलाने में उलझ जाता है वह कवि नहीं बन पाता।

3. फूल हो या पेड़, वह अपने-आप में समाप्त नहीं है। वह किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली है। वह इशारा है।
इस पंक्ति का आशय सुंदरता और सृजन की सीमा से है लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि फल, पेड़ और फूल इनका अपना-अपना अस्तित्व होता है ये यूँ ही समाप्त नहीं होते हैं। ये संकेत देते हैं कि जीवन में अभी बहुत कुछ शेष है अभी भी सृजन की अपार संभावना है।


8. शिरीष के पुष्प को शीतपुष्प भी कहा जाता है। ज्येष्ठ माह की प्रचंड गरमी में फूलने वाले फूल को शीतपुष्प संज्ञा किस आधार पर दी गई होगी?
उत्तर:- ज्येष्ठ माह में प्रचंड गर्मी पड़ती है। ऐसी गर्मी में भी शिरीष के फूल खिले रहते हैं। ऐसी गर्मी में तो फूलों को मुरझा जाना चाहिए किंतु ये तो खिले रहते हैं और यह तभी संभव है जब पुष्प इतने ठंडे हो कि आग भी इन्हें छूकर ठंडी हो जाए। इसी आधार पर इन्हें शीत पुष्प की संज्ञा दी गई होगी।

9. कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गांधीजी के व्यक्तित्व की विशेषता बन गए।
उत्तर:- गांधी जी जन सामान्य की पीड़ा से द्रवित हो जाते थे परंतु वहीँ अंग्रेजों के खिलाफ़ वज्र की भांति तनकर खड़े हो जाते थे। एक ओर तो गांधी जी के मन में सत्य, अहिंसा जैसे कोमल भाव थे तो दूसरी ओर अनुशासन के मामले में बड़े ही कठोर थे अत: हम कह सकते हैं कि कोमल और कठोर दोनों भाव गांधीजी के व्यक्तित्व की विशेषता बन गए।


• भाषा की बात
1. दस दिन फूले और फिर खंखड़-खंखड़ इस लोकोक्ति से मिलते-जुलते कई वाक्यांश पाठ में हैं। उन्हें छाँट कर लिखें।

उत्तर:- 1. ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले
2. धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा,जो बरा सो बुताना
3. न उधो का लेना न माधो का देना
4. वयमपि कवय: कवय:कवयस्ते कालिदासाद्य


अक्क महादेवी

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