Thursday 23 December 2021

रचनात्मक लेखन

रचनात्मक लेखन 



रचनात्मक लेखन

किसी भाव विशेष या विचार विशेष को व्यक्त करने के लिए कहते हैं। इसे भाव-पल्लवन भी कहा जाता है। इसको लिखने का स्पष्ट करना होता है। अनुच्छेद अपने-आप में स्वतंत्र एवं पूर्ण होता डालता है। अत: यह एक प्रभावी एवं उपयोगी लेखन-शैली है।

रचनात्मक लेखन हेतु निम्नलिखित विशेषताओं का होना आवश्यक है-

1.भाव या विषय का अच्छी तरह से ज्ञान।

2.संबंधित भाषा के शब्द-भंडार पर अधिकार।

3.भाषा के व्याकरणिक बिंदुओं का ज्ञान।

4.विषय से संबंधित उक्तियों का संग्रह।

रचनात्मक लेखन से संबंधित ध्यान देने योग्य बातें-

1.यह एक संक्षिप्त शैली है। अत: विषय-केंद्रित रहना चाहिए।

2.एक भी वाक्य अनावश्यक नहीं होना चाहिए।

3.अपनी बात संक्षिप्त एवं प्रभावपूर्ण तरीके से व्यक्त करनी चाहिए।

4.लेखन का प्रथम एवं अंतिम वाक्य प्रभावी होना चाहिए।

5.लेखन में प्रत्येक वाक्य परस्पर संबद्ध होने चाहिए।

6.लेखन की भाषा शैली विषयानुरूप होनी चाहिए।

7.भाव या विषय की स्पष्टता में अधूरापन नहीं होना चाहिए।

(रचनात्मक लेखन  के उदाहरण)


1. अध्ययन का आनंद

विद्या मनुष्य का तीसरा नेत्र है। विद्या की प्राप्ति उसी को हो सकती है, जो निरंतर अध्ययन करता रहता हो तथा जो अध्ययन में आनंद का अनुभव करे। संसार का इतिहास पढ़ने से पता चलता है कि विश्व में जितने भी महान महापुरुष हुए हैं, उनकी सफलता का मूलमंत्र अध्ययन है। गांधी जी के संबंध में कहा जाता है कि वे अवकाश का एक भी क्षण ऐसा नहीं जाने देते थे जिसमें वे कुछ पढ़ते न रहे हों। लोकमान्य तिलक, वीर सावरकर, जवाहरलाल नेहरू, जार्ज वाशिंगटन, माक्स आदि महान नेताओं ने जो महाग्रंथ मानव-जाति को प्रदान किए, वे उनके अध्ययन के ही परिणाम थे। लोकमान्य तिलक ने ‘गीता-रहस्य’ नामक महान पुस्तक काले पानी की सजा के दौरान लिखी। ये लोग जेल के दूषित वातावरण में रहकर भी इतना उत्तम साहित्य तभी दे सके क्योंकि वे अध्ययन को आनंद का विषय मानते थे। अध्ययन के आनंद की कोई तुलना नहीं है। एक विचारक का यह कहना ठीक ही है कि “पूरा दिन मित्रों की गोष्ठी में बरबाद करने के बजाय प्रतिदिन केवल एक घंटा अध्ययन में लगा देना कहीं अधिक लाभप्रद है।” अध्ययन के लिए न कोई विशेष आयु है और न ही उसका समय निर्धारित है। अध्ययन मानव-जीवन का अटूट अंग है। कविवर रहीम ने कहा है-

उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होय।

अध्ययन मनुष्य की चिंतन-शक्ति और कार्य-शक्ति बढ़ाता है। यह कायरों में शक्ति तथा निराश व्यक्तियों में आनंद का संचार करता है। अध्ययन के बिना मनुष्य का जीवन अधूरा है। हर व्यक्ति अपनी आयु, रुचि के अनुसार अध्ययन करता है। किसी को विज्ञान संबंधी विषय पढ़ना पसंद है, तो कोई कविता पढ़ना चाहता है। किंतु केवल किताबी कीड़ा बनकर रहना उचित नहीं है। इसके साथ-साथ जीवन के विकास की अन्य बातों का भी ध्यान रखना ज़रूरी है। इसके अतिरिक्त, जीवन को सत्पथ पर ले जाने वाले साहित्य का भी अध्ययन करना चाहिए। इसके लिए पुस्तकों के चयन में सावधानी बरतना बहुत आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, केवल पढ़ने मात्र से ही अध्ययन नहीं होता। यह मनन से होता है। अत: अध्ययन का मूल मंत्र है-

पढ़ो, समझो और ग्रहण करो।

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2. फिल्मों की सामाजिक भूमिका

फ़िल्में आधुनिक जीवन में मनोरंजन का सर्वोत्तम साधन हैं। ये समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को प्रभावित करती हैं। फ़िल्मों में कलाकारों के अभिनय को लोग अपने जीवन में उतारने की कोशिश करते हैं। इस दृष्टि से फ़िल्मों का सामाजिक दायित्व भी बनता है। वे केवल मनोरंजन का ही नहीं, अपितु सामाजिक बुराइयों को दूर करने का भी साधन हैं। फ़िल्में समाज में व्याप्त विभिन्न बुराइयों को दूर करके स्वस्थ वातावरण के निर्माण में सहायता करती हैं। उदाहरणस्वरूप ‘गदर’ फ़िल्म में भारत-पाक युद्ध तथा 1971 की प्रमुख घटनाओं को दर्शाया गया है। ‘रंग दे बसंती’ फ़िल्म में आज़ादी के संघर्ष को संवेदनशील तरीके से दिखाया गया है।

स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस पर ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ गीत को सुनकर लोगों में आज भी देशभक्ति का जज़्बा जाग उठता है। विदाई के अवसर पर ‘पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली’ गीत सुनकर वधू पक्ष के लोग भावुक हो उठते हैं। हालाँकि फ़िल्मों के केवल सकारात्मक प्रभाव ही समाज पर पड़ता है, ऐसा नहीं है। आज के युग में युवा फ़िल्मों से गुमराह भी हो रहे हैं।

फ़िल्मों में अपराध करने के नए-नए तरीके दिखाए जाते हैं, जिनका अनुसरण युवा करते हैं। छोटे-छोटे बच्चों की जबान पर चालू भाषा के गीत होते हैं।  फ़िल्मों के शीर्षक भी बच्चों को गलत प्रवृत्ति की ओर अग्रसर करते हैं। 

अत:आज यह आवश्यका हो गया है कि फ़िल्में समाज को नई दिशा दें। वे कोरी व्यावसायिकता से ऊपर उठें तथा समाज की समस्याओं को सकारात्मक ढंग से अभिव्यक्त करें।

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1. आधुनिकता और नारी

आधुनिकता एक विचारधारा है। पुराने से स्वयं को अलग करके नए विचार व दिशा बनाना ही आधुनिकता है। हम आधुनिक युग उस समय से प्रारंभ करते हैं, जब नई जीवन-व्यवस्था प्रारंभ हुई। किसी भी समाज के विकास में नर-नारी का समान योगदान होता है। भारत में प्राचीन काल में मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी। धीरे-धीरे राजवंशों का प्रचलन हुआ और नारी का महत्व घटने लगा। मध्यकाल में नारी की स्थिति और गिर गई। हालाँकि आधुनिक युग की शुरुआत से जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन आ गया। नारी की स्थिति सुधारने के लिए प्रयास किए जाने लगे। भारत में समाज-सुधारकों ने सती-प्रथा, शिशु-हत्या प्रथा आदि कुप्रथाओं का डटकर विरोध किया। स्त्री-शिक्षा व विधवा-विवाह के प्रोत्साहन के लिए सरकारी व गैर-सरकारी प्रयास किए गए। नारी-सुधार आंदोलन शुरू हुए।

आज़ादी मिलने के बाद देश में लोकतंत्र स्थापित हुआ। नए शासन में स्त्रियों को पुरुष के बराबर का दर्जा दिया गया। सैद्धांतिक व कानूनी तौर पर नारी को वे समस्त अधिकार प्राप्त हो गए, जो पुरुषों को उपलब्ध हैं।  यद्यपि भारत में विकास के चाहे कितने ही दावे किए जाएं, तथापि आज भी वास्तविकता यह है कि स्त्रियों को बराबरी का अधिकार नहीं दिया गया है। हालांकि अब समय के साथ-साथ स्थिति में परिवर्तन आ रहा है।

सामान्य बुद्धिस्तर के समुदाय के बीच आज भी नारी जटिल परिस्थितियों में जीवन व्यतीत कर रही है। नारी-मुक्ति का प्रमुख आधार है उसका आर्थिक रूप से स्वावलंबी होना। जब नारी आर्थिक रूप से समर्थ होगी, तब उसे निर्णय करने का अधिकार मिलेगा। अतःउच्च शिक्षा, गंभीर चिंतन व श्रेष्ठ आचरण  आधुनिक संदर्भों में नारी की शक्ति बन सकता है और उसे विकसित कर सकेगा।

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2. पर्यटन का महत्व

सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ, 

ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ ॥

मानव अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण दूसरे देशों या अलग-अलग स्थानों की यात्रा करना चाहता है। उसे दूसरे क्षेत्र की संस्कृति, सभ्यता, प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिक जानकारी के बारे में जानने की इच्छा होती है। इसी कारण वह अपना सुखचैन छोड़कर अनजान, दुर्गम व बीहड़ रास्तों पर घूमता रहता है। 

आदिमानव एक ही स्थान पर रहता तो क्या दुनिया विकसित हो पाती। एक स्थान पर टिके न रहने के कारण ही मानव को ‘घुमक्कड़’ कहा गया है। ‘घुमक्कड़ी’ का आधुनिक रूप ‘पर्यटन” बन गया है। पहले घुमक्कड़ी अत्यंत कष्टसाध्य थी क्योंकि संचार व यातायात के साधनों का अभाव था। संसाधन भी कम थे तथा पर्यटन-स्थल पर सुविधाएँ भी विकसित नहीं थीं। आज विज्ञान का प्रताप है कि मनुष्य को बाहर जाने में कोई कठिनाई नहीं होती। आज सिर्फ़ मनुष्य में बाहर घूमने का उत्साह, धैर्य, साहस, जोखिम उठाने की तत्परता होनी चाहिए, शेष सुविधाएँ विज्ञान उन्हें प्रदान कर देता है।

20वीं सदी से पर्यटन एक उद्योग के रूप में विकसित हो गया है। विश्व के लगभग सभी देशों में पर्यटन मंत्रालय बनाए गए हैं। हर देश अपने ऐतिहासिक स्थलों, अद्भुत भौगोलिक स्थलों को सजा-सँवारकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करना चाहता है। मनोरम पहाड़ी स्थलों पर पर्यटक आवास स्थापित किए जा रहे हैं। पर्यटकों के लिए आवास, भोजन, मनोरंजन आदि की व्यवस्था के लिए नए-नए होटलों, लॉजों और पर्यटन-गृहों का निर्माण किया जा रहा है। यातायात के सभी प्रकार के सुलभ व आवश्यक साधनों की व्यवस्था की जा रही है। पर्यटन आज मुनाफ़ा देने वाला व्यवसाय बन गया है। पर्यटन के लिए रंग-बिरंगी पुस्तिकाएँ आकर्षक पोस्टर, पर्यटन-स्थलों के रंगीन चित्र, आवास, यातायात आदि सुविधाओं का विस्तृत ब्यौरा लगभग सभी प्रमुख सार्वजनिक स्थलों पर मिलता है। पर्यटन के प्रति रुचि जगाने के लिए लघु फ़िल्में भी तैयार की जाती हैं।

पर्यटन के अनेक लाभ हैं, जैसे-आनंद-प्राप्ति, जिज्ञासा की पूर्ति आदि। इसके अतिरिक्त, पर्यटन से अंतर्राष्ट्रीयता की समझ विकसित होती है। मनुष्य का दृष्टिकोण विस्तृत होता है। प्रेम व सौहार्द्र का प्रसार होता है। सभ्यता-संस्कृतियों का परिचय मिलता-बढ़ता है। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना को पर्यटन से ही बढ़ावा मिलता है। पर्यटन के दौरान ही व्यक्ति को यथार्थ जीवन का आभास होता है तथा जीवन की एकरसता भी पर्यटन से ही समाप्त होती है।

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1. तनाव : आधुनिक जीवन-शैली की देन

आज मनुष्य विकास के उच्चतम स्तर पर पहुँच चुका है, परंतु वह और अधिक की लालसा कर रहा है। इसकी वजह से वह एक नई बीमारी की गिरफ़्त में आ रहा है। वह है-तनाव। तनाव एक मानसिक प्रक्रिया है। यह हमारे दिमाग में हमेशा रहता है। घटनाएँ तनाव का कारण नहीं हैं, बल्कि मनुष्य इसे कैसे समझता या प्रभावित होता है, यह तनाव का कारण है। तनाव बहती नदी के समान है। जब मनुष्य इस पर बाँध बनाता है, तो वह पानी की दिशा को अन्य स्थान की ओर अपनी इच्छा से बदल सकता है, परंतु जब नदी पर बाँध नहीं होता, तो वह बहुत विनाश करती है। 

आधुनिक जीवन-शैली से निरर्थक तनाव उत्पन्न हो रहा है; जैसे-बिजली का चला जाना, बच्चे का सही ढंग से होमवर्क न करना, भीड़ के कारण हर समय ट्रेन या बस छूटने का भय, दफ़्तर, स्कूल आदि गंतव्य पर सही समय पर न पहुँचने का भय, मीडिया द्वारा प्रचारित भय।

मनुष्य स्वयं को अमर या सर्वाधिक सुखी करना चाहता है, परंतु वह अपनी क्षमता व साधनों का ध्यान नहीं रखता। मनुष्य थोड़े समय में अधिक काम करना चाहता है। वह हमेशा जीतना चाहता है। अत: आज मानव नकारात्मक प्रवृत्ति से ग्रस्त है। उसे हर कार्य में नुकसान होने का भय रहता है। तनाव रहने से मनुष्य विभिन्न व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है। मनुष्य निराशाजनक जीवन जीने लगता है। वह चिड़चिड़ा, गुस्सैल प्रवृत्ति का हो जाता है।

वस्तुत: तनाव हमारे जीवन के ‘लाभ-हानि खाते’ में उधार की प्रविष्टि है। जब मनुष्य अपनी मुश्किलों को हल नहीं कर पाता, तो वह तनावग्रस्त हो जाता है। ये मुश्किलें वास्तविक विचार के न होने के कारण हैं। इसलिए मनुष्य को अधिक-से-अधिक अच्छे विचार सोचने चाहिए। मनुष्य को रचनात्मक ढंग से नए तरीके से व धैर्य से खुशी को ढूँढना चाहिए। थोड़े समय में अधिक पाने की इच्छा त्याग देनी चाहिए।


2. आतंकवाद के बढ़ते चरण


पिछले कुछ दशकों से जिस समस्या ने विश्व को सबसे अधिक आक्रांत किया है, वह है-विश्वव्यापी आतंकवाद। आतंकवाद वह प्रवृत्ति है, जिसमें कुछ लोग अपनी आकांक्षा की पूर्ति के लिए हिंसात्मक और अमानवीय साधनों का प्रयोग करते हैं।

आतंकवाद का मुख्य उद्देश्य होता है शासन व्यवस्था को अपने अनुकूल फैसला लेने हेतु मजबूर करना।बेरोज़गारी, अशिक्षा, सामाजिक-आर्थिक विषमताएँ आदि कारणों से किसी देश अथवा जाति का असंतुष्ट वर्ग देश से अलग होने, पृथक् राज्य स्थापित करने की माँग उठाता है और अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए पूरे देश तथा समाज को आतंकित करता है तथा इसके लिए अनेक बर्बर उपाय अपनाता है। आतंकवाद का स्वरूप या उद्देश्य कुछ भी हो, इसका भौगोलिक क्षेत्र कितना ही सीमित या विस्तृत क्यों न हो, आज इसने हमारे जीवन को अनिश्चित और असुरक्षित बना दिया है।

आज आतंकवादी गतिविधियों ने देश की राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए खतरा पैदा कर दिया है।  समूची कश्मीर घाटी हिंसा की आग में जल रही है। इसी प्रकार के स्वार्थपूर्ण कारणों से आज आतंकवाद की समस्या विश्वव्यापी हो गई है। सामान्यत: संसार के सभी देश इसके विरुद्ध संगठित हो रहे हैं। आतंकवाद मानव-जाति के लिए कलंक है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि इसका समूल नाश किया जाए।  विश्व की सभी सरकारों को अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद के विरुद्ध परस्पर सहयोग करना चाहिए, ताकि कोई भी आतंकवादी गुट कहीं शरण या प्रशिक्षण न पा सके। 

आतंकवाद के समाप्त होने पर ही मानवता का स्वप्न पूरा हो सकेगा!

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1. वैश्वीकरण(ग्लोबलाइज़ेशन)

संचार तथा परिवहन के विकास, नई-नई वैज्ञानिक तकनीकों तथा सूचना प्रौद्योगिकी के विकास से आज न केवल भौगोलिक दूरियाँ कम हुई हैं, बल्कि संसार के विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे के बहुत निकट आ रहे हैं। इस प्रकार विश्व के राष्ट्रों के निकट आने की प्रक्रिया को ही ‘वैश्वीकरण’ कहा जा रहा है। विश्व के विकसित देशों के पास तकनीक है तो विकासशील और अविकसित राष्ट्रों के पास कच्चा माल और सस्ता श्रम। आज सभी विकासात्मक कार्यों और समस्याओं की व्याख्या विश्व-स्तर पर होती है। इसलिए विश्व-बंधुत्व की भावना को बढ़ावा मिल रहा है।

वैश्वीकरण में निरंतर बढ़ते औद्योगिक विकास तथा संचार के साधनों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। मुद्रण कला तथा इलेक्ट्रॉनिक के विकास से हमें समाचार-पत्रों, रेडियो, दूरदर्शन आदि के द्वारा विश्व के किसी भाग में घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी तत्काल मिल जाती है। उसकी विश्वव्यापी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक है। टेलीफोन, ई-मेल, फ़ैक्स के द्वारा हम अविलंब देश-विदेश में स्थित अपने मित्रों, संबंधियों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों से संपर्क कर सकते हैं। यातायात के साधन आज इतने विकसित और सुविधाजनक हो गए हैं कि हम अल्प समय में ही हम विश्व के किसी भी हिस्से में पहुँच जाते हैं। संचार एवं यातायात के विकसित साधनों के कारण व्यक्ति के जीवन-स्तर में अंतर आया है।आज हम विभिन्न देशों में बनी वस्तुओं का उपभोग करते हैं। विभिन्न देशों के बीच व्यापारिक संबंध बढ़ रहे हैं। प्राकृतिक विपदाओं में भी राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय सहयोग मिल जाता है। इस प्रकार से एक वैश्विक संस्कृति के उदय होने की संभावना बढ़ती जा रही है। 

यदि आज मानव सुखी, शांतिपूर्ण और उन्नत जीवन व्यतीत करना चाहता है,तो इसके लिए आवश्यक है कि अधिकाधिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और सद्भावना में वृद्धि हो और विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे के पूरक बनें । तभी वैश्वीकरण की भावना समता और सहयोग पर आधारित होगी और समूचे विश्व का विकास तथा कल्याण होगा और ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का हमारा स्वप्न साकार होगा।


2. मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

 मन मानव के व्यक्तित्व का वह ज्ञानात्मक रूप है, जिससे उसके सभी कार्य संचालित होते हैं। मन में मनन करने की शक्ति होती है। यह संकल्प-विकल्प का पूँजीभूत रूप है। मननशीलता के कारण ही मनुष्य को चिंतनशील प्राणी की संज्ञा दी गई है। मन के हारने से बड़े-बड़े संकल्प धराशायी हो जाते हैं और जब तक मन की संकल्प शक्ति नहीं टूटती, तब तक व्यक्ति कठिन-से-कठिन कार्य को करने में भी असफल नहीं होता।

फलत: सफलता या असफलता उस कर्म के प्रति व्यक्ति की आसक्ति की मात्रा निर्भर होती है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो मन की शक्ति के परिचायक हैं। शिवाजी द्वारा मुगलों पर विजय, गांधी के सत्य और अहिंसा के प्रति अटूट विश्वास से अंग्रेजों का भागना, सरदार पटेल की दृढ़ इच्छा-शक्ति से भारतीय रियासतों का एकीकरण आदि उदाहरण हमारे सामने हैं। 

मन की संकल्प शक्ति अद्भुत होती है। मन ही अच्छे-बुरे का निर्णय करता है। मन के निर्णय के अनुसार ही मानव-शरीर कार्य करता है। मनोबल के बिना मनुष्य निर्जीव ढाँचा बनकर रह जाता है। मुसीबतों को देखकर जीवन-यात्रा से क्लांत नहीं होना चाहिए। हमें मन मैं कभी भी निराशा की भावना नहीं लानी चाहिए। हिम्मत के बलबूते पर हम अपने सभी कार्य सिद्ध कर सकते हैं। कहा भी गया है-

“हारिए न हिम्मत, बिसारिए न हरिनाम। “


2.करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान

मानव-जीवन में कर्म की प्रधानता है। कर्म अभ्यास के साथ जुड़ा है। अभ्यास का अर्थ है-किसी काम को करने का निरंतर प्रयत्न। किसी काम को करने से वांछित सफलता नहीं मिलती तो उसे निरंतर प्रयत्न करते रहना चाहिए। काम करते रहने पर भी सफलता न मिलने पर मनुष्य काम करना छोड़ देता है। महापुरुषों ने ऐसी स्थिति में निरंतर काम करने की प्रेरणा दी है-

देखकर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं ।

रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं।

निरंतर अभ्यास करने से मूख भी ज्ञानी हो जाता है जैसे पत्थर पर रस्सी के बार-बार आने-जाने से पत्थर पर निशान पड़ जाते हैं। यह कार्य-कुशलता का मूलमंत्र है। अभ्यास से कई लाभ होते हैं। इससे मानव की कार्य-कुशलता बढ़ती है। इससे मनुष्य कार्य की कठिनाइयों के विषय में सिद्धहस्त हो जाता है और पुनरावृत्ति करने पर उसे कठिनाइयाँ कम लगती हैं। इससे ज्ञान में वृद्धि होती है। अभ्यास के प्रसंग में यह भी विचारणीय है कि अभ्यास व्यक्ति स्वयं करता है या उसके लिए किसी के निर्देश की आवश्यकता होती है। यदि व्यक्ति स्वयं अभ्यास करता है तो उसमें पूर्णता नहीं आ पाती क्योंकि उसे अभ्यास के तरीकों में सिद्धहस्तता प्राप्त नहीं होगी। किसी विशेषज्ञ के निर्देशन में किया गया अभ्यास अधिक लाभदायक होता है।

अभ्यास मानव-जीवन के लिए वह पारस पत्थर है, जिसका स्पर्श पाकर लोहा भी सोना हो जाता है। यह बिल्कुल सही है कि जड़ बुद्ध वाला व्यक्ति भी अभ्यास से सीख सकता है। उसकी अज्ञानता समाप्त हो जाती है। सफलता के लिए अभ्यास नितांत आवश्यक है। ठीक ही कहा गया है-

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।

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1. राष्ट्रीयता और सांप्रदायिकता

वह राष्ट्र जिसमें हम बड़े होते हैं, शिक्षा पाते हैं और साँस लेते हैं-हमारा अपना राष्ट्र कहलाता है और उसकी सीमाओं में जन्म लेने वाले व्यक्तियों का धर्म, जाति, भाषा या संप्रदाय कुछ भी हो, आपस में स्नेह होना स्वाभाविक है। राष्ट्र के लिए जीना और काम करना, उसकी स्वतंत्रता के विकास के लिए काम करने की भावना ‘राष्ट्रीयता’ कहलाती है। किसी विशेष प्रकार की संस्कृति और धर्म को दूसरे पर आरोपित करने की भावना या धर्म अथवा संस्कृति के आधार पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने की क्रिया सांप्रदायिकता है।

सांप्रदायिकता समाज में वैमनस्य पैदा करती है और सामाजिक या राष्ट्रीय एकता को क्षति पहुँचाती है। सांप्रदायिकता राष्ट्रीयता के लिए बाधक है क्योंकि राष्ट्रीयता की अनिवार्य शर्त है-देश की प्राथमिकता के लिए अपने ‘स्व’ को मिटाना। महात्मा गांधी, तिलक, सुभाषचंद्र बोस आदि के जीवन से पता चलता है कि राष्ट्रीयता की भावना के कारण उन्हें अनगिनत कष्ट उठाने पड़े। व्यक्ति को निजी अस्तित्व कायम रखने के लिए सभी पारस्परिक सीमाओं की बाधाओं को भुलाकर कार्य करना चाहिए तभी उसकी नीतियाँ-रीतियाँ ‘राष्ट्रीय’ कहलाने की भागीदार बन सकती हैं।

किसी सांप्रदायिक भावना से संचालित व्यक्ति राष्ट्रीयता का समर्थक नहीं हो सकता। इसी प्रकार, राष्ट्रीयता का समर्थक कभी भी सांप्रदायिक नहीं हो सकता। वह भारत में रहने वाले सभी धर्मों, भाषाओं, जातियों आदि को समान दृष्टि से देखेगा। गांधी जी की प्रार्थना सभा में सभी धर्मों के अवतारों का नाम लेकर प्रार्थना की जाती थी। अकबर इलाहाबादी का भी कहना था-

मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना।

हिंदी हैं हम, वतन हैं हिंदोस्तां हमारा।

2. विज्ञापन

जब समाचार-पत्रों में सर्वसाधारण के लिए कोई सूचना प्रकाशित की जाती है तो उसको ‘विज्ञापन” कहते हैं। यह सूचना नौकरियों से संबंधित हो सकती है, खाली मकान को किराये पर उठाने के संबंध में हो सकती है या किसी औषधि के प्रचार से संबंधित हो सकती है। कुछ लोग विज्ञापन के आलोचक हैं। वे इसे निरर्थक मानते हैं। उनका मानना है कि यदि कोई वस्तु यथार्थ रूप में अच्छी है तो वह बिना किसी विज्ञापन के ही लोगों के बीच लोकप्रिय हो जाएगी, जबकि खराब वस्तुएँ विज्ञापन की सहायता से प्रचलित होने के बावजूद अधिक दिनों तक टिक नहीं पाएँगी, परंतु लोगों की यह सोच गलत है, क्योंकि आज के युग में उत्पादों की संख्या दिनपर-दिन बढ़ती जा रही है, ऐसे में विज्ञापनों का होना अनिवार्य हो जाता है।

किसी अच्छी वस्तु की वास्तविकता से परिचय पाना आज के विशाल संसार में विज्ञापन के बिना नितांत असंभव है। विज्ञापन ही वह शक्तिशाली माध्यम है जो उत्पादक और ‘उपभोक्ता’ दोनों को जोड़ने का कार्य करता है। वह उत्पाद को उपभोक्ता के संपर्क में लाता है तथा माँग और पूर्ति में संतुलन स्थापित करने का प्रयत्न करता है। पुराने जमाने में विज्ञापन मौखिक तरीके से होता था, जैसे-काबुल का मेवा, कश्मीर की जरी का काम, दक्षिण भारत के मसाले आदि।

 संचार क्रांति ने जिंदगी को ‘स्पीड’ दे दी है और मनुष्य की आवश्यकताएँ बढ़ती जा रही हैं। लोग जिस वस्तु की खोज में रहते हैं, विज्ञापन द्वारा ही उसे कम खर्च में सुविधा के साथ प्राप्त कर लेते हैं, यही विज्ञापन की पूर्ण सार्थकता है। विज्ञापन से व्यक्ति अपने व्यापार व व्यवसाय को फैला सकता है। अत: आधुनिक संसार विज्ञापन का संसार है। यदि हम किसी समाचार-पत्र या पत्रिका के पन्ने उलटते हैं तो विभिन्न प्रकार के विज्ञापन हमारा स्वागत करते हुए दिखाई देते हैं।

 आज विज्ञापन एक व्यापार बन गया है। विज्ञापन द्वारा व्यापार बढ़ता है। किसी वस्तु की माँग बढ़ती है। विज्ञापन के सिर्फ़ लाभ ही हों, ऐसा नहीं है। इसके नुकसान भी हैं। विज्ञापन व्यवसाय के विश्वास को डगमगा देता है।  सरकार को चाहिए कि ऐसे विज्ञापनों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए तथा दोषियों को सजा दे। भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ़ भी सख्त कार्यवाही होनी चाहिए।


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अक्क महादेवी

  पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न कविता के साथ प्रश्न 1: ‘लक्ष्य प्राप्ति में इंद्रियाँ बाधक होती हैं’-इसके संदर्भ में अपने तर्क दीजिए। उत्तर – ज्ञ...