Monday, 6 April 2020

आत्मपरिचय 1

आत्मपरिचय 1





















आत्मपरिचय-1
                                                                    श्री हरिवंश राय बच्चन
काव्यगत विशेषताएँ-
शिल्प-सौंदर्य-
बच्चन हालावाद के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक हैं।
सीधी-सादी जीवंत खड़ी बोली भाषा। इनकी भाषा आम व्यक्ति के निकट है। 
संवेदना से युक्त गेय शैली
छंद-मुक्ततुकांत कविता
गीति काव्य
रस-संयोग श्रृंगार
गुण-माधुर्य
अलंकार- पंक्तियों के साथ साथ बताए जाएंगे ।
प्रतिपादय/सार/भाव-सौंदर्य-
प्रस्तुत कविता में अपना परिचय एक अनासक्त दीवाने के रूप में देता है। उसका मानना है कि स्वयं को जानना दुनिया को जानने से ज़्यादा कठिन है। समाज से व्यक्ति का नाता खट्टा-मीठा तो होता ही है। संसार से पूरी तरह निरपेक्ष (अलग) रहना संभव नहीं। दुनिया चाहे जितना कष्ट देपर दुनिया से कटकर मनुष्य रह भी नहीं पाता। क्योंकि उसकी अपनी पहचान उसका परिवेश ही उसकी दुनिया है।

कवि अपना परिचय देते हुए लगातार दुनिया से द्वंद्वात्मक (खींचतान वाले) संबंधों के विषय में बताता है। वह पूरी कविता का सार एक पंक्ति में कह देता है कि दुनिया से मेरा संबंध प्रीति-कलह (प्रेम व लड़ाई) का हैमेरा जीवन विरुद्धों (विपरीत भाव) का सामंजस्य है- उन्मादों में अवसाद(उत्साह में निराशा का भाव)रोदन में राग (रोने में खुशी के गीत)शीतल वाणी में आग(शांत स्वर में जोश) । ऐसे विरुद्धों का सामंजस्य साधते-साधते कवि दीवानगी (मस्ती) से भर गया है ।
मैं जग – जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ !
शब्दार्थ-
जग-जीवन-सांसारिक गतिविधि।
झंकृत-तारों को बजाकर स्वर निकालना।
 अलंकार-
साँसों के तार  में रूपक अलंकार है।
जग-जीवन’ में अनुप्रास अलंकार है।
 
कवि कहता हैं कि मैं संसार में जीवन का भार (लोगों के दुख) उठाकर घूमता रहता हूँ। इसके बावजूद मेरा जीवन प्यार से भरा-पूरा है। जीवन की समस्याओं के बावजूद कवि के जीवन में प्यार है। उसका जीवन सितार की तरह है जिसे किसी ने छूकर झंकृत कर दिया है। फलस्वरूप उसका जीवन संगीत (खुशियों) से भर उठा है। उसका जीवन इन्हीं तार रूपी साँसों के कारण चल रहा है।
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा उनकोजो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ !
शब्दार्थ-
सुरा-शराब,मदिरा
स्नेह-प्रेम
पान-पीना
ध्यान करना-परवाह करना
गाते-प्रशंसा करते
अलंकार-
स्नेह-सुरा’ में रूपक अलंकार है।
स्नेह-सुरा’ में अनुप्रास अलंकार है।
कवि ने स्नेह रूपी मदिरा पी रखी है अर्थात प्रेम किया है तथा प्रेम ही बाँटा है। उस ने कभी संसार की परवाह नहीं की। संसार के लोगों की प्रवृत्ति है कि वे उनको ही पूछते हैंउन्हीं का गुणगान करते हैं,जो संसार के अनुसार चलते हैं लेकिन कवि अपने मन की इच्छानुसार चलता हैअर्थात वह वही करता हैजो उसका मन कहता है।
यहाँ कवि अपने मनमौजी स्वभाव का परिचय देता है।
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ
है यह अपूर्ण संसार न मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ।
शब्दार्थ-
उदगार-दिल के भाव
उपहार-भेंट
भाता-अच्छा लगता
स्वप्नों का संसार-कल्पनाओं की दुनिया
अलंकार-
स्वप्नों का संसार’ में अनुप्रास
कवि अपने मन की भावनाओं को दुनिया के सामने कहने की कोशिश करता है। उसे खुशी के जो उपहार मिले हैंउन्हें वह साथ लिए फिरता है और वह उन खुशियों को संसार को देना चाहता है ।
उसे यह संसार अधूरा लगता है क्योंकि संसार के लोग उस पर व्यंग्य करते हैं और उसे नहीं समझते। इस कारण उसे यह संसार पसंद नहीं है। वह अपनी कल्पना का संसार लिए फिरता है जिसमें प्रेम ही प्रेम है। उसे प्रेम से भरा अपना संसार अच्छा लगता है।
प्रश्न
 (क) जगजीवन का भार लिए फिरने से कवि का क्या आशय हैंऐसे में भी वह क्या करता है?
(ख) स्नेह-सुरा’ से कवि का क्या आशय हैं?
(ग) आशय स्पष्ट कीजिए-जग पूछ रहा उनकोजो जग की गाते।
(घ) साँसों के तार’ से कवि का क्या तात्पर्य हैंआपके विचार से उन्हें किसने झकृत किया होगा?
उत्तर 
(क) जगजीवन का भार लिए फिरने’ से कवि का आशय है-सांसारिक रिश्ते-नातों और दायित्वों को निभाने की जिम्मेदारीजिन्हें न चाहते हुए भी कवि को निभाना पड़ रहा है। ऐसे में भी उसका जीवन प्रेम से भरा-पूरा है और वह सबसे प्रेम करना चाहता है।
(ख) स्नेह-सुरा’ से आशय है-प्रेम की मादकता और उसका पागलपनजिसे कवि हर क्षण महसूस करता है और उसका मन झंकृत होता रहता है।
(ग) जग पूछ रहा उनकोजो जग की गाते’ का आशय है-यह संसार उन लोगों की स्तुति करता है जो संसार के अनुसार चलते हैं और उसका गुणगान करते है।
(घ) साँसों के तार’ से कवि का तात्पर्य है-उसके जीवन में भरा प्रेम रूपी तारजिनके कारण उसका जीवन चल रहा है। मेरे विचार से उन्हें कवि की प्रेयसी ने झंकृत किया होगा।
मैं जला हृदय में अग्निदहा करता हूँ
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ,
जग भव-सागर तरने की नाव बनाए,
मैं भव-मौजों पर मस्त बहा करता हूँ।
शब्दार्थ-
दहा-जला
भव-सागर-संसार रूपी सागर
भव-मौज-संसार रूपी लहरों।
अलंकार 
भव-सागर’ और भव मौजों’ में रूपक अलंकार है।
                कवि कहता है कि मैं अपने हृदय में प्रेम की आग जलाकर उसमें जलता हूँ अर्थात मैं प्रेम की जलन को स्वयं ही सहन करता हूँ। प्रेम की दीवानगी में मस्त होकर जीवन के जो सुख-दुख आते हैंउनमें मस्त रहता हूँ।
                यह संसार आपदाओं (कठिनाइयों) का सागर है। लोग इसे पार करने के लिए कर्म रूपी नाव बनाते हैंपरंतु कवि संसार रूपी सागर की लहरों पर मस्त होकर बहता है। उसे संसार की कोई चिंता नहीं है।
(क) कवि के ह्रदय में कौन-सी अग्नि जल रही हैंवह व्यथित क्यों है?
(ख) निज उर के उद्गार व उपहार’ से कवि का क्या तात्पर्य हैंस्पष्ट कीजिए ।
(ग) कवि को संसार अच्छा क्यों नहीं लगता?
(घ) संसार में कष्टों को सहकर भी खुशी का माहौल कैसे बनाया जा सकता हैं?
उत्तर 
(क) कवि के हृदय में एक विशेष आग (प्रेमाग्नि) जल रही है। वह प्रेम की वियोगावस्था में होने के कारण व्यथित है।
(ख) निज उर के उद्गार’ का अर्थ यह है कि कवि अपने हृदय की भावनाओं को व्यक्त कर रहा है।निज उर के उपहार’ से तात्पर्य कवि की खुशियों से है जिसे वह संसार में बाँटना चाहता है।
(ग) कवि को संसार इसलिए अच्छा नहीं लगता क्योंकि उसके दृष्टिकोण के अनुसार संसार अधूरा है। उसमें प्रेम नहीं है। वह बनावटी व झूठा है।
(घ) संसार में रहते हुए हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कष्टों को सहना पड़ेगा। इसलिए मनुष्य को हँसते हुए जीना चाहिए।




































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