Wednesday, 30 September 2020

अपठित बोध




अपठित बोध


‘अपठित’ शब्द अंग्रेज़ी भाषा के शब्द ‘unseen’ का समानार्थी है। इस शब्द की रचना ‘पाठ’ मूल शब्द में ‘अ’ उपसर्ग और ‘इत’ प्रत्यय जोड़कर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-‘बिना पढ़ा हुआ।’ अर्थात गद्य या काव्य का ऐसा अंश जिसे पहले न पढ़ा गया हो। परीक्षा में अपठित गद्यांश और काव्यांश पर आधारित प्रश्न पूछे जाते हैं। इस तरह के प्रश्नों को पूछने का उद्देश्य छात्रों की समझ अभिव्यक्ति कौशल और भाषिक योग्यता का परख करना होता है।




अपठित गद्यांश


अपठित गद्यांश प्रश्नपत्र का वह अंश होता है जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से नहीं पूछा जाता है। यह अंश साहित्यिक पुस्तकों पत्र-पत्रिकाओं या समाचार-पत्रों से लिया जाता है। ऐसा गद्यांश भले ही निर्धारित पुस्तकों से हटकर लिया जाता है परंतु, उसका स्तर, विषय वस्तु और भाषा-शैली पाठ्यपुस्तकों जैसी ही होती है। प्रायः छात्रों को अपठित अंश कठिन लगता है और वे प्रश्नों का सही उत्तर नहीं दे पाते हैं। इसका कारण अभ्यास की कमी है। अपठित गद्यांश को बार-बार हल करने से-


भाषा-ज्ञान बढ़ता है।

नए-नए शब्दों, मुहावरों तथा वाक्य रचना का ज्ञान होता है।

शब्द-भंडार में वृद्धि होती है, इससे भाषिक योग्यता बढ़ती है।

प्रसंगानुसार शब्दों के अनेक अर्थ तथा अलग-अलग प्रयोग से परिचित होते हैं।

गद्यांश के मूलभाव को समझकर अपने शब्दों में व्यक्त करने की दक्षता बढ़ती है। इससे हमारे अभिव्यक्ति कौशल में वृद्धि होती है।

भाषिक योग्यता में वृद्धि होती है।

अपठित गद्यांश के प्रश्नों को कैसे हल करें-


अपठित गद्यांश पर आधारित प्रश्नों को हल करते समय निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए-


गद्यांश को एक बार सरसरी दृष्टि से पढ़ लेना चाहिए।

पहली बार में समझ में न आए अंशों, शब्दों, वाक्यों को गहनतापूर्वक पढ़ना चाहिए।

गद्यांश का मूलभाव अवश्य समझना चाहिए।

यदि कुछ शब्दों के अर्थ अब भी समझ में नहीं आते हों तो उनका अर्थ गद्यांश के प्रसंग में जानने का प्रयास करना चाहिए।

अनुमानित अर्थ को गद्यांश के अर्थ से मिलाने का प्रयास करना चाहिए।

गद्यांश में आए व्याकरण की दृष्टि से कुछ महत्त्वपूर्ण शब्दों को रेखांकित कर लेना चाहिए।

अब प्रश्नों को पढ़कर संभावित उत्तर गद्यांश में खोजने का प्रयास करना चाहिए।

शीर्षक समूचे गद्यांश का प्रतिनिधित्व करता हुआ कम से कम एवं सटीक शब्दों में होना चाहिए।

प्रतीकात्मक शब्दों एवं रेखांकित अंशों की व्याख्या करते समय विशेष ध्यान देना चाहिए।

मूल भाव या संदेश संबंधी प्रश्नों का जवाब पूरे गद्यांश पर आधारित होना चाहिए।

प्रश्नों का उत्तर देते समय यथासंभव अपनी भाषा का ध्यान रखना चाहिए।

उत्तर की भाषा सरल, सुबोध और प्रवाहमयी होनी चाहिए।

प्रश्नों का जवाब गद्यांश पर ही आधारित होना चाहिए, आपके अपने विचार या राय से नहीं।

अति लघूत्तरात्मक तथा लघूत्तरात्मक प्रश्नों के उत्तरों की शब्द सीमा अलग-अलग होती है, इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए।

प्रश्नों का जवाब सटीक शब्दों में देना चाहिए, घुमा-फिराकर जवाब देने का प्रयास नहीं करना चाहिए।उदाहरण ( उत्तर सहित)

निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –


(1) गंगा भारत की एक अत्यन्त पवित्र नदी है जिसका जल काफ़ी दिनों तक रखने के बावजूद अशुद्ध नहीं होता जबकि साधारण जल कुछ दिनों में ही सड़ जाता है। गंगा का उद्गम स्थल गंगोत्री या गोमुख है। गोमुख से भागीरथी नदी निकलती है और देवप्रयाग नामक स्थान पर अलकनंदा नदी से मिलकर आगे गंगा के रूप में प्रवाहित होती है। भागीरथी के देवप्रयाग तक आते-आते इसमें कुछ चट्टानें घुल जाती हैं जिससे इसके जल में ऐसी क्षमता पैदा हो जाती है जो उसके पानी को सड़ने नहीं देती।



 

हर नदी के जल में कुछ खास तरह के पदार्थ घुले रहते हैं जो उसकी विशिष्ट जैविक संरचना के लिए उत्तरदायी होते हैं। ये घुले हुए पदार्थ पानी में कुछ खास तरह के बैक्टीरिया को पनपने देते हैं तो कुछ को नहीं। कुछ खास तरह के बैक्टीरिया ही पानी की सड़न के लिए उत्तरदायी होते हैं तो कुछ पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को रोकने में सहायक होते हैं। वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि गंगा के पानी में भी ऐसे बैक्टीरिया हैं जो गंगा के पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को पनपने ही नहीं देते इसलिए गंगा का पानी काफ़ी लंबे समय तक खराब नहीं होता और पवित्र माना जाता है।


हमारा मन भी गंगा के पानी की तरह ही होना चाहिए तभी वह निर्मल माना जाएगा। जिस प्रकार पानी को सड़ने से रोकने के लिए उसमें उपयोगी बैक्टीरिया की उपस्थिति अनिवार्य है उसी प्रकार मन में विचारों के प्रदूषण को रोकने के लिए सकारात्मक विचारों के निरंतर प्रवाह की भी आवश्यकता है। हम अपने मन को सकारात्मक विचार रूपी बैक्टीरिया द्वारा आप्लावित करके ही गलत विचारों को प्रविष्ट होने से रोक सकते हैं। जब भी कोई नकारात्मक विचार उत्पन्न हो सकारात्मक विचार द्वारा उसे समाप्त कर दीजिए।


प्रश्नः (क)

गंगा के जल और साधारण पानी में क्या अंतर है?

उत्तर:

गंगा का जल पवित्र माना जाता है। यह काफी दिनों तक रखने के बाद भी अशुद्ध नहीं होता है। इसके विपरीत साधारण जल कुछ ही दिन में खराब हो जाता है।



 

प्रश्नः (ख)

गंगा के उद्गम स्थल को किस नाम से जाना जाता है? इस नदी को गंगा नाम कैसे मिलता है?

उत्तर:

गंगा के उद्गम स्थल को गंगोत्री या गोमुख के नाम से जाना जाता है। वहाँ यह भागीरथी नाम से निकलती है। देवप्रयाग मेंयह अलकनंदा से मिलती है तब इसे गंगा नाम मिलता है।


प्रश्नः (ग)

भागीरथी से देव प्रयाग तक का सफ़र गंगा के लिए किस तरह लाभदायी सिद्ध होता है?

उत्तर:

भागीरथी से देवप्रयाग तक गंगा विभिन्न पहाड़ों के बीच बहती है जिससे इसमें कुछ चट्टानें धुल जाती हैं। इससे गंगा का जल दीर्घ काल तक सड़ने से बचा रहता है। इस तरह यह सफ़र गंगा के लिए लाभदायी सिद्ध होता है।


प्रश्नः (घ)

बैक्टीरिया ही पानी में सड़न पैदा करते हैं और बैक्टीरिया ही पानी की सड़न रोकते हैं, कैसे? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

कुछ खास किस्म के बैक्टीरिया ऐसे होते हैं जो पानी में सड़न पैदा करते हैं और कुछ बैक्टीरिया इन बैक्टीरिया को रोकने का काम करते हैं। गंगा के पानी में सड़न रोकने वाले बैक्टीरिया इनको पनपने से रोककर पानी सड़ने से बचाते हैं।



 

प्रश्नः (ङ)

मन को निर्मल रखने के लिए क्या उपाय बताया गया है?

उत्तर:

मन को निर्मल रखने के लिए विचारों का प्रदूषण रोकना चाहिए। इसके लिए मन में सकारात्मक विचार प्रवाहित होना चाहिए। मन में नकारात्मक विचार आते ही उसे सकारात्मक विचारों द्वारा नष्ट कर देना चाहिए।


(2) वर्तमान सांप्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में संत-साहित्य की उपादेयता बहुत है। संतों में शिरोमणि कबीर दास भारतीय धर्मनिरपेक्षता के आधार पुरुष हैं। संत कबीर एक सफल साधक, प्रभावशाली उपदेशक, महा नेता और युग-द्रष्टा थे। उनका समस्त काव्य विचारों की भव्यता और हृदय की तन्मयता तथा औदार्य से परिपूर्ण है। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को और भारतीय धर्म निरपेक्षता के आधार को युग-युगान्तर के लिए अमरता प्रदान की। कबीर ने धर्म को मानव धर्म के रूप में देखा था। सत्य के समर्थक कबीर हृदय में विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति लेकर अवतरित हुए थे। उन्होंने लोक-कल्याण कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य-रचना की।


वे पाठशाला या मकतब की देहरी से दूर जीवन के विद्यालय में ‘मसि कागद छुयो नहिं’ की दशा में जीकर सत्य, ईश्वर विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर अनुभूति मूलक ज्ञान का प्रसार कर रहे थे। कबीर ने समाज में फैले हुए मिथ्याचारों और कुत्सित भावनाओं की धज्जियाँ उड़ा दीं। स्वकीय भोगी हुई वेदनाओं के आक्रोश से भरकर समाज में फैले हुए ढोंग और ढकोसलों, कुत्सित विचारधाराओं के प्रति दो टूक शब्दों में जो बातें कहीं, उनसे समाज की आँखें फटी की फटी रह गईं और साधारण जनता उनकी वाणियों से चेतना प्राप्त कर उनकी अनुगामिनी बनने को बाध्य हो उठी। देश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान वैयक्तिक जीवन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न संत कबीर ने किया।



 

प्रश्नः (क)

आज संत-साहित्य को उपयोगी क्यों माना गया है?

उत्तर:

आज संत साहित्य को इसलिए उपयोगी माना जाता है क्योंकि संतों के साहित्य में विचारों की भव्यता, हृदय की तन्मयता और धार्मिक उदारता है जो आज के सांप्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में अत्यंत उपयोगी है।


प्रश्नः (ख)

संत-शिरोमणि किसे माना गया है और क्यों?

उत्तर:

संत शिरोमणि कबीर को माना गया है क्योंकि वे किसी धर्म के कट्टर समर्थक न होकर सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव रखते थे। वे भारतीय धर्म-निरपेक्षता के आधार पुरुष थे जो धार्मिक भेदभाव से कोसों दूर रहते थे।


प्रश्नः (ग)

कबीर के व्यक्तित्व एवं काव्य की क्या विशेषता थी?

उत्तर:

कबीर के व्यक्तित्व की विशेषता थी सत्य का समर्थन, हृदय में अगाध विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति। उनकी काव्य रचना की विशेषता थी- लोक कल्याण की कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य-सृजन। इससे कबीर को खूब प्रसिद्धि मिली।


प्रश्नः (घ)

सामान्य जनता कबीर की वाणी को मानने को क्यों बाध्य हो गई?

उत्तर:

कबीर की वाणी में अभूतपूर्व शक्ति थी। वे सत्य, प्रेम, ईश्वर विश्वास, अहिंसा धर्मनिरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ा रहे थे। वे समाज में फैले मिथ्याचारों और कुत्सित विचारों पर कड़ा प्रहार कर रहे थे। यह देख सामान्य जनता उनकी वाणी मानने को बाध्य हो गई।


प्रश्नः (ङ)

अपने जीवन के माध्यम से कबीर ने किन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया?

उत्तर:

कबीर ने अपने जीवन के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियाँ, धार्मिक कट्टरता मिथ्याचार, वाह्याडंबर, ढकोसलों के अलावा देश की धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक सभी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया।


(3) सुखी, सफल और उत्तम जीवन जीने के लिए किए गए आचरण और प्रयत्नों का नाम ही धर्म है। देश, काल और सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से संसार में भारी विविधता है, अतएव अपने-अपने ढंग से जीवन को पूर्णता की ओर ले जाने वाले विविध धर्मों के बीच भी ऊपर से विविधता दिखाई देती है। आदमी का स्वभाव है कि वह अपने ही विचारों और जीने के तौरतरीकों को तथा अपनी भाषा और खानपान को सर्वश्रेष्ठ मानता है तथा चाहता है कि लोग उसी का अनुसरण और अनुकरण करें, अतएव दूसरों से अपने धर्म को श्रेष्ठतर समझते हुए वह चाहता है कि सभी लोग उसे अपनाएँ। इसके लिए वह ज़ोरज़बर्दस्ती को भी बुरा नहीं समझता।


धर्म के नाम पर होने वाले जातिगत विद्वेष, मारकाट और हिंसा के पीछे मनुष्य की यही स्वार्थ-भावना काम करती है। सोच कर देखिए कि आदमी का यह दृष्टिकोण कितना सीमित, स्वार्थपूर्ण और गलत है। सभी धर्म अपनी-अपनी भौगोलिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आवश्यकताओं के आधार पर पैदा होते, पनपते और बढ़ते हैं, अतएव उनका बाह्य स्वरूप भिन्न-भिन्न होना आवश्यक और स्वाभाविक है, पर सबके भीतर मनुष्य की कल्याण-कामना है, मानव-प्रेम है। यह प्रेम यदि सच्चा है, तो यह बाँधता और सिकोड़ता नहीं, बल्कि हमारे हृदय और दृष्टिकोण का विस्तार करता अपठित गद्यांश है, वह हमें दूसरे लोगों के साथ नहीं, समस्त जीवन-जगत के साथ स्पष्ट है कि ऊपर से भिन्न दिखाई देने वाले सभी धर्म अपने मूल में मानव-कल्याण की एक ही मूलधारा को लेकर चले और चल रहे हैं।


हम सभी इस सच्चाई को जानकर भी जब धार्मिक विदवेष की आँधी में बहते हैं, तो कितने दुर्भाग्य की बात है! उस समय हमें लगता है कि चिंतन और विकास के इस दौर में आ पहुँचने पर भी मनुष्य को उस जंगली-हिंसक अवस्था में लौटने में कुछ भी समय नहीं लगता; अतएव उसे निरंतर यह याद दिलाना होगा कि धर्म मानव-संबंधों को तोड़ता नहीं, जोड़ता है इसकी सार्थकता प्रेम में ही है।


प्रश्नः (क)

गदयांश के आधार पर बताइए कि धर्म क्या है और इसकी मुख्य विशेषता क्या है?

उत्तर:

धर्म मनुष्य द्वारा किए उन आवरण और प्रयत्नों का नाम है जिन्हें वह अपना जीवन सफल, सुखी एवं उत्तम बनाने के लिए करता है। धर्म की मुख्य विशेषता इसकी विविधता है।


प्रश्नः (ख)

विविध धर्मों के बीच विविध प्रकार की मान्यताओं के क्या कारण हैं? इन विविधताओं के बावजूद मनुष्य क्यों चाहता है कि लोग उसी की धार्मिक मान्यताओं को अपनाएँ? ।

उत्तर:

विविध धर्मों के बीच विविध प्रकार की मान्यताओं का कारण मनुष्य के द्वारा जीवन जीने का ढंग है। वह अपने विचार, जीवन जीने के तरीके, भाषा, खानपान आदि को श्रेष्ठ मानता है, इसलिए वह चाहता है कि लोग उसी की धार्मिक मान्यताएँ अपनाएँ।


प्रश्नः (ग)

अपनी धार्मिक मान्यताएँ दूसरों पर थोपना क्यों हितकर नहीं होता?

उत्तर:

अपनी धार्मिक मान्यताओं को अच्छा समझते हुए व्यक्ति इन्हें दूसरों पर थोपना चाहता है। इसके लिए वह ज़ोर-जबरदस्ती का सहारा लेता है। इससे जातीय विद्वेष, मारकाट और हिंसा फैलती है जो हितकारी नहीं होती।


प्रश्नः (घ)

धर्मों के बाह्य स्वरूप में भिन्नता होना क्यों स्वाभाविक है? धर्म का मूल लक्ष्य क्या होना चाहिए?

उत्तर:

धर्मों के पैदा होने, पनपने फलने-फूलने की भौगोलिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आवश्यकताएँ अलग-अलग होती हैं। अत: उनके बाह्य स्वरूप में भिन्नता होना स्वाभाविक है। धर्म का मूल लक्ष्य मानव कल्याण होना चाहिए।


प्रश्नः (ङ)

गद्यांश के आधार पर बताइए कि धर्म की मूल भावना क्या है? वह अपनी मूल भावना को कैसे बनाए हुए हैं?

उत्तर:

गद्यांश से ज्ञात होता है कि धर्म की मूल भावना है- हृदय और दृष्टिकोण का विस्तार करते हुए मानव कल्याण करना तथा इसे समस्त जीवन जगत के साथ जोड़ना। ऊपर से भिन्न दिखाई देने वाले धर्म अपने मूल में मानव कल्याण का लक्ष्य अपने में समाए हुए हैं।


4 धरती का स्वर्ग श्रीनगर का ‘अस्तित्व’ डल झील मर रही है। यह झील इंसानों के साथ-साथ जलचरों, परिंदों का घरौंदा हुआ करती थी। झील से हज़ारों हाथों को काम और लाखों को रोटी मिलती थी। अपने जीवन की थकान, मायूसी और एकाकीपन को दूर करने, देश-विदेश के लोग इसे देखने आते थे।


यह झील केवल पानी का एक स्रोत नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों की जीवन-रेखा है, मगर विडंबना है कि स्थानीय लोग इसको लेकर बहुत उदासीन हैं।


समुद्र-तल से पंद्रह सौ मीटर की ऊँचाई पर स्थित डल एक प्राकृतिक झील है और कोई पचास हज़ार साल पुरानी है। श्रीनगर शहर के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी दिशा में स्थित यह जल-निधि पहाडों के बीच विकसित हई थी। सरकारी रिकार्ड गवाह है कि 1200 में इस झील का फैलाव पचहत्तर वर्ग किलोमीटर में था। 1847 में इसका क्षेत्रफल अड़तालीस वर्ग किमी आँका गया। 1983 में हुए माप-जोख में यह महज साढ़े दस वर्ग किमी रह गई। अब इसमें जल का फैलाव आठ वर्ग किमी रह गया है। इन दिनों सारी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग का शोर है और लोग बेखबर हैं कि इसकी मार इस झील पर भी पड़ने वाली है।


इसका सिकुड़ना इसी तरह जारी रहा तो इसका अस्तित्व केवल तीन सौ पचास साल रह सकता है।


इसके पानी के बड़े हिस्से पर अब हरियाली है। झील में हो रही खेती और तैरते बगीचे इसे जहरीला बना रहे हैं। सागसब्जियों में अंधाधुंध रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाएँ डाली जा रही हैं, जिससे एक तो पानी दूषित हो गया, साथ ही झील में रहने वाले जलचरों की कई प्रजातियाँ समूल नष्ट हो गईं।


आज इसका प्रदूषण उस स्तर तक पहुँच गया है कि कुछ वर्षों में ढूँढ़ने पर भी इसका समाधान नहीं मिलेगा। इस झील के बिना श्रीनगर की पहचान की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह भी तय है कि आम लोगों को झील के बारे में संवेदनशील और भागीदार बनाए बगैर इसे बचाने की कोई भी योजना सार्थक नहीं हो सकती है।


प्रश्नः (क)

डल झील को स्थानीय लोगों की जीवन रेखा क्यों कहा गया है?

उत्तर:

डल झील को स्थानीय लोगों की जीवन-रेखा इसलिए कहा गया है क्योंकि इस झील के सहारे चलने वाले अनेक कारोबार से लोगों को काम मिलता है और वे इसी के सहारे रोटी-रोजी कमाते हैं।


प्रश्नः (ख)

सरकारी रिकॉर्ड झील के सिकुड़ने की गवाही किस प्रकार देते हैं ?

उत्तर:

डल झील का फैलाव सन् 1200 में 75 वर्ग किमी में था। 1847 में इसका क्षेत्रफल 48 वर्ग किमी और 1983 में इसका क्षेत्रफल मात्र 10 वर्ग किमी बचा है। अब इसमें मात्र 8 वर्ग किमी पर पानी बचा है। इस तरह सरकारी रिकॉर्ड झील के सिकुड़ने की गवाही देते हैं।


प्रश्नः (ग)

ग्लोबल वार्मिंग क्या है? इसका झील पर क्या असर हो रहा है?

उत्तर:

पिछले कुछ वर्षों से धरती के औसत तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। इसे ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। धरती की गरमी बढ़ती जाने से जलाशय सूखते जा रहे हैं। इससे डल झील सूखकर सिकुड़ती जा रही है। यह डल झील के अस्तित्व के लिए खतरा है।


प्रश्नः (घ)

डल झील की खेती और बगीचे इसके सौंदर्य पर ग्रहण लगा रहे हैं, कैसे?

उत्तर:

डल झील पर तैरती खेती की जाती है और बगीचे उगाए जाते हैं। इससे अधिक से अधिक फ़सलें और फल पाने के लिए __ अंधाधुंध रासायनिक खादें और कीटनाशक डाले जा रहे हैं। इससे झील का पानी प्रदूषित हो रहा है और झील के जलचर मर रहे हैं। इस तरह यहाँ की जाने वाली खेती और बगीचे इसके सौंदर्य पर ग्रहण हैं।


प्रश्नः (ङ)

झील पर प्रदूषण का क्या असर होगा? इसके रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए?

उत्तर:

झील पर बढ़ते प्रदूषण का असर यह होगा कि इसका हल खोजना कठिन हो जाएगा। इसके दूषित पानी में रहने वाले जलचर समूल नष्ट हो जाएंगे। इसे रोकने के लिए ऐसे उपाय करने होंगे जिनमें आम लोगों को शामिल करके उन्हें संवेदनशील बनाया जाए और उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जाए।


(5) अच्छा नागरिक बनने के लिए भारत के प्राचीन विचारकों ने कुछ नियमों का प्रावधान किया है। इन नियमों में वाणी और व्यवहार की शुद्धि, कर्तव्य और अधिकार का समुचित निर्वाह, शुद्धतम पारस्परिक सद्भाव, सहयोग और सेवा की भावना आदि नियम बहुत महत्त्वपूर्ण माने गए हैं। ये सभी नियम यदि एक व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के रूप में भी अनिवार्य माने जाएँ तो उसका अपना जीवन भी सुखी और आनंदमय हो सकता है। इन सभी गुणों का विकास एक बालक में यदि उसकी बाल्यावस्था से ही किया जाए तो वह अपने देश का श्रेष्ठ नागरिक बन सकता है। इन गुणों के कारण वह अपने परिवार, आस-पड़ोस, विद्यालय में अपने सहपाठियों एवं अध्यापकों के प्रति यथोचित व्यवहार कर सकेगा।


वाणी एवं व्यवहार की मधुरता सभी के लिए सुखदायी होती है, समाज में हार्दिक सद्भाव की वृद्धि करती है किंतु अहंकारहीन व्यक्ति ही स्निग्ध वाणी और शिष्ट व्यवहार का प्रयोग कर सकता है। अहंकारी और दंभी व्यक्ति सदा अशिष्ट वाणी और व्यवहार का अभ्यास होता है। जिसका परिणाम यह होता है कि ऐसे आदमी के व्यवहार से समाज में शांति और सौहार्द का वातावरण नहीं बनता।


जिस प्रकार एक व्यक्ति समाज में रहकर अपने व्यवहार से कर्तव्य और अधिकार के प्रति सजग रहता है, उसी तरह देश के प्रति भी उसका व्यवहार कर्तव्य और अधिकार की भावना से भावित रहना चाहिए। उसका कर्तव्य हो जाता है कि न तो वह स्वयं कोई ऐसा काम करे और न ही दूसरों को करने दे, जिससे देश के सम्मान, संपत्ति और स्वाभिमान को ठेस लगे। समाज एवं देश में शांति बनाए रखने के लिए धार्मिक सहिष्णुता भी बहुत आवश्यक है। यह वृत्ति अभी आ सकती है जब व्यक्ति संतुलित व्यक्तित्व का हो।


प्रश्नः (क)

समाज एवं राष्ट्र के हित में नागरिक के लिए कैसे गुणों की अपेक्षा की जाती है?

उत्तर:

समाज एवं राष्ट्र के हित में नागरिक के लिए वाणी और व्यवहार की शुद्धि, कर्तव्य और अधिकार का समुचित निर्वाह, पारस्परिक सद्भाव, सहयोग और सेवा की भावना जैसे गुणों की अपेक्षा की जाती है।


प्रश्नः (ख)

चारित्रिक गुण किसी व्यक्ति के निजी जीवन में किस प्रकार उपयोगी हो सकते हैं?

उत्तर:

चारित्रिक गुणों से किसी व्यक्ति का निजी जीवन सुखी एवं आनंद मय बन जाता है। वह अपने परिवार, आस-पड़ोस और मिलने-जुलने वालों से यथोचित व्यवहार कर सकता है।


प्रश्नः (ग)

वाणी और व्यवहार की मधुरता सबके लिए सुखदायक क्यों मानी गई है?

उत्तर:

वाणी और व्यवहार की मधुरता सबके लिए सुखदायक मानी जाती है क्योंकि इससे समाज में हार्दिक सद्भाव में वृद्धि होती है। वह सबका प्रिय और सबके आदर का पात्र बन जाता है।


प्रश्नः (घ)

मधुर वाणी और शिष्ट व्यवहार कौन कर सकता है, कौन नहीं और क्यों?

उत्तर:

मधुर वाणी और शिष्ट व्यवहार का प्रयोग अहंकारहीन व्यक्ति ही कर सकता है, अहंकारी और दंभी व्यक्ति नहीं क्योंकि ऐसा व्यक्ति सदा अशिष्ट वाणी और व्यवहार को अभ्यासी होती है।


प्रश्नः (ङ)

देश के प्रति व्यक्ति का व्यवहार और कर्तव्य कैसा होना चाहिए? अपठित गद्यांश

उत्तर:

देश के प्रति व्यक्ति का व्यवहार कर्तव्य और अधिकार की भावना से भावित होना चाहिए। ऐसे में व्यक्ति का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह कोई ऐसा कार्य न करे और न दूसरों को करने दे, जो देश के सम्मान, संपत्ति और स्वाभिमान की भावनाको ठेस पहुँचाए।


(6) गत कुछ वर्षों में जिस तरह मोबाइल फ़ोन-उपभोक्ताओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, उसी अनुपात में सेवा प्रदाता कंपनियों ने जगह-जगह टावर खड़े कर दिए हैं। इसमें यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि जिन रिहाइशी इलाकों में टावर लगाए जा रहे हैं, वहाँ रहने वाले और दूसरे जीवों के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा। मोबाइल टावरों से होने वाले विकिरण से मनुष्य और पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर के मद्देनज़र विभिन्न-अदालतों में याचिकाएं दायर की गई हैं। शायद यही वजह है कि सरकार को इस दिशा में पहल करनी पड़ी। केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार टावर लगाने वाली कंपनियों को अपने मौजूदा रेडियो फ्रिक्वेंसी क्षेत्र में दस फीसदी की कटौती करनी होगी।


मोबाइल टावरों के विकरण से होने वाली कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का मुद्दा देशभर में लोगों की चिंता का कारण बना हुआ है। पिछले कुछ महीनों में आम नागरिकों और आवासीय कल्याण-संगठनों ने न सिर्फ रिहाइशी इलाकों में नए टावर लगाने का विरोध किया, बल्कि मौजूदा टावरों पर भी सवाल उठाए हैं। अब तक कई अध्ययनों में ऐसी आशंकाएँ व्यक्त की जा चुकी हैं कि मोबाइल टावरों से निकलने वाली रेडियो तरंगें न केवल पशु-पक्षियों, बल्कि मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए भी कई रूपों में हानिकारक सिद्ध हो सकती हैं। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की ओर से कराए एक अध्ययन की रिपोर्ट में तथ्य सामने आए कि गौरैयों और मधुमक्खियों की तेज़ी से घटती संख्या के लिए बड़े पैमाने पर लगाए जा रहे मोबाइल टावरों से निकलने वाली विद्युत्-चुंबकीय तरंगें कारण हैं।


इन पर हुए अध्ययनों में पाया गया है कि मोबाइल टावर के पाँच सौ मीटर की सीमा में रहने वाले लोग अनिद्रा, सिरदर्द, थकान, शारीरिक कमजोरी और त्वचा रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं, जबकि कुछ लोगों में चिड़चिड़ापन और घबराहट बढ़ जाती है। फिर मोबाइल टावरों की रेडियो फ्रिक्वेंसी तरंगों को मनुष्य के लिए पूरी तरह सुरक्षित मान लेने का क्या आधार हो सकता है? टावर लगाते समय मोबाइल कंपनियाँ तमाम नियम-कायदों को ताक पर रखने से नहीं हिचकतीं। इसलिए चुंबकीय तरंगों में कमी लाने के साथ-साथ, टावर लगाते समय नियमों की अनदेखी पर नकेल कसने की आवश्यकता है।


प्रश्नः (क)

मोबाइल फ़ोन सेवा प्रदाता कंपनियों ने जगह-जगह टावर क्यों लगाए? उन्होंने किस बात की अनदेखी की?

उत्तर

पिछले कुछ वर्षों में मोबाइल फ़ोन उपभोक्ताओं की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है। उन्हें सेवाएं प्रदान करने के लिए मोबाइल कंपनियों ने टावर लगाए हैं। अपने लाभ के लिए उन्होंने उन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों और अन्य प्राणियों के स्वास्थ्य संबंधी खतरे की अनदेखी की।


प्रश्नः (ख)

सरकार द्वारा पहल करने का क्या कारण था? उसने क्या निर्देश दिए?

उत्तर:

सरकार द्वारा मोबाइल कंपनियों के विरुद्ध पहल करने का कारण था, लोगों और पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे कुप्रभाव संबंधी याचिकाएँ जो अदालतों में विचाराधीन थीं। इस संबंध में सरकार ने कंपनियों को मौजूदा रेडियो फ्रीक्वेंसी क्षेत्र में दस प्रतिशत कटौती का निर्देश दिया।


प्रश्नः (ग)

मोबाइल टावरों के प्रति लोगों की क्या प्रतिक्रिया हुई और क्यों?

उत्तर:

मोबाइल टावरों के प्रति लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इन्हें रिहायशी इलाकों में लगाने का विरोध किया और उनकी मौजूदगी पर सवाल उठाया। इसका कारण यह था कि इनसे निकलने वाली तरंगें मनुष्य तथा पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती हैं।


प्रश्नः (घ)

मोबाइल टावर हमारे पर्यावरण के लिए कितने हानिकारी हैं ? उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

मोबाइल टावर हमारे पर्यावरण के लिए भी बहुत हानिकारक हैं। इनसे निकलने वाली किरणों के कारण गौरैया और मधुमक्खियों की संख्या में निरंतर कमी आती जा रही है। इस कारण हमारे पर्यावरण का सौंदर्य कम हुआ है तथा प्रदूषण में वृद्धि हुई है।


प्रश्नः (ङ)

मोबाइल टावरों को सेहत के लिए सुरक्षित क्यों नहीं माना जा सकता है?

उत्तर:

मोबाइल टावरों को सेहत के लिए इसलिए सुरक्षित नहीं माना जा सकता है, क्योंकि


मोबाइल टावरों से जो विद्युत चुंबकीय तरंगें निकलती हैं उनसे सिर दर्द, अनिद्रा, थकान, शारीरिक कमजोरी और त्वचा रोग होता है।

इससे चिड़चिड़ापन और घबराहट बढ़ती है।

(7) साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्य को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीवन का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं।


साहसी मनुष्य उन सपनों में भी रस लेता है जिन सपनों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है। साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता, पर वह अपने विचारों में रमा हुआ अपनी ही किताब पढ़ता है। अर्नाल्ड बेनेट ने एक जगह लिखा है कि जो आदमी यह महसूस करता है कि किसी महान निश्चय के समय वह साहस से काम नहीं ले सका, जिंदगी की चुनौती को कबूल नहीं कर सका, वह सुखी नहीं हो सकता।


जिंदगी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम को झेलना है और जो आदमी सकुशल जीने के लिए जोखिम का हर जगह पर एक घेरा डालता है, वह अंततः अपने ही घेरों के बीच कैद हो जाता है और जिंदगी का कोई मज़ा उसे नहीं मिल पाता, क्योंकि जोखिम से बचने की कोशिश में, असल में, उसने जिंदगी को ही आने से रोक रखा है। ज़िन्दगी से, अंत में हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं। पूँजी लगाना जिंदगी के संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलटकर पढ़ना है जिसके सभी अक्षर फूलों से ही नहीं, कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं।


प्रश्नः (क)

साहस की जिंदगी जीने वालों की उन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए जिनके कारण वे दूसरों से अलग नज़र आते हैं।

उत्तर:

साहस की जिंदगी जीने वाले निडर और बेखौफ़ होकर जीते हैं। वे इस बात की चिंता नहीं करते है कि जनमानस उनके बारे में क्या सोचता है। ये विशेषताएँ उन्हें दूसरों से अलग करती हैं।


प्रश्नः (ख)

गद्यांश के आधार पर क्रांति करने वालों तथा जन साधारण में अंतर लिखिए।

उत्तर:

क्रांति करने वालों का उद्देश्य बिल्कुल ही अलग होता है। वे अपने उद्देश्य की तुलना पड़ोसी से नहीं करते है और पड़ोसी की चाल देखकर अपनी चाल को कम या ज्यादा नहीं करते हैं। इसके विपरीत जनसाधारण का लक्ष्य और अपने पड़ोसियों जैसा होता है।


प्रश्नः (ग)

‘साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता है’ का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

‘साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता है’ का आशय है कि जो साहसी होते हैं वे अपने जीवन का लक्ष्य एवं उसे पूरा करने का मार्ग स्वयं चुनते हैं। वे दूसरे के लक्ष्य और रास्तों की नकल नहीं करते हैं।


प्रश्नः (घ)

‘अर्नाल्ड बेनेट’ के अनुसार सुखी होने के लिए क्या-क्या आवश्यक है?

उत्तर:

अर्नाल्ड बेनेट के अनुसार सुखी होने के लिए-


किसी महान निश्चय के समय साहस से काम लेना आवश्यक है।

ज़िंदगी की चुनौती को स्वीकार करना आवश्यक है।

प्रश्नः (ङ)

जोखिम पर हर जगह घेरा डालने वाला आदमी जिंदगी का मज़ा क्यों नहीं ले सकता?

उत्तर:

जोखिम पर हर जगह घेरा डालने वाला व्यक्ति जिंदगी का असली मजा इसलिए नहीं ले सकता क्योंकि जोखिम से बचने के प्रयास में वह जिंदगी को अपने पास आने ही नहीं देता है। इस तरह वह जिंदगी के आनंद से वंचित रह जाता है।


(8) कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-रात अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरंतर उन्नति की ओर उठाती जाएगी।


इंग्लैंड के एक विद्वान को युवावस्था में राज-दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिंदगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत-से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक बनते। बहुत-से लोग ऐसे होते हैं, जिनके घड़ी भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, क्योंकि उनके ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गंभीर या अच्छी बात नहीं।


एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसे लड़कपन में कहीं से बुरी कहावत सुनी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आए, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद करना नहीं चाहते, वे बार-बार हृदय में उठती हैं और बेधती हैं। अतः तुम पूरी चौकसी रखो, ऐसे लोगों को साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फूहड़ बातों से तुम्हें हँसाना चाहें। सावधान रहो। ऐसा न हो कि पहले-पहल तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऐसा हुआ, फिर ऐसा न होगा। अथवा तुम्हारे चरित्रबल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें बकने वाले आगे चलकर आप सुधर जाएँगे। नहीं, ऐसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी।


पीहे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी, क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है। तुम्हारा विवेक कुंठित हो जाएगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जाएगी। अंत में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे। अतः हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगति की छूत से बचो।


प्रश्नः (क)

कुसंगति की तुलना किससे की गई है और क्यों?

उत्तर:

कुसंगति की तुलना किसी व्यक्ति के पैरों में बँधी चक्की से की गई है क्योंकि इससे व्यक्ति आगे अर्थात् उन्नति की ओर नहीं बढ़ पाता है। इससे व्यक्ति अवनति के गड्ढे में गिरता चला जाता है।


प्रश्नः (ख)

राज-दरबारियों के बीच जगह न मिलने पर भी विद्वान दुखी क्यों नहीं हुआ?

उत्तर:

राजदरबारियों के बीच जगह न मिलने पर विद्वान इसलिए दुखी नहीं हुआ क्योंकि वहाँ वह ऐसे लोगों की कुसंगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते।


प्रश्नः (ग)

बुरी बाते चित्त में जल्दी जगह बनाती हैं। इसके लिए लेखक ने क्या दृष्टांत दिया है?

उत्तर:

बुरी बातें चित्त में जल्दी बैठती हैं और बहुत दिनों तक हमारे चित्त में टिकती हैं। इसे बताने के लिए लेखक ने आजकल के फूहड़ गानों का उदाहरण दिया है जो सरलता से हमारे दिमाग में चढ़ जाते हैं।


प्रश्नः (घ)

लेखक किस तरह के साथियों से दूर रहने की सलाह देता है और क्यों?

उत्तर:

लेखक ऐसे साथियों से दूर रहने की सलाह देता है जो अश्लील, फूहड़ और अपवित्र बातों से हमें हँसाना चाहते हैं। इसका कारण है कि बुरी बातों को चित्त से दूर रखने की लाख चेष्टा करने पर वे दूर नहीं होती है।


प्रश्नः (ङ)

एक बार बुराइयों में पैर पड़ने के बाद व्यक्ति उन्हें छोड़ नहीं पाता है. क्यों?

उत्तर:

एक बार बुराई में पैर पड़ने के बाद व्यक्ति बुराइयों का अभ्यस्त हो जाता है। उसे बुराइयों से चिढ़ समाप्त हो जाती है। उसे बुराइयाँ हानिकारक नहीं लगती और वह इनको छोड़ नहीं पाता है।


(9) विश्व के प्रायः सभी धर्मों में अहिंसा के महत्त्व पर बहुत प्रकाश डाला गया है। भारत के सनातन हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष प्रशंसा की गई है। ‘अष्टांगयोग’ के प्रवर्तक पतंजलि ऋषि ने योग के आठों अंगों में प्रथम अंग ‘यम’ के अन्तर्गत ‘अहिंसा’ को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार ‘गीता’ में भी अहिंसा के महत्त्व पर जगह-जगह प्रकाश डाला गया है। भगवान् महावीर ने अपनी शिक्षाओं का मूलाधार अहिंसा को बताते हुए ‘जियो और जीने दो’ की बात कही है। अहिंसा मात्र हिंसा का अभाव ही नहीं, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख नहीं पहुँचाना है। ऐसी जीवन-शैली अपनाने का नाम ही ‘अहिंसात्मक जीवन शैली’ है।


अकारण या बात-बात में क्रोध आ जाना हिंसा की प्रवृत्ति का एक प्रारम्भिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है; वह उसकी बुद्धि का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने को प्रेरित करता है, परिणामतः दूसरों को दुख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बनता है। सभी प्राणी मेरे लिए मित्रवत् हैं। मेरा किसी से भी वैर नहीं है, ऐसी भावना से प्रेरित होकर हम व्यावहारिक जीवन में इसे उतारने का प्रयत्न करें तो फिर अहंकारवश उत्पन्न हुआ क्रोध या द्वेष समाप्त हो जाएगा और तब अपराधी के प्रति भी हमारे मन में क्षमा का भाव पैदा होगा। क्षमा का यह उदात्त भाव हमें हमारे परिवार से सामंजस्य कराने व पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में अहम् भूमिका निभाता है।


हमें ईर्ष्या तथा वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थान देते हुए अहिंसा का एक ऐसा जीवन जीना है कि हमारी जीवन-शैली एक अनुकरणीय आदर्श बन जाए।


प्रश्नः (क)

भारतीय ग्रंथों में अहिंसा के बारे में क्या कहा गया है?

उत्तर:

भारत के सनातन हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि के ग्रंथों में अहिंसा को उत्तम बताया गया है। ‘अष्टांगयांग’ में अहिंसा को प्रथम स्थान तथा ‘गीता’ में जगह-जगह अहिंसा का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है।


प्रश्नः (ख)

‘जियो और जीने दो’ की बात किसने कही? इसका आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

‘जियो और जीने दो’ की बात भगवान महावीर ने कही है। इस कथन के मूल में भी अहिंसा का भाव निहित है। हम स्वयं जिएँ पर अपने जीवन के लिए दूसरों का हम जीवन न छीनें तथा उन्हें सताए नहीं।


प्रश्नः (ग)

गद्यांश में वर्णित अहिंसात्मक जीवनशैली से क्या तात्पर्य है?

उत्तर:

अहिंसात्मक जीवन शैली से तात्पर्य है- किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक या जान-बूझकर वध न करना और किसी जीव या प्राणी मात्र को अकारण दुख नहीं पहुँचाना है। दुख पहुँचाने का तरीका मन, वाणी या कर्म कोई भी नहीं होना चाहिए।


प्रश्नः (घ)

क्रोध अहिंसा के मार्ग में किस तरह बाधक सिद्ध होता है?

उत्तर:

बात-बात में क्रोध करना हिंसा का प्रारंभिक रूप है। क्रोध की अधिकता व्यक्ति को अंधा बना देती है। क्रोध उसकी बुद्धि पर हावी होकर व्यक्ति को अनुचित करने के लिए उकसाता है। इससे व्यक्ति दूसरों को दुख पहुंचाता है। इस तरह क्रोध अहिंसा के मार्ग में बाधक है।


प्रश्नः (ङ)

क्षमा का उदात्त भाव मानव जीवन के लिए क्यों आवश्यक है?

उत्तर:

क्षमा का उदात्त भाव क्रोध और द्वेष को शांत करता है। इससे व्यक्ति परिवार के साथ सामंजस्य बिठाने एवं पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में सफल होता है। इस तरह क्षमा मानव-जीवन के लिए आवश्यक है।


(10) कुछ लोगों के अनुसार मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य धन-संग्रह है। नीतिशास्त्र में धन-संपत्ति आदि को ही ‘अर्थ’ कहा गया है। बहुत से ग्रंथों में अर्थ की प्रशंसा की गई है; क्योंकि सभी गुण अर्थ अर्थात् धन के आश्रित ही रहते हैं। जिसके पास धन है वही सुखी रह सकता है, विषय-भोगों को संगृहीत कर सकता है तथा दान-धर्म भी निभा सकता है।


वर्तमान युग में धन का सबसे अधिक महत्त्व है। आज हमारी आवश्यकताएँ बहुत बढ़ गई हैं, इसलिए उनको पूरा करने के लिए धन-संग्रह की आवश्यकता पड़ती है। धन की प्राप्ति के लिए भी अत्यधिक प्रयत्न करना पड़ता है और सारा जीवन इसी में लगा रहता है। कुछ लोग तो धनोपार्जन को ही जीवन का उददेश्य बनाकर उचित-अनुचित साधनों का भेद भी भुला बैठते हैं। संसार के इतिहास में धन की लिप्सा के कारण जितनी हिंसाएँ, अनर्थ और अत्याचार हुए हैं, उतने और किसी दूसरे कारण से नहीं हुए हैं।


अतः धन को जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य नहीं माना जा सकता; क्योंकि धन अपने आप में मूल्यवान वस्तु नहीं है। धन को संचित करने के लिए छल-कपट आदि का सहारा लेना पड़ता है, जिसके कारण जीवन में अशांति और चेहरे पर विकृति बनी रहती है। इतना ही नहीं इसके संग्रह की प्रवृत्ति के पनपने के कारण सदा चोर, डाकू और दुश्मनों का भय बना रहता है। धन का अपहरण या नाश होने पर कष्ट होता है। इस प्रकार अशांति, संघर्ष, दुष्प्रवृत्ति, दुख, भय एवं पाप आदि का मूल होने के कारण, धन को जीवन का परम लक्ष्य नहीं माना जा सकता।


प्रश्नः (क)

जीवन में धन का सर्वाधिक महत्त्व क्यों माना गया है?

उत्तर:

जीवन में धन का महत्त्व इसलिए बढ़ गया है क्योंकि बहुत से धर्मग्रंथों में अर्थ अर्थात धन-संपत्ति की प्रशंसा की गई है। इसके अलावा सभी गुण धन के आश्रित ही रहते हैं। जिसके पास धन है वही सुखी रह सकता है।


प्रश्नः (ख)

आज के युग में धन-संग्रह की आवश्यकता क्यों अधिक बढ़ गई है?

उत्तर:

आज के युग में धन संग्रह की आवश्यकता इसलिए बढ़ गई है क्योंकि आज हमारी आवश्यकताएँ बहुत बढ़ गई हैं। उनको पूरा करने के लिए धन संग्रह की आवश्यकता पड़ती है।


प्रश्नः (ग)

धन-संग्रह को ही जीवन का परम उद्देश्य मानने के कारण जीवन और जगत में क्या दुष्परिणाम देखने को मिलते हैं?

उत्तर:

(ग) धन-संग्रह को ही जीवन का परम उद्देश्य मानने के कारण अनेक दुष्परिणाम दिखाई देते हैं-

(i) लोग उचित-अनुचित का भेद भुला बैठते हैं।

(ii) अनेक बार हिंसाएँ अनर्थ और अत्याचार हुए हैं।


प्रश्नः (घ)

धन को सर्वोच्च लक्ष्य मानना कितना उचित है और क्यों?

उत्तर:

कुछ लोग धन को जीवन लक्ष्य मान बैठते हैं। यह बिलकुल भी उचित नहीं है, क्योंकि धन अपने आप में मूल्यवान वस्तु नहीं है। इसको एकत्र करने के लिए छल-कपट का सहारा लेना पड़ता है।


प्रश्नः (ङ)

धन दुख का कारण भी बन जाता है स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

अनुचित साधनों से धन एकत्र करने पर व्यक्ति अशांत रहता है। इसके नष्ट होने पर व्यक्ति को कष्ट होता है। इस तरह धन दुख का कारण भी बन जाता है।


(11) आज से लगभग छह सौ साल पूर्व संत कबीर ने सांप्रदायिकता की जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था, वह आज भी प्रसुप्त ज्वालामुखी की भाँति भयंकर बनकर देश के वातावरण को विदग्ध करती रहती है। देश का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि यहाँ जाति, धर्म, भाषागत, ईर्ष्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना समय-असमय भयंकर ज्वालामुखी के रूप में भड़क उठती है। दस बीस हताहत होते हैं, लाखों-करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो जाती है। भय, त्रास और अशांति का प्रकोप होता है। विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।


कबीर हिंदू-मुसलमान में, जाति-जाति में शारीरिक दृष्टि से कोई भेद नहीं मानते। भेद केवल विचारों और भावों का है। इन विचारों और भावों के भेद को बल धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता से मिलता है। हृदय की चरमानुभूति की दशा में राम और रहीम में कोई अंतर नहीं। अंतर केवल उन माध्यमों में है जिनके द्वारा वहाँ तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। इसीलिए कबीर साहब ने उन माध्यमों – पूजा-नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि के दिखावे का विरोध किया।

समाज में एकरूपता तभी संभव है जबकि जाति, वर्ण, वर्ग, भेद न्यून-से-न्यून हों। संतों ने मंदिर-मस्जिद, जाति-पाँति के भेद में विश्वास नहीं रखता। सदाचार ही संतों के लिए महत्त्वपूर्ण है। कबीर ने समाज में व्याप्त वाह्याडम्बरों का कड़ा विरोध किया और समाज में एकता, समानता तथा धर्म-निरपेक्षता की भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया।


प्रश्नः (क)

क्या कारण है कि कबीर छह सौ साल बाद भी प्रासंगिक लगते हैं?

उत्तर:

कबीर छह सौ साल बाद भी आज इसलिए प्रासंगिक लगते हैं, क्योंकि सांप्रदायिकता की जिस समस्या की ओर हमारा ध्यान छह सौ साल पहले खींचा था वह समस्या आज भी अपना असर दिखाकर जन-धन को नुकसान पहुँचा रही है।


प्रश्नः (ख)

किस समस्या को ज्वालामुखी कहा गया है और क्यों?

उत्तर:

सांप्रदायिकता की समस्या को ज्वालामुखी कहा गया है क्योंकि जिस तरह ज्वालामुखी सोई रहती है पर जब वह भड़कती है तो भयानक बन जाती है। यही स्थिति सांप्रदायिकता की है। फैलने वाली सांप्रदायिकता के कारण लोग मारे जाते हैं और धन संपत्ति की क्षति होती है।


प्रश्नः (ग)

समाज में ज्वालामुखी भड़कने के क्या दुष्परिणाम होते हैं?

उत्तर:

समाज में ज्वालामुखी भड़कने का दुष्परिणाम यह होता है कि एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय का दुश्मन बन जाता है। दोनों संप्रदाय एक-दूसरे की जान लेने के लिए आमने-सामने आ जाते हैं। इससे जन-धन को हानि पहुँचती है।


प्रश्नः (घ)

मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव के विचार कैसे बलशाली बनते हैं?

उत्तर:

मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव के विचार धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता से बलशाही बनते हैं। मनुष्य अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ समझता है और दूसरे धर्म का अनादर करता है। वह अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अन्य धर्म को हानि पहुँचाने लगता है।


प्रश्नः (ङ)

कबीर ने किन माध्यमों का विरोध किया और क्यों?

उत्तर:

कबीर ने पूजा-नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि के दिखावों का विरोध किया है क्योंकि इससे व्यक्ति में धार्मिक कट्टरता उत्पन्न होती है तथा इस आधार पर व्यक्ति दूसरे धर्म के व्यक्ति का अनादर करने लगता है।


(12) दैनिक जीवन में हम अनेक लोगों से मिलते हैं, जो विभिन्न प्रकार के काम करते हैं-सड़क पर ठेला लगानेवाला, दूधवाला, नगर निगम का सफाईकर्मी, बस कंडक्टर, स्कूल अध्यापक, हमारा सहपाठी और ऐसे ही कई अन्य लोग। शिक्षा, वेतन, परंपरागत चलन और व्यवसाय के स्तर पर कुछ लोग निम्न स्तर पर कार्य करते हैं तो कुछ उच्च स्तर पर। एक माली के कार्य को सरकारी कार्यालय के किसी सचिव के कार्य से अति निम्न स्तर का माना जाता है, किंतु यदि यही अपने कार्य को कुशलतापूर्वक करता है और उत्कृष्ट सेवाएँ प्रदान करता है तो उसका कार्य उस सचिव के कार्य से कहीं बेहतर है, जो अपने काम में ढिलाई बरतता है तथा अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह नहीं करता। क्या आप ऐसे सचिव को एक आदर्श अधिकारी कह सकते हैं? वास्तव में पद महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्त्वपूर्ण होता है, कार्य के प्रति समर्पण-भाव और कार्य-प्रणाली में पारदर्शिता।


इस संदर्भ में गांधी जी से उत्कृष्ट उदाहरण और किसका दिया जा सकता है, जिन्होंने अपने हर कार्य को गरिमामय मानते हुए किया। वे अपने सहयोगियों को श्रम की गरिमा की सीख दिया करते थे। दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों के लिए संघर्ष करते हुए उन्होंने सफ़ाई करने जैसे कार्य को भी कभी नीचा नहीं समझा और इसी कारण स्वयं उनकी पत्नी कस्तूरबा से भी उनके मतभेद हो गए थे।


बाबा आमटे ने समाज द्वारा तिरस्कृत कुष्ठ रोगियों की सेवा में अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया। सुंदरलाल बहुगुणा ने अपने प्रसिद्ध ‘चिपको आंदोलन’ के माध्यम से पेड़ों को संरक्षण प्रदान किया। फादर डेमियन ऑफ मोलोकाई, मार्टिन लूथर किंग और मदर टेरेसा जैसी महान आत्माओं ने इसी सत्य को ग्रहण किया। इनमें से किसी ने भी कोई सत्ता प्राप्त नहीं की, बल्कि अपने जन-कल्याणकारी कार्यों से लोगों के दिलों पर शासन किया। गांधी जी का स्वतंत्रता के लिए संघर्ष उनके जीवन का एक पहलू है, किंतु उनका मानसिक क्षितिज वास्तव में एक राष्ट्र की सीमाओं में बँधा हुआ नहीं था। उन्होंने सभी लोगों में ईश्वर के दर्शन किए। यही कारण था कि कभी किसी पंचायत तक के सदस्य नहीं बनने वाले गांधी जी की जब मृत्यु हुई तो अमेरिका का राष्ट्रध्वज भी झुका दिया गया था।


प्रश्नः (क)

विभिन्न व्यवसाय करने वाले लोगों के समाज में निम्न स्तर और उच्च स्तर को किस आधार पर तय किया जाता है।

उत्तर:

विभिन्न व्यवसाय करने वाले लोगों के समाज में निम्नस्तर और उच्च स्तर को उनकी शिक्षा वेतन व्यवसाय आदि के आधार पर तय किया जाता है। उच्च शिक्षित तथा अधिक वेतन पाने वाले व्यक्ति के काम को उच्च स्तर का तथा माली जैसों के काम को निम्न स्तर का माना जाता है।


प्रश्नः (ख)

एक माली अथवा सफाईकर्मी का कार्य किसी सचिव के कार्य से बेहतर कैसे माना जा सकता है?

उत्तर:

एक माली अथवा सफाईकर्मी अपना काम पूरी निष्ठा ईमानदारी, जिम्मेदारी और कुशलता से करता है तो उसका कार्य उस सचिव के कार्य से बेहतर है जो अपने काम पर ध्यान नहीं देता है या अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं करता है।


प्रश्नः (ग)

गांधी जी काम के प्रति क्या दृष्टिकोण रखते थे। उनका अपनी पत्नी के साथ क्यों मतभेद हो गया?

उत्तर:

गांधी जी सफ़ाई करने जैसे कार्य को गरिमामय मानते थे। वे अपने सहयोगियों को श्रम करने की सीख देते थे फिर खुद श्रम से कैसे पीछे रहते। उन्होंने सफ़ाई का काम स्वयं करना शुरू कर दिया। इसी बात पर उनका पत्नी के साथ झगड़ा हो गया।


प्रश्नः (घ)

बाबा आमटे, सुंदरलाल बहुगुणा, मदर टेरेसा आदि का उल्लेख क्यों किया गया है?

उत्तर:

बाबा आमटे ने समाज द्वारा तिरस्कृत कुष्ठ रोगियों की सेवा की सुंदरलाल बहुगुणा ने चिपको आंदोलन चलाकर पेडों को करने से बचाया तथा मदर टेरेसा ने रोगियों की सेवा की। उन्होंने अपने कार्य को अत्यंत लगन से किया, इसलिए उनका नाम उल्लिखित है।


प्रश्नः (ङ)

गांधी जी की मृत्यु पर अमेरिका का राष्ट्रध्वज क्यों झुका दिया गया?

उत्तर:

गांधी जी की मृत्यु पर अमेरिका ने उनके सम्मान में अपना राष्ट्र ध्वज झुका दिया। गांधी जी किसी एक व्यक्ति या राष्ट्र की भलाई के लिए काम न करके समूची मानवता की भलाई के लिए काम कर रहे थे।


(13) परिवर्तन प्रकृति का नियम है और परिवर्तन ही अटल सत्य है। अतः पर्यावरण में भी परिवर्तन हो रहा है लेकिन वर्तमान समय में चिंता की बात यह है कि जो पर्यावरणीय परिवर्तन पहले एक शताब्दी में होते थे, अब उतने ही परिवर्तन एक दशक में होने लगे हैं। पर्यावरण परिवर्तन की इस तेज़ी का कारण है विस्फोटक ढंग से बढ़ती आबादी, वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति और प्रयोग तथा सभ्यता का विकास। आइए, हम सभी मिलकर यहाँ दो प्रमुख क्षेत्रों का चिंतन करें एवं निवारण विधि सोचें। पहला है ओजोन की परत में कमी और विश्व के तापमान में वृद्धि।


ये दोनों क्रियाएँ परस्पर संबंधित है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में सुपरसोनिक वायुयानों का ईजाद हुआ और वे ऊपरी आकाश में उड़ाए जाने लगे। उन वायुयानों के द्वारा निष्कासित पदार्थों में उपस्थित नाइट्रिक ऑक्साइड के द्वारा ओजोन परत का क्षय महसूस किया गया। यह ओजोन परत वायुमंडल के समताप मंडल या बाहरी घेरे में होता है। आगे शोध द्वारा यह भी पता चला कि वायुमंडल की ओजोन परत पर क्लोरो-फ्लोरो कार्बस प्रशीतक पदार्थ, नाभिकीय विस्फोट इत्यादि का भी दुष्प्रभाव पड़ता है। ओजोन परत जीवमंडल के लिए रक्षा-कवच है, जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों के विकिरण को रोकता है जो जीवमंडल के लिए घातक है।


अतः इन रासायनिक गैसों द्वारा ओजोन की परत की हो रही कमी को ब्रिटिश वैज्ञानिकों द्वारा 1978 में गुब्बारों और रॉकेटों की मदद से अध्ययन किया गया। अतः नवीनतम जानकारी के मुताबित अं टिका क्षेत्र के ऊपर ओजोन परत में बड़ा छिद्र पाया गया है जिससे हो सकता है कि सूर्य की घातक विकिरण पृथ्वी की सतह तक पहुँच रही हो और पृथ्वी की सतह गर्म हो रही हो। भारत में भी अंटार्कटिका स्थित अपने अड्डे, दक्षिण गंगोत्री से गुब्बारों द्वारा ओजोन मापक यंत्र लगाकर शोध कार्य में भाग लिया।


क्लोरो-फ्लोरो कार्बस रसायन सामान्य तौर पर निष्क्रिय होते हैं, पर वायुमंडल के ऊपर जाते ही उनका विच्छेदन हो जाता है। तकनीकी उपकरणों द्वारा अध्ययन से पता चला है कि पृथ्वी की सतह से क्लोरो-फ्लोरो कार्बस की मात्रा वायुमंडल में 15 मिलियन टन से भी अधिक है। इन कार्बस के अणुओं का वायुमंडल में मिलन अगर आज से भी बंद कर दें, फिर भी उनकी उपस्थिति वायुमंडल में आने वाले अनेक वर्षों तक बनी रहेगी। अतः क्लोरो-फ्लोरो कार्बस जैसे रसायनों के उपयोग पर हमें तुरंत प्रतिबंध लगाना होगा, ताकि भविष्य में उनके और ज्यादा अणुओं के बनने का खतरा कम हो जाए।


प्रश्नः (क)

कोई दो कारण लिखिए जिनसे पर्यावरण तेज़ी से परिवर्तित हो रहा है?

उत्तर:

(क) पर्यावरण में तेजी से परिवर्तन लाने वाले दो कारक हैं


विस्फोटक ढंग से बढ़ती हुई आबादी

वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति और उनका जीवन में बढ़ता प्रयोग एवं सभ्यता का विकास।

प्रश्नः (ख)

ओजोन परत क्या है? इसके क्षय (नुकसान) होने का क्या कारण है?

उत्तर:

ओजोन एक गैस है जिसकी मोटी परत वायुमंडल के समताप मंडल या बाहरी घेरे में होती है। यह हमें सूर्य की हानिकारक किरणों से बचाती है। सुपर सोनिक विमानों से निकले धुएँ में नाइट्रिक आक्साइड होता है जिससे ओजोन को क्षति पहुँचती है।


प्रश्नः (ग)

आजकल पृथ्वी की सतह क्यों गर्म हो रही है?

उत्तर:

आजकल पृथ्वी की ऊपरी सतह इसलिए गर्म हो रही है क्योंकि अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन परत में बड़ा छिद्र पाया गया है जिससे सूर्य की घातक विकिरण किरणें धरती पर पहुँच रही हैं। इससे धरती गरम हो रही है।


प्रश्नः (घ)

ओजोन परत को रक्षा-कवच क्यों कहा गया है? यह परत किनसे प्रभावित हो रही है?

उत्तर:

ओजोन परत को जीवमंडल की रक्षा कवच इसलिए कहा गया है क्योंकि यह परत हमें सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों के विकिरण से बचाती है।

यह परत क्लोरो फ्लोरो कार्बन, प्रशीतक पदार्थ नाभिकीय विखंडन आदि के द्वारा प्रभावित हो रही है।


प्रश्नः (ङ)

क्लोरो फ्लोरो कार्बन रसायनों का विच्छेदन कैसे हो जाता है?

उत्तर:

क्लोरो-फ्लोरो कार्बस रसायन सामान्यतया निष्क्रिय होते हैं, पर वायुमंडलीय सीमा से ऊपर जाते ही उनका विखंडन अपने आप हो जाता है।


(14) आधुनिक युग विज्ञान का युग है। मनुष्य विकास के पथ पर बड़ी तेज़ी से अग्रसर है। उसने समय के साथ स्वयं के लिए सुख के सभी साधन एकत्र कर लिए हैं। इतना होने के बाद और अधिक पा लेने की अभिलाषा में कोई कमी नहीं आई है बल्कि पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। समय के साथ उसकी असंतोष की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। कल-कारखाने, मोटर-गाड़ियाँ, रेलगाड़ी, हवाई जहाज़ आदि सभी उसकी इसी प्रवृत्ति की देन हैं। उसके इस विस्तार से संसाधनों के समाप्त होने का खतरा दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।


प्रकृति में संसाधन सीमित हैं। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के साथ आवश्यकताएँ भी बढ़ती ही जा रही हैं। दिन-प्रतिदिन सड़कों पर मोटर-गाडियों की संख्या में अतुलनीय वृद्धि हो रही है। रेलगाड़ी हो या हवाई जहाज़ सभी की संख्या में वृद्धि हो रही है। मनुष्य की मशीनों पर निर्भरता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। इन सभी मशीनों के संचालन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है, परंतु जिस गति से ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ रही है उसे देखते हुए ऊर्जा के समस्त संसाधनों के नष्ट होने की आशंका बढ़ने लगी है। विशेषकर ऊर्जा के उन सभी साधनों की जिन्हें पुनः निर्मित नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए पेट्रोल, डीजल, कोयला तथा भोजन पकाने की गैस आदि।


पेट्रोल अथवा डीजल जैसे संसाधनों रहित विश्व की परिकल्पना भी दुष्कर प्रतीत होती है। परंतु वास्तविकता यही है कि जिस तेज़ी से हम इन संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं उसे देखते हुए वह दिन दूर नहीं जब धरती से ऊर्जा के हमारे ये संसाधन विलुप्त हो जायेंगे। अत: यह आवश्यक है कि हम ऊर्जा संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दें अथवा इसके प्रतिस्थापन हेतु अन्य संसाधनों को विकसित करे क्योंकि यदि समय रहते हम अपने प्रयासों में सक्षम नहीं होते तो संपूर्ण मानव सभ्यता ही खतरे में पड़ सकती है।


प्रश्नः (क)

मनुष्य के विकास और उसकी अभिलाषा के बीच क्या संबंध है? गद्यांश के आधार पर लिखिए।

उत्तर:

मनुष्य और उसकी अभिलाषा के बीच यह संबंध है कि मनुष्य ने ज्यों-ज्यों विकास किया त्यों-त्यों उसकी अभिलाषा बढ़ती गई। मनुष्य को जैसे-जैसे सुख-सुविधाएँ मिलती गईं उसकी अभिलाषा कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही हैं।


प्रश्नः (ख)

कल कारखाने मनुष्य की किस प्रवृत्ति की देन हैं? इस प्रवृत्ति से क्या हानि हुई है?

उत्तर:

कल-कारखाने, मोटर गाड़ियाँ मनुष्य की बढ़ती अभिलाषा की प्रवृत्ति की देन है। इस प्रवृत्ति के लगातार बढ़ते जाने से यह हानि हुई है कि कोयला, पेट्रोल जैसे संसाधनों के समाप्त होने का खतरा बढ़ गया है।


प्रश्नः (ग)

ऊर्जा के संसाधनों के नष्ट होने का खतरा क्यों बढ़ गया है ?

उत्तर:

विश्व में जनसंख्या बढ़ने के साथ ही उसकी आवश्यकताओं में खूब वृद्धि हुई है। रेल-मोटर गाड़ियाँ बेतहाशा बढ़ी हैं। इनके लिए तेज़ गति से ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ी है। इसे देखते हुए उर्जा के संसाधनों के नष्ट होने का खतरा बढ़ गया है।


प्रश्नः (घ)

ऊर्जा के वे कौन से संसाधन हैं जिनके खत्म होने की आशंका से मनुष्य घबराया हुआ है?

उत्तर:

ऊर्जा के जिन साधनों के नष्ट होने से मनुष्य घबराया है वे ऐसे संसाधन हैं जिन्हें नष्ट होने पर पुनः नहीं बनाया जा सकता है। ऐसे साधनों में डीजल, कोयला, पेट्रोल, खाना पकाने की गैस प्रमुख है।


प्रश्नः (ङ)

उर्जा संरक्षण की ओर ध्यान देने की आवश्यकता क्यों बढ़ गई है?

उत्तर:

ऊर्जा संसाधन के संरक्षण की आवश्यकता इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि इनके अंधाधुंध उपयोग से इनके नष्ट होने का खतरा मँडराने लगा है। इसके लिए हमें इनका सावधानी से प्रयोग करते हुए इनके विकल्पों की खोज करनी चाहिए।


(15) पड़ोस सामाजिक जीवन के ताने-बाने का महत्त्वपूर्ण आधार है। दरअसल पड़ोस जितना स्वाभाविक है, हमारी सामाजिक सुरक्षा के लिए तथा सामाजिक जीवन की समस्त आनंदपूर्ण गतिविधियों के लिए वह उतना ही आवश्यक भी है। यह सच है कि पड़ोसी का चुनाव हमारे हाथ में नहीं होता, इसलिए पड़ोसी के साथ कुछ-न-कुछ सामंजस्य तो बिठाना ही पड़ता है। हमारा पड़ोसी अमीर हो या गरीब, उसके साथ संबंध रखना सदैव हमारे हित में ही होता है। पड़ोसी से परहेज़ करना अथवा उससे कटे-कटे रहने में अपनी ही हानि है, क्योंकि किसी भी आकस्मिक आपदा अथवा आवश्यकता के समय अपने रिश्तेदारों अथवा परिवारवालों को बुलाने में समय लगता है।


यदि टेलीफ़ोन की सुविधा भी है तो भी कोई निश्चय नहीं कि उनसे समय पर सहायता मिल ही जाएगी। ऐसे में पड़ोसी ही सबसे अधिक विश्वस्त सहायक हो सकता है। पड़ोसी चाहे कैसा भी हो, उससे अच्छे संबंध रखने ही चाहिए। जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता, उससे सहानुभूति नहीं रख सकता, उसके साथ सुख-दुख का आदान-प्रदान नहीं कर सकता तथा उसके शोक और आनंद के क्षणों में शामिल नहीं हो सकता, वह भला अपने समाज अथवा देश के साथ क्या खाक भावनात्मक रूप से जुड़ेगा। विश्व-बंधुत्व की बात भी तभी मायने रखती है, जब हम अपने पड़ोसी से निभाना सीखें।


प्रायः जब भी पड़ोसी से खटपट होती है तो इसलिए कि हम आवश्यकता से अधिक पड़ोसी के व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि किसी को भी अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी की रोक-टोक और हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगता। पड़ोसी के साथ कभी-कभी तब भी अवरोध पैदा हो जाते हैं, जब हम आवश्यकता से अधिक उससे अपेक्षा करने लगते हैं। बात नमक-चीनी के लेन-देन से आरंभ होती है तो स्कूटर और कार तक माँगने की नौबत ही न आए। आपको परेशानी में पड़ा देख पड़ोसी खुद ही आगे आ जाएगा। पड़ोसियों से निर्वाह करने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि बच्चों को नियंत्रण में रखें। आमतौर से बच्चों में जाने-अनजाने छोटी-छोटी बातों पर झगड़े होते हैं और बात बड़ों के बीच सिर फुटौवल तक जा पहुँचती है। इसलिए पड़ोसी के बगीचे से फल-फूल तोड़ने, उसके घर में ऊधम मचाने से बच्चों पर सख्ती से रोक लगाएँ। भूलकर भी पड़ोसी के बच्चे पर हाथ न उठाएँ, अन्यथा संबंधों में कड़वाहट आते देर न लगेगी।


प्रश्नः (क)

पड़ोस का सामाजिक जीवन में क्या महत्त्व है?

उत्तर:

पड़ोस सामाजिक जीवन के ताने-बाने का महत्त्वपूर्ण आधार है। यह हमारी सुरक्षा के लिए तथा सामाजिक जीवन की समस्त आनंदपूर्ण गतिविधियों के लिए भी बहुत आवश्यक है।


प्रश्नः (ख)

कैसे कह सकते हैं कि पड़ोसी के साथ सामंजस्य बिठाना हमारे हित में है?

उत्तर:

मुसीबत के समय सहायता के लिए पड़ोसी से तालमेल बिठाना आवश्यक होता है, क्योंकि पड़ोसी ही हमारे सबसे निकट होता है। हमारी सहायता करने वाला वही पहला व्यक्ति होता है क्योंकि हमारे रिश्तेदारों को आने में समय लग जाता है।


प्रश्नः (ग)

“जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता, …वह भला अपने समाज अथवा देश के साथ क्या खाक भावनात्मक रूप से जुड़ेगा!” उपर्युक्त पंक्तियों का भाव अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर:

जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता वह विश्व से भला कैसे जुड़ सकता है, क्योंकि विश्व से जुड़ने का आधार पड़ोस है। जो अपने पड़ोस से मिलकर एक नहीं हो सकता, वह भला देश या समाज से एक होकर कैसे रह सकता है।


प्रश्नः (घ)

पड़ोसी से खटपट होने में हमारी भूल कितनी जिम्मेदार रहती है?

उत्तर:

पड़ोसी के साथ खटपट होने का मुख्य कारण होता है-आवश्यकता से अधिक पड़ोसी के व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप करना। यह व्यक्तिगत हस्तक्षेप उसे अच्छा नहीं लगता। इस तरह खटपट के लिए हमारी भूल जिम्मेदार रहती है।


प्रश्नः (ङ)

पड़ोसी से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए हमें क्या करना चाहिए?

उत्तर:

पड़ोसी से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए हमें


अपने बच्चों के व्यवहार पर ध्यान रखना चाहिए।

अपनी आवश्यकताओं के लिए उन पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।

पड़ोसी के बच्चे को अपना बच्चा समझना चाहिए।

(16) समस्त ग्रंथों एवं ज्ञानी, अनुभवीजनों का कहना है कि जीवन एक कर्मक्षेत्र है। हमें कर्म के लिए जीवन मिला है। कठिनाइयाँ एवं दुख और कष्ट हमारे शत्रु हैं, जिनका हमें सामना करना है और उनके विरुद्ध संघर्ष करके हमें विजयी बनना है। अंग्रेज़ी के यशस्वी नाटककार शेक्सपीयर ने ठीक ही कहा है कि “कायर अपनी मृत्यु से पूर्व अनेक बार मृत्यु का अनुभव कर चुके होते हैं किंतु वीर एक से अधिक बार कभी नहीं मरते हैं।”


विश्व के प्रायः समस्त महापुरुषों के जीवन वृत्त अमरीका के निर्माता जॉर्ज वाशिंगटन और राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन से लेकर भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के जीवन चरित्र हमें यह शिक्षा देते हैं कि महानता का रहस्य संघर्षशीलता, अपराजेय व्यक्तित्व है। इन महापुरुषों को जीवन में अनेक संकटों का सामना करना पड़ा परंतु वे घबराए नहीं, संघर्ष करते रहे और अंत में सफल हुए। संघर्ष के मार्ग में अकेला ही चलना पड़ता है। कोई बाहरी शक्ति आपकी सहायता नहीं करती है। परिश्रम, दृढ़ इच्छा शक्ति व लगन आदि मानवीय गुण व्यक्ति को संघर्ष करने और जीवन में सफलता प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।


समस्याएँ वस्तुतः जीवन का पर्याय हैं यदि समस्याएँ न हों तो आदमी प्रायः अपने को निष्क्रिय समझने लगेगा। ये समस्याएँ वस्तुतः जीवन की प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती हैं। समस्या को सुलझाते समय उसका समाधान करते समय व्यक्ति का श्रेष्ठतम तत्व उभरकर आता है। धर्म, दर्शन, ज्ञान, मनोविज्ञान इन्हीं प्रयत्नों की देन हैं। पुराणों में अनेक कथाएँ यह शिक्षा देती हैं कि मनुष्य जीवन की हर स्थिति में जीना सीखे व समस्या उत्पन्न होने पर उसके समाधान के उपाय सोचे। जो व्यक्ति जितना उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करेगा, उतना ही उसके समक्ष समस्याएँ आएँगी और उनके परिप्रेक्ष्य में ही उसकी महानता का निर्धारण किया जाएगा।


प्रश्नः (क)

महापुरुषों ने जीवन को एक कर्मक्षेत्र क्यों कहा है?

उत्तर:

मनुष्य के जीवन में सबसे ज़रूरी है- कर्म करते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ना और निरंतर कर्म करना। इसका कारण है जीवन ही कर्म करने के लिए मिला है। कर्म द्वारा संघर्ष ही हमें सदैव विजयी बना सकता है।


प्रश्नः (ख)

महापुरुषों का जीवन हमें क्या संदेश देता है?

उत्तर:

महापुरुषों का जीवन हमें यह संदेश देता है कि महानता का रहस्य संघर्षशीलता एवं अपराजेय व्यक्तित्व है। हमें कभी संघर्ष से घबराना नहीं चाहिए। इन महापुरुषों की सफलता का रहस्य है- जीवन में संकटों से घबराए बिना संघर्ष करते रहना।


प्रश्नः (ग)

समस्याएँ हमारे जीवन का पर्याय कैसे हैं ? समस्याओं का सामना हमें किस प्रकार करना चाहिए?

उत्तर:

समस्याएँ हमारे जीवन का पर्याय हैं। समस्या आने पर उनसे छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति संघर्ष करता है। इस तरह वे हमें कर्म के लिए प्रेरित करती हैं और हम कर्मशील बनते हैं। हमें समस्याओं का सामना धैर्यपूर्वक सोच समझकर करना चाहिए।


प्रश्नः (घ)

संघर्ष के मार्ग की क्या विशेषताएँ हैं?

उत्तर:

संघर्ष के मार्ग की विशेषता यह है कि व्यक्ति को इस मार्ग पर अकेला चलना पड़ता है। इसमें कोई बाहरी शक्ति हमारी मदद नहीं करती है। संघर्ष में सफलता पाने के लिए परिश्रम, दृढ़ इच्छाशक्ति, लगन आदि मानवीय गुणों की आवश्यकता होती है।


प्रश्नः (ङ)

पुराणों की कथाओं में हमें क्या सीख दी गई है?

उत्तर:

पुराणों की कथाओं में यह सीख दी गई है कि मनुष्य जीवन की हर स्थिति में जीना सीखे, समस्याएँ उत्पन्न होने पर उसके समाधान का उपाय सोचे। समस्याओं का समाधान करने की क्षमता से व्यक्ति की महानता का संबंध बताकर समस्याएँ हमें संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं।


(17) श्रमहीन शरीर की दशा जंग लगी हुई चाबी की तरह अथवा अन्य किसी उपयोगी वस्तु की तरह निष्क्रिय हो जाती है। शारीरिक श्रम वस्तुत जीवन का आधार है, जीवंतता की पहचान है। योगाभ्यास में तो पहली शिक्षा होती है आसन आदि के रूप में शरीर को श्रमशीलता का अभ्यस्त बनाना।

महात्मा गांधी अपना काम अपने हाथ से करने पर बल देते थे। वह प्रत्येक आश्रमवासी से आशा करते थे कि वह अपने शरीर से संबंधित प्रत्येक कार्य सफ़ाई तक स्वयं करेगा। उनका कहना था कि जो श्रम नहीं करता है, वह पाप करता है और पाप का अन्न खाता है।


ऋषि मुनियों ने कहा है- बिना श्रम किए जो भोजन करता है, वह वस्तुतः चोर है। महात्मा गांधी का समस्त जीवन दर्शन श्रम सापेक्ष था। उनका समस्त अर्थशास्त्र यही बताता था कि प्रत्येक उपभोक्ता को उत्पादनकर्ता होना चाहिए। उनकी नीतियों की उपेक्षा करने का परिणाम हम आज भी भोग रहे हैं। न गरीबी कम होने में आती है, न बेरोजगारी पर नियंत्रण हो पा रहा है और न अवरोधों की वृद्धि हमारे वश की बात रही है। दक्षिण कोरिया वासियों ने श्रमदान करके ऐसे श्रेष्ठ भवनों का निर्माण किया है, जिनसे किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है।


श्रम की अवज्ञा के परिणाम का सबसे ज्वलंत उदाहरण है, हमारे देश में व्याप्त शिक्षित वर्ग की बेकारी। हमारा शिक्षित युवा वर्ग शारीरिक श्रमपरक कार्य करने से परहेज करता है, वह यह नहीं सोचता है कि शारीरिक श्रम परिमाणतः कितना सुखदायी होता है। पसीने से सिंचित वृक्ष में लगने वाला फल कितना मधुर होता है। ‘दिन अस्त और मज़दूर मस्त’ इसका भेद जानने वाले महात्मा ईसा मसीह ने अपने अनुयायियों को यह परामर्श दिया था कि तुम केवल पसीने की कमाई खाओगे। पसीना टपकाने के बाद मन को संतोष और तन को सुख मिलता है, भूख भी लगती है और चैन की नींद भी आती है। हमारे समाज में शारीरिक श्रम न करना सामान्यतः उच्च सामाजिक स्तर की पहचान माना जाता है।


यही कारण है कि ज्यों के यों आर्थिक स्थिति में सुधार होता जाता है। त्यों त्यों बीमारी व बीमारियों की संख्या में वृद्धि होती जाती है। इतना ही नहीं बीमारियों की नई-नई किस्में भी सामने आती जाती हैं। जिसे समाज में शारीरिक श्रम के प्रति हेय दृष्टि नहीं होती है, वह समाज अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ एवं सुखी दिखाई देता है। विकसित देशों के निवासी शारीरिक श्रम को जीवन का अवश्यक अंग समझते हैं। ऐसे उदाहरण भारत में ही मिल सकते हैं, शत्रु दरवाजा तोड़ रहे हैं और नवाब साहब इंतज़ार कर रहे हैं जूते पहनने वाली बाँदी का।


प्रश्नः (क)

जीवन का आधार क्या है और क्यों?

उत्तर:

जीवन का आधार शारीरिक श्रम है। इसका कारण यह है कि जो शरीर श्रम नहीं करता है, उसकी दशा उस जंग लगी चाबी जैसी होती है जो उपयोग में न आने के कारण बेकार हो जाती है। अपठित गद्यांश


प्रश्नः (ख)

गांधी जी की नीति क्या थी? उसकी उपेक्षा का परिणाम हम किस रूप में भोग रहे हैं?

उत्तर:

गांधी जी की नीति यह थी कि प्रत्येक व्यक्ति अपना काम स्वयं करे। श्रम न करने वाला पाप का अन्न खाता है। उनकी नीतियों की उपेक्षा का परिणाम हम इन रूपों में भोग रहे हैं


गरीबी कम न होना

बेरोज़गारी पर नियंत्रण न होना

अपराध में वृद्धि

प्रश्नः (ग)

समाज की आर्थिक स्थिति और बीमारियों में संबंध बताते हुए श्रम के दो लाभ लिखिए।

उत्तर:

समाज की आर्थिक स्थिति और बीमारियों में गहरा संबंध है। ज्यों-ज्यों समाज की आर्थिक स्थिति बढ़ती है त्यों-त्यों वहाँ बीमारियों की संख्या भी बढ़ती जाती है क्योंकि व्यक्ति परिश्रम से विमुख होने लगता है। परिश्रम करने से-


व्यक्ति स्वस्थ रहता है।

व्यक्ति को भूख लगती है और चैन की नींद आती है।

प्रश्नः (घ)

शिक्षित वर्ग की बेकारी का क्या कारण है? यह वर्ग किस बात से अनभिज्ञ है?

उत्तर:

युवा शिक्षित वर्ग की बेकारी का कारण शारीरिक श्रम की उपेक्षा है। यह वर्ग इस बात से अनभिज्ञ है कि शारीरिक श्रम कितना सुखदायी होता है और पसीने से सिंचित वृक्ष में लगने वाला फल कितना मधुर होता है।


प्रश्नः (ङ)

श्रम के प्रति भारत और अन्य देशों की सोच में क्या अंतर है? इस सोच का परिणाम क्या होता है?

उत्तर:

श्रम के प्रति हमारे देश की सोच यह है कि जब ज़रूरत आ पड़ेगी तब देखा जाएगा वही अन्य देश इसे जीवन का आवश्यक अंग समझते हैं। इस सोच का परिणाम यह होता है कि परिश्रम करने वाले देश उन्नति करते हैं तथा दूसरे पिछड़ते जाते हैं।


(18) ईश्वर के प्रति आस्था वास्तव में जन्मजात न होकर सामान्यतः हमारे घर-परिवार और परिवेश से हमें संस्कारों के रूप में मिलती है और ज़्यादातर लोग बचपन में इसे बिना कोई प्रश्न किए ही ग्रहण करते हैं। हमें छह में से सिर्फ एक व्यक्ति ऐसा मिला जिसका कहना है कि वह बचपन से ही ईश्वर के अस्तित्व के प्रति संदेहशील हो चला था, लेकिन पाँच ने कहा कि उनके साथ ऐसी स्थिति नहीं थी। जिस व्यक्ति ने यह कहा कि बचपन से ही उसने ईश्वर के बारे में अपने संदेह प्रकट करने शुरू कर दिए थे, उसका कहना था कि ऐसा उसने शायद अपने आसपास के जीवन में सामाजिक विसंगतियाँ देखकर किया होगा, क्योंकि उसके सवालों के स्रोत यही थे।


एक तरफ उसने पाया कि धार्मिक पुस्तकें और धार्मिक लोगों के कथनों से कुछ और बात निकलती हैं, लेकिन जो आसपास के वातावरण में उन्हें देखने को मिलता है तथा ये धार्मिक लोग स्वयं जो व्यवहार करते हैं वह कुछ और है, लेकिन बाकी पांच ने सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों और ईश्वर के प्रति आस्था में अंतर्संबंध पहले नहीं देखे थे। जिन लोगों ने ईश्वर में आस्था बाद में खो दी, उन्होंने माना कि इसका मूल कारण उनका पुस्तकों से बचपन से ही संपर्क में आना रहा है। बाद में निरीश्वरवादी विचारों तथा नास्तिकों के संपर्क में आने से ईश्वर में आस्था बाद में खो दी। वे नहीं मानते कि उनके इस जीवन में बाद में कभी ऐसा कोई समय भी आ सकता है, जब वे ईश्वर की तरफ पुनः लौटने की बाध्यता महसूस करेंगे, हालांकि वे स्वीकार करते हैं कि उन्होंने ऐसे लोगों को भी देखा है, जो अपने युवाकाल में घनघोर नास्तिक थे, मगर जीवन के अंतिम दौर तक आकर घनघोर आस्तिक बन गये।


आस्तिकों का कहना है कि ईश्वर के विरुद्ध कोई कितना ही मज़बूत तर्क पेश करे, उनकी ईश्वर में आस्था कभी कमज़ोर नहीं पड़ेगी। तर्क वे सुन लेंगे, लेकिन ईश्वर नहीं है, इस बात को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करेंगे। उनका मानना है कि तर्क से ईश्वर को पाया नहीं जा सकता, वह तो तर्कातीत है। दूसरी तरफ जिन्होंने ईश्वर में अपनी आस्था खो दी है, उनका कहना है कि उन्होंने अपनी नव अर्जित नास्तिकता के कारण अपने परिवार और समाज में अकेला पड़ जाने का खतरा भी उठाया है लेकिन धीरे-धीरे अपने परिवार में उन्होंने ऐसी स्थिति पैदा कर ली है कि उन्हें इस रूप में स्वीकार किया जाने लगा है।

यह पाया गया कि ईश्वर में व्यक्ति की आस्था को कायम रखने के लिए तमाम तरह का संस्थागत समर्थन निरंतर मिलता रहता है, जबकि इसके विपरीत स्थिति नहीं है।


वे संस्थाएँ भी ईश्वर और धर्म के प्रति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आस्था पैदा और मज़बूत करने की कोशिश करती हैं, जिनका कि प्रत्यक्ष रूप से धर्म से कोई संबंध नहीं है। जैसे परिवार, पास-पड़ोस, स्कूल, अदालतें, काम की जगहें आदि। एक साथी ने बताया कि वे एक ऐसे कालेज में काम करते थे, जहाँ रोज सुबह ईश्वर की प्रार्थना गाई जाती है, जिससे छात्र-छात्राएँ तो किसी तरह बच भी सकते हैं, लेकिन अध्यापक नहीं, अगर वे बचने की कोशिश करते हैं, तो उनकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है।


प्रश्न

प्रश्नः (क)

ईश्वर के प्रति आस्था हम कहाँ से ग्रहण करते हैं ? हम उसे किस तरह स्वीकारते हैं ?

उत्तर:

ईश्वर के प्रति आस्था हम अपने घर-परिवार और परिवेश से संस्कार के रूप में ग्रहण करते हैं। इस आस्था पर कोई तर्क वितर्क या सोच-विचार किए बिना हम ग्रहण कर लेते हैं।


प्रश्नः (ख)

छह में से एक व्यक्ति के ईश्वर के प्रति संदेहशील हो उठने का क्या कारण था?

उत्तर:

छह में से एक व्यक्ति के ईश्वर के प्रति संदेहशील हो उठने का कारण था- उसके द्वारा अपने आसपास के जीवन में सामाजिक विसंगतियाँ देखना। उसने पाया कि धार्मिक पुस्तकें और धार्मिक लोग की बातों में और उनके व्यवहार में बहुत अंतर है।


प्रश्नः (ग)

ईश्वर के प्रति आस्था खो देने का क्या कारण था? वे अपने विचार का किस तरह खंडन करते दिखाई देते हैं ?

उत्तर:

ईश्वर के प्रति आस्था खो देने का कारण था- बचपन से ही पुस्तकों के संपर्क में आना और बाद में निरीश्वरवादी और नास्तिकों के संपर्क में आना। ये लोग कहते हैं कि उन्होंने ऐसे लोगों को देखा है कि युवावस्था में घोर नास्तिक थे परंतु जीवन के अंतिम समय में घोर आस्तिक बन गए। ऐसा कहकर वे अपने विचारों का खंडन करते हैं।


प्रश्नः (घ)

ईश्वर के बारे में आस्तिकों का क्या कहना है? इस बारे में वे क्या तर्क देते हैं?

उत्तर:

ईश्वर के बारे में आस्तिकों का कहना है कि कोई ईश्वर के विरुद्ध कितना भी मज़बूत तर्क प्रस्तुत करे पर वे अपनी आस्था को कमज़ोर नहीं होने देंगे। इस बारे में वे तर्क देते हैं कि ईश्वर को तर्क से नहीं पाया जा सकता है वह तर्क से परे है।


प्रश्नः (ङ)

नास्तिक हो जाने से व्यक्ति क्या हानि उठता है?

उत्तर:

नास्तिक हो जाने से व्यक्ति परिवार और समाज में अकेला पड़ जाता है। बाद में उसे लोगों के बीच ऐसी स्थिति बनानी पड़ती है कि सब उसे उसी स्थिति में स्वीकार करें


अपठित काव्यांश


अपठित काव्यांश अपठित काव्यांश किसी कविता का वह अंश होता है जो पाठ्यक्रम में शामिल पुस्तकों से नहीं लिया जाता है। इस अंश को छात्रों द्वारा पहले नहीं पढ़ा गया होता है।



 

अपठित काव्यांश का उद्देश्य काव्य पंक्तियों का भाव और अर्थ समझना, कठिन शब्दों के अर्थ समझना, प्रतीकार्थ समझना, काव्य सौंदर्य समझना, भाषा-शैली समझना तथा काव्यांश में निहित संदेश। शिक्षा की समझ आदि से संबंधित विद्यार्थियों की योग्यता की जाँच-परख करना है।


अपठित काव्यांश पर आधारित प्रश्नों को हल करने से पहले काव्यांश को दो-तीन बार पढ़ना चाहिए तथा उसका भावार्थ और मूलभाव समझ में आ जाए। इसके लिए काव्यांश के शब्दार्थ एवं भावार्थ पर चिंतन-मनन करना चाहिए। छात्रों को व्याकरण एवं भाषा पर अच्छी पकड़ होने से यह काम आसान हो जाता है। यद्यपि गद्यांश की तुलना में काव्यांश की भाषा छात्रों को कठिन लगती है। इसमें प्रतीकों का प्रयोग इसका अर्थ कठिन बना देता है, फिर भी निरंतर अभ्यास से इन कठिनाइयों पर विजय पाई जा सकती है।



 

अपठित काव्यांश संबंधी प्रश्नों को हल करते समय निम्नलिखित प्रमुख बातों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए


काव्यांश को दो-तीन बार ध्यानपूर्वक पढ़ना और उसके अर्थ एवं मूलभाव को समझना।

कठिन शब्दों या अंशों को रेखांकित करना।

प्रश्न पढ़ना और संभावित उत्तर पर चिह्नित करना।

प्रश्नों के उत्तर देते समय प्रतीकार्थों पर विशेष ध्यान देना।

प्रश्नों के उत्तर काव्यांश से ही देना; काव्यांश से बाहर जाकर उत्तर देने का प्रयास न करना।

उत्तर अपनी भाषा में लिखना, काव्यांश की पंक्तियों को उत्तर के रूप में न उतारना।

यदि प्रश्न में किसी भाव विशेष का उल्लेख करने वाली पंक्तियाँ पूछी गई हैं तो इसका उत्तर काव्यांश से समुचित भाव व्यक्त करने वाली पंक्तियाँ ही लिखना चाहिए।

शीर्षक काव्यांश की किसी पंक्ति विशेष पर आधारित न होकर पूरे काव्यांश के भाव पर आधारित होना चाहिए।

शीर्षक संक्षिप्त आकर्षक एवं अर्थवान होना चाहिए।

अति लघुत्तरीय और लघुउत्तरीय प्रश्नों के उत्तर में शब्द सीमा का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।

प्रश्नों का उत्तर लिखने के बाद एक बार दोहरा लेना चाहिए ताकि असावधानी से हुई गलतियों को सुधारा जा सके।

काव्यांश को हल करने में आनेवाली कठिनाई से बचने के लिए छात्र यह उदाहरण देखें और समझें-निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –


(1) पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले!

पुस्तकों में है नहीं, छापी गई इसकी कहानी,

हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की जुबानी,

अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या,

पर गए कुछ लोग इस पर, छोड़ पैरों की निशानी,

यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,

खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले!

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले!



 

है अनिश्चित किस जगह पर, सरित-गिरि-गह्वर

मिलेंगे,

है अनिश्चित किस जगह पर, बाग-बन सुंदर मिलेंगे,

किस जगह यात्रा खत्म हो जाएगी, यह भी अनिश्चित,

है अनिश्चित, कब सुमन, कब कंटकों के सर मिलेंगे,

कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा,

आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले!

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले!


प्रश्नः (क)

कवि ने बटोही को क्या सलाह दी है और क्यों?

उत्तर:

कवि ने बटोही को यह सलाह दी है कि वह रास्ते पर चलने से पहले उसके बारे में जाँच-परख कर ले। वह ऐसा करने के लिए इसलिए कहता है क्योंकि इससे यात्रा सुगम और निर्विघ्न रूप से पूरी हो जाएगी।


प्रश्नः (ख)

निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है, कैसे? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

जीवन पथ पर बहुत से लोग गए हैं पर उनमें कुछ विशिष्ट लोग भी थे, जो अपने अच्छे कर्मों का उदाहरण छोड़ गए। उनके द्वारा छोड़ी गई अच्छे कर्मों की निशानी यद्यपि मूक है पर हमें जीवन पथ पर चलते जाने की प्रेरणा देती है।



 

प्रश्नः (ग)

कवि ने जीवन मार्ग में क्या-क्या अनिश्चितताएँ बताई हैं?

उत्तर:

कवि ने जीवन पथ में मिलने वाले सुख-दुख, साथ-चलने वालों का अचानक साथ छोड़ देना या नए यात्रियों का मिल जाना और जीवन कभी भी समाप्त हो सकता है जैसी अनिश्चितताएँ बताई हैं।


(2) आज की दुनिया विचित्र, नवीन;

प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन।

हैं बँधे नर के करों में वारि, विद्युत्, भाप,

हुक्म पर चढ़ता-उतरता है पवन का ताप।

है नहीं बाकी कहीं व्यवधान,

लाँघ सकता नर सरित्, गिरि, सिंधु एक समान।

प्रकृति के सब तत्त्व करते हैं मनुज के कार्य;

मानते हैं हुक्म मानव का महा वरुणेश,


और करता शब्दगुण अंबर वहन संदेश।

नव्य नर की मुष्टि में विकराल,

हैं सिमटते जा रहे प्रत्येक क्षण विकराल।

यह प्रगति निस्सीम! नर का यह अपूर्व विकास!

चरण-तल भूगोल! मुट्ठी में निखिल आकाश!

किंतु, है बढ़ता गया मस्तिष्क ही निःशेष,

शीश पर आदेश कर अवधार्य,

छूट पर पीछे गया है रह हृदय का देश;

मोम-सी कोई मुलायम चीज़

ताप पाकर जो उठे मन में पसीज-पसीज।



 

प्रश्नः (क)

कवि को आज की दुनिया विचित्र और नवीन क्यों लग रही है?

उत्तर:

कवि को आज की दुनिया विचित्र और नवीन इसलिए लग रही है क्योंकि आज मनुष्य ने प्रकृति पर सर्वत्र विजय प्राप्त कर ली है। प्राकृतिक बाधाएँ उसका मार्ग नहीं रोक पाती हैं।


प्रश्नः (ख)

‘हैं नहीं बाकी कहीं व्यवधान’ के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है?

उत्तर:

कहीं नहीं बाकी व्यवधान के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि मनुष्य के सामने अब कोई रुकावट नहीं है। आज पानी, बिजली, भाप, वायु मनुष्य के हाथों में बँधे हैं। वह अपनी मर्जी से इनका उपयोग कर रहा है। अब नदी, पहाड़, सागर सभी को लाँघ सकता है।


प्रश्नः (ग)

मानव द्वारा किए गए वैज्ञानिक प्रगति के अद्भुत विकास कवि को खुशी नहीं दे रहे हैं, क्यों?

उत्तर:

मानव द्वारा किए गए अद्भुत विकास कवि को इसलिए खुशी नहीं दे रहे हैं क्योंकि मनुष्य ने अपने मस्तिष्क का विकास तो खूब किया पर हृदय का विकास पीछे छूट गया अर्थात् जीवन मूल्यों में गिरवाट आती गई।


(3) मैं तो मात्र मृत्तिका हूँ-

जब तुम मुझे पैरों से रौंदते हो ।

तथा हल के फाल से विदीर्ण करते हो

तब मैं-

धन-धान्य बनकर मातृरूपा हो जाती हूँ।

पर जब भी तुम

अपने पुरुषार्थ-पराजित स्वत्व से मुझे पुकारते हो


तब मैं

अपने ग्राम्य देवत्व के साथ विन्मयी शक्ति हो जाती हूँ

प्रतिमा बन तुम्हारी आराध्या हो जाती हूँ।

विश्वास करो

यह सबसे बड़ा देवत्व है कि

तुम पुरुषार्थ करते मनुष्य हो

और में स्वरूप पाती मृत्तिका।


प्रश्नः (क)

पुरुषार्थ को सबसे बड़ा देवत्व क्यों कहा गया है?

उत्तर:

मनुष्य अपने पुरुषार्थ द्वारा ही मिट्टी को भिन्न आकार देता है। मनुष्य के पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप ही मिट्टी चिन्मयी शक्ति का रूप धारण करती है। पुरुषार्थ हर सफलता का मूलमंत्र है, इसलिए उसे सबसे बड़ा देवत्व माना गया है।


प्रश्नः (ख)

मिट्टी चिन्मयी शक्ति कब बन जाती है, कैसे?

उत्तर:

मिट्टी जब आराध्या की प्रतिमा बन जाती है तब वह चिन्मयी शक्ति प्राप्त कर लेती है। मनुष्य जब थक हारकर आराध्या की आराधना करता है तब वह पराजित मनुष्य को सांत्वना देकर उसे शक्ति प्रदान करती है।


प्रश्नः (ग)

मिट्टी मातृरूपा कब बन जाती है?

उत्तर:

मिट्टी को जब जोत कर, रौंदकर भुरभुरा बनाया जाता है, उसमें फसलें उगाई जाती है तब मिट्टी धन-धान्य से भरपूर हो जाती है और मातृरूपा बनाकर माँ के समान हमारा भरण-पोषण करती है।


(4) हम प्रचंड की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल। ।

हम नवीन भारत के सैनिक, धीर, वीर, गंभीर, अचल।

हम प्रहरी ऊँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं।

हम हैं शांति-दूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।

वीर प्रसू माँ की आँखों के, हम नवीन उजियाले हैं।

गंगा, यमुना, हिंद महासागर के हम ही रखवाले हैं।

तन-मन-धन तुम पर कुर्बान,

जियो, जियो जय हिंदुस्तान !


हम सपूत उनके, जो नर थे, अनल और मधु के मिश्रण।

जिनमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन।

एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल।

जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर के मल।

थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर।

स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर।

हम उन वीरों की संतान

जियो, जियो जय हिंदुस्तान।


प्रश्नः (क)

कविता में ‘हम’ कौन हैं ?

उत्तर:

कविता में ‘हम’ भारत की नई पीढ़ी के नवयुवक हैं। वे अपने को प्रचंड की नई किरण इसलिए कह रहे हैं कि क्योंकि अब उन्हें अपने अच्छे कार्यों का आलोक दुनिया भर में फैलाना है, तथा वे देश के भावी कर्णधार हैं।


प्रश्नः (ख)

भारतवासी हिंदुस्तान पर क्या-क्या न्योछावर करना चाहते हैं, क्यों?

उत्तर:

भारतीय नवयुवक अपने देश हिंदुस्तान पर तन, मन और धन अर्थात् सर्वस्व न्योछावर कर देना चाहते हैं क्योंकि देश की आन-बान-शान की रक्षा और भविष्य का उत्तरदायित्व उनके कंधों पर है।


प्रश्नः (ग)

‘अनल और मधु के मिश्रण’ किन्हें कहा गया है? उनकी अन्य विशेषताएँ क्या थीं?

उत्तर:

अनल और मधु के मिश्रण हम भारतीयों के पूर्वजों को कहा गया है। वे युद्ध में आग के समान कोहराम मचाने वाले परंतु हृदय से बड़े दयालु थे। उनका तेज़ अत्यंत प्रखर और हृदय कोमल भावों से भरा था।


(5) आज सवेरे

जब वसंत आया उपवन में चुपके-चुपके

कानों ही कानों में मैंने उससे पूछा

“मित्र पा गए तुम तो अपने यौवन का उल्लास दुबारा

गमक उठ फिर प्राण तुम्हारे,

फूलों-सा मन फिर मुसकाया

पर साथी


जब मेरे जीवन का पहला पहर झुलसता था लपटों में,


तुम बैठे थे बंद उशीर पटों से घिरकर।

मैं जब वर्षा की बाढ़ों में डूब-डूब कर उतराया था

तुम हँसते थे वाटर प्रूफ़ कवचन को ओढ़े।

और शीत के पाले में जब गलकर मेरी देह जम गई


तब बिजली के हीटर से

तुम सेंक रहे थे अपना तन-मन

जिसने झेला नहीं, खेल क्या उसने खेला?

जो कष्टों से भागा दूर हो गया सहज जीवन के क्रम से,


उसको दे क्या दान प्रकृति की यह गतिमयता यह नव बेला।

पीड़ा के माथे पर ही आनंद तिलक चढ़ता आया है


क्या दोगे मुझको?

मेरा यौवन मुझे दुबारा मिल न सकेगा?”

सरसों की उंगलियाँ हिलाकर संकेतों में वह यों बोला,

मेरे भाई!

व्यर्थ प्रकृति के नियमों की यों दो न दुहाई,

होड़ न बाँधो तुम यो मुझसे।


मुझे देखकर आज तुम्हारा मन यदि सचमुच ललचाया है

तो कृत्रिम दीवारें तोड़ो


बाहर जाओ,

खुलो, तपो, भीगो, गल जाओ

आँधी तूफ़ानों को सिर लेना सीखो

जीवन का हर दर्द सहे जो स्वीकारो हर चोट समय की


जितनी भी हलचल मचती हो, मच जाने दो

रस विष दोनों को गहरे में पच जाने दो

तभी तुम्हें भी धरती का आशीष मिलेगा

तभी तुम्हारे प्राणों में भी यह

पलाश का फूल खिलेगा।


प्रश्नः (क)

उपवन को हरा-भरा देख कवि ने उससे क्या कहा और उससे क्या माँगा?

उत्तर:

उपवन को हरा-भरा देखकर कवि ने उससे कहा कि मित्र! तुम्हें तो अपने यौवन की खुशियाँ दुबारा मिल गईं। इससे तुम्हारा मन महक उठा है। कवि ने उपवन से अपने यौवन का उल्लास माँगा।


प्रश्नः (ख)

धरती के सुख मनुष्य को कब सुलभ हो सकते हैं ?

उत्तर:

धरती के सुख मनुष्य को तब सुलभ हो सकते हैं, जब मनुष्य सुख और दुख दोनों को समान रूप में अपनाए और सहन करे। केवल सुखों को अपनाने और दुख से विमुख रहने पर वह धरती के सुख नहीं पा सकता है।


प्रश्नः (ग)

मानव ने स्वयं को किन-किन कृत्रिम दीवारों में कैद कर रखा है ?

उत्तर:

मानव ने स्वयं को जिन कृत्रिम दीवारों में कैदकर रखा है, वे हैं


समस्त सुख-सुविधाओं के साधन

मौसम की मार से बचाने वाले उपकरण आदि।

(6) इस समाधि में छिपी हुई है

एक राख की ढेरी।

जलकर जिसने स्वतंत्रता की

दिव्य आरती फेरी॥


यह समाधि यह लघु समाधि, है

झाँसी की रानी की।

अंतिम लीला-स्थली यही है

लक्ष्मी मर्दानी की॥


यहीं कहीं पर बिखर गई वह

भग्न विजय-माला-सी

उसके फूल यहाँ संचित हैं

है वह स्मृति-शाला-सी॥


सहे वार पर वार अंत तक

लड़ी वीर बाला-सी।

आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर

चमक उठी ज्वाला-सी॥


बढ़ जाता है मान वीर का

रण में बलि होने से।

मूल्यवती होती सोने की

भस्म यथा सोने से॥


रानी से भी अधिक हमें अब

यहाँ समाधि है प्यारी।

यहाँ निहित है स्वतंत्रता की

आशा की चिंगारी॥


प्रश्नः (क)

कवि किसकी समाधि की बात कर रहा है?

उत्तर:

कवि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की समाधि के बारे में बात कर रहा है। उसने रानी लक्ष्मीबाई को मर्दानी इसलिए कहा है क योंकि रानी ने महिला होकर पुरुष वीर योद्धा की भाँति युद्ध किया और लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त की।


प्रश्नः (ख)

अंतिम लीला-स्थली किसे कहा गया है और क्यों?

उत्तर:

अंतिम लीला-स्थली समाधि के आस-पास के उस स्थल को कहा गया है, जहाँ रानी लक्ष्मीबाई का अंग्रेजों के साथ भीषण युद्ध हुआ था। यहीं रानी को वीरगति मिली थी। यह रानी का अंतिम युद्ध था, इसलिए उसे अंतिम लीला-स्थली कहा गया है।


प्रश्नः (ग)

वीर का मान कब बढ़ जाता है?

उत्तर:

वीर का मान तब बढ़ जाता है जब वह अपने देश की रक्षा के लिए युदध करते-करते वह अपना बलिदान दे देता है। उसका यह बलिदान देशवासियों में देशभक्ति और देशभक्ति की भावना जगाते है। इससे दूसरे लोग भी अपने देश के लिए कुछ कर गुज़रने के लिए प्रेरित हो उठते हैं।


(7) बजता है समय अधीर पथिक,

मैं नहीं सदाएँ देती हूँ

हूँ पड़ी राह से अलग, भला

किस राही का क्या लेती हूँ?


मैं भी न जान पायी अब तक,

क्यों था मेरा निर्माण हुआ?

सूखी लकड़ी के जीवन का

जाने सर्बस क्यों गान हुआ?


जाने किसकी दौलत हूँ मैं

अनजान, गाँठ से गिरी हुई।

जानें किसका हूँ स्वप्न

ना जानें किस्मत किसकी फिरी हुई।


तुलसी के पत्ते चले गये

पूजोपहार बन जाने को।

चंदन के फूल गये जग में

अपना सौरभ फैलाने को।


जो दूब पड़ोसिन है मेरी,

वह भी मंदिर में जाती है।

पूजती कृषक-वधुएँ आकर,

मिट्टी भी आदर पाती है।


बस, एक अभागिन हूँ जिसका

कोई न कभी भी आता है।

झंझा से लेकर काल-सर्प तक

मुझको छेड़ बजाता है।


प्रश्नः (क)

बाँसुरी अब तक क्या नहीं जान पाई? वह ‘सूखी लकड़ी के जीवन का’ के माध्यम से क्या कहना चाहती है? \

उत्तर:

बाँसुरी अब तक यह नहीं जान पाई कि इस दुनिया में उसे क्यों बनाया गया है ? ‘सूखी लकड़ी के जीवन का’ के माध्यम से वह यह कहना चाहती है कि बाँस से बनी बाँसुरी को जब वादक मधुर स्वर फूंककर बजाता है तो उस सूखी लकड़ी में भी जीवन आ जाता है। वह प्राणवान हो जाती है।


प्रश्नः (ख)

बासुरी को अपनी किस्मत और तुलसी-चंदन में क्या अंतर दिखाई देता है ?

उत्तर:

रास्ते में पड़ी बाँसुरी सोचती है कि वह न जाने किसकी अनजान दौलत है जो किसी की गाँठ से गिर गई हूँ। मुझे उठाने वाला कोई नहीं है, जबकि तुलसी के पत्ते पूजा बनने और चंदन के फूल अपनी महक लुटाने के लिए चले गए हैं। ऐसा बाँसुरी को किस्मत के कारण लगता है।


प्रश्नः (ग)

इस कविता में दुख का भाव किस प्रकार व्यक्त होता है?

उत्तर:

बाँसुरी का दुख यह है कि जंगल के अन्य सभी पेड़-पौधे यहाँ तक कि मिट्टी भी आदर का पात्र समझी जाती है पर बाँसुरी उपेक्षित पड़ी रहती है और उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता है।


(8) नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर हैं,

सूर्य चंद्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है,

नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडल है,

बदीजन खग-वृंद, शेषफन सिंहासन है

करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेश की

हे मातृभूमि! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की;

जिसकी रज में लोट-लोटकर बड़े हुए हैं,

घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं,

परमहंस सम बाल्यकाल में सब, सुख पाए,

जिसके कारण ‘धूल भरे हीरे कहलाए,

हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में

हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हो मोद में


निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है,

शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है,

षट्ऋतुओं का विविध दृश्य युत अद्भुत क्रम है,

हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है,

शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चंद्रप्रकाश है

हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है

जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,

उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे,

लोट-लोट कर वहीं हृदय को शांत करेंगे

उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे,

उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जाएंगे

होकर भव-बंधन-मुक्त हम, आत्मरूप बन जाएँगे।


प्रश्नः (क)

कवि अपने देश पर क्यों बलिहारी जाता है?

उत्तर:

कवि अपने देश पर इसलिए बलिहारी जाता है क्योंकि इस देश का प्राकृतिक सौंदर्य अनुपम, अतुलनीय है। यहाँ वातावरण में चारों ओर हरियाली फैली हैं। यहाँ की नदियाँ जीवनदायिनी है तथा सागर हमें अमूल्य संपदा प्रदान करता है।


प्रश्नः (ख)

कवि अपनी मातृभूमि के जल और वायु की क्या-क्या विशेषता बताता है?

उत्तर:

कवि अपनी मातृभूमि के जल की विशेषता बताता है कि अत्यंत शीतल स्वच्छ और अमृत के समान है। इसी तरह यहाँ की वायु मंद, सुगंधित और शीतलतायुक्त है जो सारी थकान हर लेती है।


प्रश्नः (ग)

मातृभूमि को ईश्वर का साकार रूप किस आधार पर बताया गया है?

उत्तर:

हमारी मातृभूमि ईश्वर का साकार रूप है क्योंकि सूर्य एवं चाँद इसके मुकुट के समान तथा शेषनाग का फल इसके सिंहासन जैसा है। बादल निरंतर इसका अभिषेक करते हैं और पक्षियों का समूह इसके यश का गुणगान करता है।


(9) सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुरगान

जगती के मन का खींच-खींच

निज छवि के रस से सींच-सींच

जेल कन्याएँ भोली अजान,


सागर के उर पर नाच-नाच करती है लहरें मधुरगान

प्रातः समीर से हो अधीर,


सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुरगान

करतल गत कर नभ की विभूति

पाकर शशि से सुषमानुभूति

तारांवलि-सी मृदु दीप्तिमान,


सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुरगान

तन पर शोभित नीला दुकूल

हैं छिपे हृदय में भाव फूल


छूकर पल-पल उल्लसित तीर,

कुसुमावलि-सी पुलकित महान,


सागर के उर पर नाच-नाच करती है लहरें मधुरगान

संध्या से पाकर रूचि रंग

करती सी शत सुर-चाप भंग

हिलती नव तरु-दल के समान,


आकर्षित करती हुई ध्यान,


सागर के उर पर नाच-नाच करती हैं लहरें मधुरगान

हैं कभी मुदित, हैं कभी खिन्न,

हैं कभी मिली, हैं कभी भिन्न,

हैं एक सूत्र में बँधे प्राण

सागर के उर पर नाच-नाच, करती हैं लहरें मधुरगान।


प्रश्नः (क)

जल कन्याएँ किन्हें कहा गया है? वे क्या कर रही हैं?

उत्तर:

जल कन्याएँ सागर की लहरों को कहा गया है। ये जल कन्याएँ अपनी सुंदरता से लोगों का मन अपनी ओर खींच रही हैं और सागर के हृदय पर मधुर गीत गाती फिर रही हैं।


प्रश्नः (ख)

प्रातः कालीन वायु का लहरों पर क्या असर हुआ है? उनके क्रिया कलाप को संक्षेप में लिखिए।

उत्तर:

प्रातः कालीन वायु का स्पर्श पाकर लहरें अधीर हो उठी हैं। वे खुशी-खुशी किनारों को छूकर लौट जाती हैं। दूर से आती लहरों को देखकर ऐसा लगता है जैसे फूलों की बड़ी-सी कतार चली आ रही हैं। ये लहरें आनंदपूर्वक सागर के हृदय पर गान कर रही हैं।


प्रश्नः (ग)

लहरों का वस्त्र कैसा है? वे हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए क्या कर रही हैं?

उत्तर:

लहरों का वस्त्र नीला है। वे अपने हृदय में नाना प्रकार के भाव छिपाए, मधुर गीत गाती हुई सागर के सीने पर नाचती फिर रही हैं। इस तरह अपनी सुंदरता से लहरें हमारा ध्यान अपनी ओर खींच रही हैं।


(10) अंत समय आ गया पास था

उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी।


धीरे-धीरे चला अकेले

सोचा साथ किसी को ले ले

फिर रह गया, सड़क पर सब थे

सभी मौन थे सही निहत्थे

सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी।


खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर


दोनों हाथ पेट पर रख कर

सधे कदम रख करके आए

लोग सिमट कर आँख गड़ाए

लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी।


निकल गली से तब हत्यारा

आया उसने नाम पुकारा

हाथ तौलकर चाकू मारा

छूटा लोहू का फव्वारा

कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी?


प्रश्नः (क)

रामदास के उदासी का क्या कारण था?

उत्तर: रामदास की उदासी का कारण यह था कि उसे पता चल गया था कि उसका अंत समय आ गया है। उसे यह भी बता दिया गया था कि उसकी हत्या कर दी जाएगी। अपनी मृत्यु को अवश्यंभावी जानकर वह बहुत उदास था।


प्रश्नः (ख)

रामदास अपने साथ किसी को लेते-लेते क्यों रुक गया।

उत्तर: रामदास अपने साथ किसी को लेते-लेते इसलिए रुक गया था क्योंकि उसे पता था कि सड़क पर अकेला नहीं होगा। सड़क पर और भी बहुत से लोग होंगे जो उसे बचाने आगे आएँगे। इस तरह उसकी हत्या नहीं होने पाएगी।


प्रश्नः (ग)

सड़क पर हत्या होने से क्या मतलब है? इससे समाज के बारे में क्या पता चलता है?

उत्तर:

सड़क पर हत्या होने का मतलब है-हत्यारों को किसी का भय न होना तथा शहर में कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज़ न होना। इससे समाज के बारे में यह पता चलता है कि लोग कितने संवेदनहीन हो चुके हैं। भय और आतंक के कारण उनकी संवेदना मर गई है।


(11) आज तक मैं यह समझ नहीं पाया

कि हर साल बाढ़ में पड़ने के बाद भी

लोग दियारा छोड़कर कोई दूसरी जगह क्यों नहीं जाते?

समुद्र में आता है तूफ़ान

तटवर्ती सारी बस्तियों को पोंछता

वापस लौट जाता है

और दूसरे ही दिन तट पर फिर

बस जाते हैं गाँव –

क्यों नहीं चले जाते ये लोग कहीं और?

हर साल पड़ता है सूखा

हरियरी की खोज में चलते हुए गौवों के खुर

धरती की फाँट में फँस-फँस जाते हैं

फिर भी कौन इंतज़ार में आदमी


बैठा रहता है द्वार पर,

कल भी आएगी बाढ़

कल भी आएगा तूफ़ान

कल भी पड़ेगा अकाल

आज तक मैं समझ नहीं पाया

कि जब वृक्ष पर एक भी पत्ता नहीं होता

झड़ चुके हैं सारे पत्ते

तो सूर्य डूबते-डूबते

बहुत दूर से चीत्कार करता

पंख पटकता

लौटता है पक्षियों का एक दल

उसी दूंठ वृक्ष के घोसलों में

क्यों? आज तक मैं समझ नहीं पाया।


प्रश्नः (क)

दियारा के संबंध में लोगों की किस स्वाभाविक विशेषता का उल्लेख है ? इससे क्या प्रकट होता है?

उत्तर:

दियारा अर्थात् नदी के किनारे के निचले क्षेत्र जहाँ प्रतिवर्ष बाढ़ आती है और वहाँ की फ़सलें, धन-धान्य और घर तबाह कर जाती है फिर भी लोग उसे छोड़कर अन्यत्र जाकर नहीं बसते हैं। इससे दियारा के प्रति लोगों का स्वाभाविक लगाव प्रकट होता है।


प्रश्नः (ख)

तूफ़ान आने के बाद तटीय इलाकों की स्थिति कैसी हो जाती है पर उनमें शीघ्र क्या बदलाव दिखाई देता है?

उत्तर:

तूफ़ान आने से तटीय इलाकों की स्थिति बदहाल हो जाती है। वहाँ पेड़-पौधे घर-मकान, रोजी-रोटी के साधन सभी कुछ नष्ट हो जाते हैं पर अगले दिन से ही वहाँ जन-जीवन सामान्य होने लगता है और फिर से सब कुछ पहले जैसा हो जाता है।


प्रश्नः (ग)

गायों के खुर कहाँ फँस जाते हैं और क्यों?

उत्तर:

गायों के खुर उन दरारों में फट जाते हैं जो धरती फटने से बनी हैं। भयंकर सूखे के कारण धरती में दरारें पड़ गईं है। गाएँ

हरी-हरी घास की तलाश में इधर-उधर भटक रही थी और उनका खुर इन दरारों में फँस गया।


(12) कितने ही कटुतम काँटे तुम मेरे पथ पर आज बिछाओ,

और अरे चाहे निष्ठुर कर का भी धुंधला दीप बुझाओ।

किंतु नहीं मेरे पग ने पथ पर बढ़कर फिरना सीखा है।

मैंने बस चलना सीखा है।

कहीं छुपा दो मंज़िल मेरी चारों ओर निमिर-घन छाकर,

चाहे उसे राख कर डालो नभ से अंगारे बरसाकर,


पर मानव ने तो पग के नीचे मंज़िल रखना सीखा है।

मैंने बस चलना सीखा है।

कब तक ठहर सकेंगे मेरे सम्मुख ये तूफ़ान भयंकर

कब तक मुझसे लड़ा पाएगा इंद्रराज का वज्र प्रखरतर

मानव की ही अस्थिमात्र से वज्रों ने बनना सीखा है।

मैंने बस चलना सीखा है।


प्रश्नः (क)

मानव के सामने क्या नहीं टिक पाता और क्यों?

उत्तर:

मानव के सामने भयंकर से भयंकर तूफ़ान भी नहीं टिक पाता है क्योंकि मनुष्य अपने अदम्य साहस व शक्ति के बल पर निडरता पूर्वक तूफ़ान से संघर्ष करता है और उस पर विजय पाता है।


प्रश्नः (ख)

साहसी मानव की मंजिल कहाँ रहती है और क्यों?

उत्तर:

साहसी मनुष्य की मंजिल उसके पैरों तले रहती है। उसकी इच्छा शक्ति के सामने प्राकृतिक आपदाएँ भी शरमा जाती हैं। वह अपनी मंजिल को अंधकार में से भी ढूँढ़कर निकाल लेता है।


प्रश्नः (ग)

‘अस्थिमात्र से वज्र बनना’ इस पंक्ति से किस कथा की ओर संकेत किया गया है।

उत्तर:

‘अस्थिमात्र से वज्र बनना’ इस पंक्ति से ऋषि दधीचि द्वारा मानवता की भलाई के लिए अपनी हड्डियाँ तक दान दे देने की ओर संकेत किया गया है। उनकी हड्डियों से बने वज्र द्वारा वृत्तासुर नामक राक्षस का वध किया गया था।


(13) जब गीतकार मर गया, चाँद रोने आया,

चाँदनी मचलने लगी कफ़न बन जाने को।

मलयानिल ने शव को कंधों पर उठा लिया,

वन ने भेजे चंदन-श्रीखंड जलाने को।


सूरज बोला, यह बड़ी रोशनीवाला था,

मैं भी न जिसे भर सका कभी उजियाली से,

रँग दिया आदमी के भीतर की दुनिया को

इस गायक ने अपने गीतों की लाली से!


बोला बूढ़ा आकाश ध्यान जब यह धरता,

मुझ में यौवन का नया वेग जग जाता था।

इसके चिंतन में डुबकी एक लगाते ही,

तन कौन कहे, मन भी मेरा रंग जाता था।


देवों ने कहा, बड़ा सुख था इसके मन की

गहराई में डूबने और उतराने में।

माया बोली, मैं कई बार थी भूल गयी

अपने को गोपन भेद इसे बतलाने में।


योगी था, बोला सत्य, भागता मैं फिरता,

यह जाल बढ़ाये हुए दौड़ता चलता था।

जब-जब लेता यह पकड़ और हँसने लगता,

धोखा देकर मैं अपना रूप बदलता था।


मर्दो को आयीं याद बाँकपन की बातें,

बोले, जो हो, आदमी बड़ा अलबेला था।

जिस के आगे तूफ़ान अदब से झुकते हैं,

उसको भी इसने अहंकार से झेला था।


प्रश्नः (क)

गीतकार के मरने पर उसकी अंत्येष्टि में किसने क्या-क्या योगदान दिया?

उत्तर:

गीतकार के मर जाने पर चाँद विलाप करने आया, चाँदनी उसका कफ़न बन जाना चाहती थी। मलय पर्वत से चलने वाली शीतल हवाओं ने उसे कंधे पर उठा लिया और कवि को जलाने के लिए जंगल ने चंदन और श्री खंड की लकड़ियाँ भेज दीं।


प्रश्नः (ख)

गीतकार के गीतों से आकाश किस तरह प्रभावित था?

उत्तर:

गीतकार के गीतों से आकाश बहुत ही प्रभावित था। कवि(गीतकार) के गीत सुनकर वह जवान हो जाता था। वह बाहर और भीतर से ऊर्जावान महसूस करने लगता है। कवि के बारे में सोचते हुए आकाश उसके गुणों में खो जाता था।


प्रश्नः (ग)

मर्दो ने गीतकार की किस तरह प्रशंसा की?

उत्तर:

मर्दो ने गीतकार की प्रशंसा करते हुए कहा कि गीतकार बड़ा ही अलबेला आदमी था। जिसके आगे तूफ़ान भी झुकते थे उसको भी इस व्यक्ति ने गर्व के साथ झेला था। इस तरह कवि बहुत ही सहनशील और स्वाभिमानी व्यक्ति था।


(14) माँ अनपढ़ थीं

उसके लेखे

काले अच्छर भैंस बराबर

थे नागिन-से टेढ़े-मेढ़े

नहीं याद था

उस श्लोक स्तुति का कोई भी

नहीं जानती थी आवाहन

दुर्बल तन वृद्धावस्था का या कि विसर्जन देवी माँ का

नहीं वक्त था

ठाकुरवारी या शिवमंदिर जाने का भी

तो भी उसकी तुलसी माई

नित्य सहेज लिया करती थीं

निश्छल करुण अश्रु गीतों में

लिपटे-गुंथे दर्द को माँ के।


अकस्मात् बीमार हुई माँ

चौका-बासन गोबर-गोंइठा ओरियाने में

सुखवन लाने-ले जाने में

भीगी थीं सारे दिन जमकर

ऐसा चढ़ा बुखार

न उतरा अंतिम क्षण तक

झेल नहीं पाया प्रकोप

ज्वर का अतिभीषण

लकवा मारा, देह समूची सुन्न हो गई,

गल्ले वाले घर की चाभी

पहुँच गई ग्रेजुएट भाभी के

तार चढे मखमली पर्स में।


प्रश्नः (क)

‘काले अच्छर भैंस बराबर’ किसके लिए प्रयुक्त है और क्यों?

उत्तर:

‘काले अच्छर भैंस बराबर’ का प्रयोग कवि ने अपनी माँ के लिए किया है, क्योंकि उसकी माँ बिलकुल निरक्षर थी। वह अक्षर भी नहीं पहचानती थी।


प्रश्नः (ख)

‘माँ’ को मंदिर जाने का समय क्यों नहीं मिलता था?

उत्तर:

माँ को मंदिर जाने का समय नहीं मिलता था क्योंकि वह रसोई के कामों के अलावा गोबर के उपले बनाने, अनाज सुखाने साफ़ करने में सारा दिन व्यस्त रहती थी।


प्रश्नः (ग)

माँ किसकी पूजा करती थी? वह उसे क्या अर्पित करती थी?

उत्तर:

माँ तुलसी माई की पूजा करती थी। वह अपने दुखों को आँसुओं में लपेटकर निश्छल भाव से तुलसी माई को अर्पित कर दिया करती थी।


(15) निम्नलिखित काव्यांश को पढ़कर प्रश्नों के उत्तर दीजिए-


अहसहाय किसानों की किस्मत को खेतों में, क्या जल में बह जाते देखा है?

क्या खाएँगे? यह सोच निराशा से पागल, बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?

देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को, जिनकी आभा पर धूल अभी तक छाई है?

रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक रेशम क्या, साड़ी सही नहीं चढ़ पाई है।

पर तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले, क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे,

जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?

चिन्ता हो भी क्यों तुम्हें, गाँव के जलने से, दिल्ली में तो रोटियाँ नहीं कम होती हैं।

धुलता न अश्रु-बूंदों से आँखों से काजल, गालों पर की धूलियाँ नहीं नम होती हैं।

जलते हैं ये गाँव देश के जला करें, आराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी,

या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल, या आँधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी,

या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल, या आँधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी।

चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर, दिल्ली, लेकिन, ले रही लहर पुरवाई में,

है विकल देश सारा अभाव के तापों से, दिल्ली सुख से सोई है नरम रजाई में।


प्रश्नः (क)

राजधानी में और ग्रामीण भारत में क्या अंतर है?

उत्तर:

राजधानी में नाना प्रकार की सुख-सुविधाएँ हैं। लोग इस सुख सुविधाओं का आनंद उठा रहे हैं जबकि दूसरी ओर ग्रामीण भारत में अनेक प्रकार के कष्ट हैं जिन्हें भोगते हुए ग्रामीण जी रहे हैं।


प्रश्नः (ख)

किसान और रंभाओं को देखकर कवि दुखी थ्यों होता है ?

उत्तर:

कवि देखता है कि किसानों की फ़सल बाढ़ में बह गई है। फ़सल बहने से किसान असहाय दुखी और परेशान हैं। इसी तरह ग्रामीण नवयुवतियाँ सौंदर्य की मूर्ति तो हैं पर उनके पास पूरा तन ढंकने को वस्त्र नहीं है। यह देखकर कवि दुखी होता है।


प्रश्नः (ग)

दिल्ली वासियों की हृदयहीनता को कवि ने किस तरह उभारा है?

उत्तर:

दिल्लीवासियों की हृदयहीनता को कवि ने उभारते हुए कहा है कि वे ग्रामीणों के दुख के बारे में नहीं सोचते हैं। गाँव वालों को दुखमुक्त करने के बारे में वे बिलकुल नहीं सोचते हैं। वे गाँव वालों का उपजाया अन्न खाते हैं पर उनकी चिंता नहीं करते हैं।

निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –


(1) गंगा भारत की एक अत्यन्त पवित्र नदी है जिसका जल काफ़ी दिनों तक रखने के बावजूद अशुद्ध नहीं होता जबकि साधारण जल कुछ दिनों में ही सड़ जाता है। गंगा का उद्गम स्थल गंगोत्री या गोमुख है। गोमुख से भागीरथी नदी निकलती है और देवप्रयाग नामक स्थान पर अलकनंदा नदी से मिलकर आगे गंगा के रूप में प्रवाहित होती है। भागीरथी के देवप्रयाग तक आते-आते इसमें कुछ चट्टानें घुल जाती हैं जिससे इसके जल में ऐसी क्षमता पैदा हो जाती है जो उसके पानी को सड़ने नहीं देती।



 

हर नदी के जल में कुछ खास तरह के पदार्थ घुले रहते हैं जो उसकी विशिष्ट जैविक संरचना के लिए उत्तरदायी होते हैं। ये घुले हुए पदार्थ पानी में कुछ खास तरह के बैक्टीरिया को पनपने देते हैं तो कुछ को नहीं। कुछ खास तरह के बैक्टीरिया ही पानी की सड़न के लिए उत्तरदायी होते हैं तो कुछ पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को रोकने में सहायक होते हैं। वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि गंगा के पानी में भी ऐसे बैक्टीरिया हैं जो गंगा के पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को पनपने ही नहीं देते इसलिए गंगा का पानी काफ़ी लंबे समय तक खराब नहीं होता और पवित्र माना जाता है।


हमारा मन भी गंगा के पानी की तरह ही होना चाहिए तभी वह निर्मल माना जाएगा। जिस प्रकार पानी को सड़ने से रोकने के लिए उसमें उपयोगी बैक्टीरिया की उपस्थिति अनिवार्य है उसी प्रकार मन में विचारों के प्रदूषण को रोकने के लिए सकारात्मक विचारों के निरंतर प्रवाह की भी आवश्यकता है। हम अपने मन को सकारात्मक विचार रूपी बैक्टीरिया द्वारा आप्लावित करके ही गलत विचारों को प्रविष्ट होने से रोक सकते हैं। जब भी कोई नकारात्मक विचार उत्पन्न हो सकारात्मक विचार द्वारा उसे समाप्त कर दीजिए।


प्रश्नः (क)

गंगा के जल और साधारण पानी में क्या अंतर है?

उत्तर:

गंगा का जल पवित्र माना जाता है। यह काफी दिनों तक रखने के बाद भी अशुद्ध नहीं होता है। इसके विपरीत साधारण जल कुछ ही दिन में खराब हो जाता है।



 

प्रश्नः (ख)

गंगा के उद्गम स्थल को किस नाम से जाना जाता है? इस नदी को गंगा नाम कैसे मिलता है?

उत्तर:

गंगा के उद्गम स्थल को गंगोत्री या गोमुख के नाम से जाना जाता है। वहाँ यह भागीरथी नाम से निकलती है। देवप्रयाग मेंयह अलकनंदा से मिलती है तब इसे गंगा नाम मिलता है।


प्रश्नः (ग)

भागीरथी से देव प्रयाग तक का सफ़र गंगा के लिए किस तरह लाभदायी सिद्ध होता है?

उत्तर:

भागीरथी से देवप्रयाग तक गंगा विभिन्न पहाड़ों के बीच बहती है जिससे इसमें कुछ चट्टानें धुल जाती हैं। इससे गंगा का जल दीर्घ काल तक सड़ने से बचा रहता है। इस तरह यह सफ़र गंगा के लिए लाभदायी सिद्ध होता है।


प्रश्नः (घ)

बैक्टीरिया ही पानी में सड़न पैदा करते हैं और बैक्टीरिया ही पानी की सड़न रोकते हैं, कैसे? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

कुछ खास किस्म के बैक्टीरिया ऐसे होते हैं जो पानी में सड़न पैदा करते हैं और कुछ बैक्टीरिया इन बैक्टीरिया को रोकने का काम करते हैं। गंगा के पानी में सड़न रोकने वाले बैक्टीरिया इनको पनपने से रोककर पानी सड़ने से बचाते हैं।



 

प्रश्नः (ङ)

मन को निर्मल रखने के लिए क्या उपाय बताया गया है?

उत्तर:

मन को निर्मल रखने के लिए विचारों का प्रदूषण रोकना चाहिए। इसके लिए मन में सकारात्मक विचार प्रवाहित होना चाहिए। मन में नकारात्मक विचार आते ही उसे सकारात्मक विचारों द्वारा नष्ट कर देना चाहिए।


(2) वर्तमान सांप्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में संत-साहित्य की उपादेयता बहुत है। संतों में शिरोमणि कबीर दास भारतीय धर्मनिरपेक्षता के आधार पुरुष हैं। संत कबीर एक सफल साधक, प्रभावशाली उपदेशक, महा नेता और युग-द्रष्टा थे। उनका समस्त काव्य विचारों की भव्यता और हृदय की तन्मयता तथा औदार्य से परिपूर्ण है। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को और भारतीय धर्म निरपेक्षता के आधार को युग-युगान्तर के लिए अमरता प्रदान की। कबीर ने धर्म को मानव धर्म के रूप में देखा था। सत्य के समर्थक कबीर हृदय में विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति लेकर अवतरित हुए थे। उन्होंने लोक-कल्याण कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य-रचना की।


वे पाठशाला या मकतब की देहरी से दूर जीवन के विद्यालय में ‘मसि कागद छुयो नहिं’ की दशा में जीकर सत्य, ईश्वर विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर अनुभूति मूलक ज्ञान का प्रसार कर रहे थे। कबीर ने समाज में फैले हुए मिथ्याचारों और कुत्सित भावनाओं की धज्जियाँ उड़ा दीं। स्वकीय भोगी हुई वेदनाओं के आक्रोश से भरकर समाज में फैले हुए ढोंग और ढकोसलों, कुत्सित विचारधाराओं के प्रति दो टूक शब्दों में जो बातें कहीं, उनसे समाज की आँखें फटी की फटी रह गईं और साधारण जनता उनकी वाणियों से चेतना प्राप्त कर उनकी अनुगामिनी बनने को बाध्य हो उठी। देश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान वैयक्तिक जीवन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न संत कबीर ने किया।



 

प्रश्नः (क)

आज संत-साहित्य को उपयोगी क्यों माना गया है?

उत्तर:

आज संत साहित्य को इसलिए उपयोगी माना जाता है क्योंकि संतों के साहित्य में विचारों की भव्यता, हृदय की तन्मयता और धार्मिक उदारता है जो आज के सांप्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में अत्यंत उपयोगी है।


प्रश्नः (ख)

संत-शिरोमणि किसे माना गया है और क्यों?

उत्तर:

संत शिरोमणि कबीर को माना गया है क्योंकि वे किसी धर्म के कट्टर समर्थक न होकर सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव रखते थे। वे भारतीय धर्म-निरपेक्षता के आधार पुरुष थे जो धार्मिक भेदभाव से कोसों दूर रहते थे।


प्रश्नः (ग)

कबीर के व्यक्तित्व एवं काव्य की क्या विशेषता थी?

उत्तर:

कबीर के व्यक्तित्व की विशेषता थी सत्य का समर्थन, हृदय में अगाध विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति। उनकी काव्य रचना की विशेषता थी- लोक कल्याण की कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य-सृजन। इससे कबीर को खूब प्रसिद्धि मिली।


प्रश्नः (घ)

सामान्य जनता कबीर की वाणी को मानने को क्यों बाध्य हो गई?

उत्तर:

कबीर की वाणी में अभूतपूर्व शक्ति थी। वे सत्य, प्रेम, ईश्वर विश्वास, अहिंसा धर्मनिरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ा रहे थे। वे समाज में फैले मिथ्याचारों और कुत्सित विचारों पर कड़ा प्रहार कर रहे थे। यह देख सामान्य जनता उनकी वाणी मानने को बाध्य हो गई।


प्रश्नः (ङ)

अपने जीवन के माध्यम से कबीर ने किन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया?

उत्तर:

कबीर ने अपने जीवन के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियाँ, धार्मिक कट्टरता मिथ्याचार, वाह्याडंबर, ढकोसलों के अलावा देश की धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक सभी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया।


(3) सुखी, सफल और उत्तम जीवन जीने के लिए किए गए आचरण और प्रयत्नों का नाम ही धर्म है। देश, काल और सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से संसार में भारी विविधता है, अतएव अपने-अपने ढंग से जीवन को पूर्णता की ओर ले जाने वाले विविध धर्मों के बीच भी ऊपर से विविधता दिखाई देती है। आदमी का स्वभाव है कि वह अपने ही विचारों और जीने के तौरतरीकों को तथा अपनी भाषा और खानपान को सर्वश्रेष्ठ मानता है तथा चाहता है कि लोग उसी का अनुसरण और अनुकरण करें, अतएव दूसरों से अपने धर्म को श्रेष्ठतर समझते हुए वह चाहता है कि सभी लोग उसे अपनाएँ। इसके लिए वह ज़ोरज़बर्दस्ती को भी बुरा नहीं समझता।


धर्म के नाम पर होने वाले जातिगत विद्वेष, मारकाट और हिंसा के पीछे मनुष्य की यही स्वार्थ-भावना काम करती है। सोच कर देखिए कि आदमी का यह दृष्टिकोण कितना सीमित, स्वार्थपूर्ण और गलत है। सभी धर्म अपनी-अपनी भौगोलिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आवश्यकताओं के आधार पर पैदा होते, पनपते और बढ़ते हैं, अतएव उनका बाह्य स्वरूप भिन्न-भिन्न होना आवश्यक और स्वाभाविक है, पर सबके भीतर मनुष्य की कल्याण-कामना है, मानव-प्रेम है। यह प्रेम यदि सच्चा है, तो यह बाँधता और सिकोड़ता नहीं, बल्कि हमारे हृदय और दृष्टिकोण का विस्तार करता अपठित गद्यांश है, वह हमें दूसरे लोगों के साथ नहीं, समस्त जीवन-जगत के साथ स्पष्ट है कि ऊपर से भिन्न दिखाई देने वाले सभी धर्म अपने मूल में मानव-कल्याण की एक ही मूलधारा को लेकर चले और चल रहे हैं।


हम सभी इस सच्चाई को जानकर भी जब धार्मिक विदवेष की आँधी में बहते हैं, तो कितने दुर्भाग्य की बात है! उस समय हमें लगता है कि चिंतन और विकास के इस दौर में आ पहुँचने पर भी मनुष्य को उस जंगली-हिंसक अवस्था में लौटने में कुछ भी समय नहीं लगता; अतएव उसे निरंतर यह याद दिलाना होगा कि धर्म मानव-संबंधों को तोड़ता नहीं, जोड़ता है इसकी सार्थकता प्रेम में ही है।


प्रश्नः (क)

गदयांश के आधार पर बताइए कि धर्म क्या है और इसकी मुख्य विशेषता क्या है?

उत्तर:

धर्म मनुष्य द्वारा किए उन आवरण और प्रयत्नों का नाम है जिन्हें वह अपना जीवन सफल, सुखी एवं उत्तम बनाने के लिए करता है। धर्म की मुख्य विशेषता इसकी विविधता है।


प्रश्नः (ख)

विविध धर्मों के बीच विविध प्रकार की मान्यताओं के क्या कारण हैं? इन विविधताओं के बावजूद मनुष्य क्यों चाहता है कि लोग उसी की धार्मिक मान्यताओं को अपनाएँ? ।

उत्तर:

विविध धर्मों के बीच विविध प्रकार की मान्यताओं का कारण मनुष्य के द्वारा जीवन जीने का ढंग है। वह अपने विचार, जीवन जीने के तरीके, भाषा, खानपान आदि को श्रेष्ठ मानता है, इसलिए वह चाहता है कि लोग उसी की धार्मिक मान्यताएँ अपनाएँ।


प्रश्नः (ग)

अपनी धार्मिक मान्यताएँ दूसरों पर थोपना क्यों हितकर नहीं होता?

उत्तर:

अपनी धार्मिक मान्यताओं को अच्छा समझते हुए व्यक्ति इन्हें दूसरों पर थोपना चाहता है। इसके लिए वह ज़ोर-जबरदस्ती का सहारा लेता है। इससे जातीय विद्वेष, मारकाट और हिंसा फैलती है जो हितकारी नहीं होती।


प्रश्नः (घ)

धर्मों के बाह्य स्वरूप में भिन्नता होना क्यों स्वाभाविक है? धर्म का मूल लक्ष्य क्या होना चाहिए?

उत्तर:

धर्मों के पैदा होने, पनपने फलने-फूलने की भौगोलिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आवश्यकताएँ अलग-अलग होती हैं। अत: उनके बाह्य स्वरूप में भिन्नता होना स्वाभाविक है। धर्म का मूल लक्ष्य मानव कल्याण होना चाहिए।


प्रश्नः (ङ)

गद्यांश के आधार पर बताइए कि धर्म की मूल भावना क्या है? वह अपनी मूल भावना को कैसे बनाए हुए हैं?

उत्तर:

गद्यांश से ज्ञात होता है कि धर्म की मूल भावना है- हृदय और दृष्टिकोण का विस्तार करते हुए मानव कल्याण करना तथा इसे समस्त जीवन जगत के साथ जोड़ना। ऊपर से भिन्न दिखाई देने वाले धर्म अपने मूल में मानव कल्याण का लक्ष्य अपने में समाए हुए हैं।


4 धरती का स्वर्ग श्रीनगर का ‘अस्तित्व’ डल झील मर रही है। यह झील इंसानों के साथ-साथ जलचरों, परिंदों का घरौंदा हुआ करती थी। झील से हज़ारों हाथों को काम और लाखों को रोटी मिलती थी। अपने जीवन की थकान, मायूसी और एकाकीपन को दूर करने, देश-विदेश के लोग इसे देखने आते थे।


यह झील केवल पानी का एक स्रोत नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों की जीवन-रेखा है, मगर विडंबना है कि स्थानीय लोग इसको लेकर बहुत उदासीन हैं।


समुद्र-तल से पंद्रह सौ मीटर की ऊँचाई पर स्थित डल एक प्राकृतिक झील है और कोई पचास हज़ार साल पुरानी है। श्रीनगर शहर के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी दिशा में स्थित यह जल-निधि पहाडों के बीच विकसित हई थी। सरकारी रिकार्ड गवाह है कि 1200 में इस झील का फैलाव पचहत्तर वर्ग किलोमीटर में था। 1847 में इसका क्षेत्रफल अड़तालीस वर्ग किमी आँका गया। 1983 में हुए माप-जोख में यह महज साढ़े दस वर्ग किमी रह गई। अब इसमें जल का फैलाव आठ वर्ग किमी रह गया है। इन दिनों सारी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग का शोर है और लोग बेखबर हैं कि इसकी मार इस झील पर भी पड़ने वाली है।


इसका सिकुड़ना इसी तरह जारी रहा तो इसका अस्तित्व केवल तीन सौ पचास साल रह सकता है।


इसके पानी के बड़े हिस्से पर अब हरियाली है। झील में हो रही खेती और तैरते बगीचे इसे जहरीला बना रहे हैं। सागसब्जियों में अंधाधुंध रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाएँ डाली जा रही हैं, जिससे एक तो पानी दूषित हो गया, साथ ही झील में रहने वाले जलचरों की कई प्रजातियाँ समूल नष्ट हो गईं।


आज इसका प्रदूषण उस स्तर तक पहुँच गया है कि कुछ वर्षों में ढूँढ़ने पर भी इसका समाधान नहीं मिलेगा। इस झील के बिना श्रीनगर की पहचान की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह भी तय है कि आम लोगों को झील के बारे में संवेदनशील और भागीदार बनाए बगैर इसे बचाने की कोई भी योजना सार्थक नहीं हो सकती है।


प्रश्नः (क)

डल झील को स्थानीय लोगों की जीवन रेखा क्यों कहा गया है?

उत्तर:

डल झील को स्थानीय लोगों की जीवन-रेखा इसलिए कहा गया है क्योंकि इस झील के सहारे चलने वाले अनेक कारोबार से लोगों को काम मिलता है और वे इसी के सहारे रोटी-रोजी कमाते हैं।


प्रश्नः (ख)

सरकारी रिकॉर्ड झील के सिकुड़ने की गवाही किस प्रकार देते हैं ?

उत्तर:

डल झील का फैलाव सन् 1200 में 75 वर्ग किमी में था। 1847 में इसका क्षेत्रफल 48 वर्ग किमी और 1983 में इसका क्षेत्रफल मात्र 10 वर्ग किमी बचा है। अब इसमें मात्र 8 वर्ग किमी पर पानी बचा है। इस तरह सरकारी रिकॉर्ड झील के सिकुड़ने की गवाही देते हैं।


प्रश्नः (ग)

ग्लोबल वार्मिंग क्या है? इसका झील पर क्या असर हो रहा है?

उत्तर:

पिछले कुछ वर्षों से धरती के औसत तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। इसे ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। धरती की गरमी बढ़ती जाने से जलाशय सूखते जा रहे हैं। इससे डल झील सूखकर सिकुड़ती जा रही है। यह डल झील के अस्तित्व के लिए खतरा है।


प्रश्नः (घ)

डल झील की खेती और बगीचे इसके सौंदर्य पर ग्रहण लगा रहे हैं, कैसे?

उत्तर:

डल झील पर तैरती खेती की जाती है और बगीचे उगाए जाते हैं। इससे अधिक से अधिक फ़सलें और फल पाने के लिए __ अंधाधुंध रासायनिक खादें और कीटनाशक डाले जा रहे हैं। इससे झील का पानी प्रदूषित हो रहा है और झील के जलचर मर रहे हैं। इस तरह यहाँ की जाने वाली खेती और बगीचे इसके सौंदर्य पर ग्रहण हैं।


प्रश्नः (ङ)

झील पर प्रदूषण का क्या असर होगा? इसके रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए?

उत्तर:

झील पर बढ़ते प्रदूषण का असर यह होगा कि इसका हल खोजना कठिन हो जाएगा। इसके दूषित पानी में रहने वाले जलचर समूल नष्ट हो जाएंगे। इसे रोकने के लिए ऐसे उपाय करने होंगे जिनमें आम लोगों को शामिल करके उन्हें संवेदनशील बनाया जाए और उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जाए।


(5) अच्छा नागरिक बनने के लिए भारत के प्राचीन विचारकों ने कुछ नियमों का प्रावधान किया है। इन नियमों में वाणी और व्यवहार की शुद्धि, कर्तव्य और अधिकार का समुचित निर्वाह, शुद्धतम पारस्परिक सद्भाव, सहयोग और सेवा की भावना आदि नियम बहुत महत्त्वपूर्ण माने गए हैं। ये सभी नियम यदि एक व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के रूप में भी अनिवार्य माने जाएँ तो उसका अपना जीवन भी सुखी और आनंदमय हो सकता है। इन सभी गुणों का विकास एक बालक में यदि उसकी बाल्यावस्था से ही किया जाए तो वह अपने देश का श्रेष्ठ नागरिक बन सकता है। इन गुणों के कारण वह अपने परिवार, आस-पड़ोस, विद्यालय में अपने सहपाठियों एवं अध्यापकों के प्रति यथोचित व्यवहार कर सकेगा।


वाणी एवं व्यवहार की मधुरता सभी के लिए सुखदायी होती है, समाज में हार्दिक सद्भाव की वृद्धि करती है किंतु अहंकारहीन व्यक्ति ही स्निग्ध वाणी और शिष्ट व्यवहार का प्रयोग कर सकता है। अहंकारी और दंभी व्यक्ति सदा अशिष्ट वाणी और व्यवहार का अभ्यास होता है। जिसका परिणाम यह होता है कि ऐसे आदमी के व्यवहार से समाज में शांति और सौहार्द का वातावरण नहीं बनता।


जिस प्रकार एक व्यक्ति समाज में रहकर अपने व्यवहार से कर्तव्य और अधिकार के प्रति सजग रहता है, उसी तरह देश के प्रति भी उसका व्यवहार कर्तव्य और अधिकार की भावना से भावित रहना चाहिए। उसका कर्तव्य हो जाता है कि न तो वह स्वयं कोई ऐसा काम करे और न ही दूसरों को करने दे, जिससे देश के सम्मान, संपत्ति और स्वाभिमान को ठेस लगे। समाज एवं देश में शांति बनाए रखने के लिए धार्मिक सहिष्णुता भी बहुत आवश्यक है। यह वृत्ति अभी आ सकती है जब व्यक्ति संतुलित व्यक्तित्व का हो।


प्रश्नः (क)

समाज एवं राष्ट्र के हित में नागरिक के लिए कैसे गुणों की अपेक्षा की जाती है?

उत्तर:

समाज एवं राष्ट्र के हित में नागरिक के लिए वाणी और व्यवहार की शुद्धि, कर्तव्य और अधिकार का समुचित निर्वाह, पारस्परिक सद्भाव, सहयोग और सेवा की भावना जैसे गुणों की अपेक्षा की जाती है।


प्रश्नः (ख)

चारित्रिक गुण किसी व्यक्ति के निजी जीवन में किस प्रकार उपयोगी हो सकते हैं?

उत्तर:

चारित्रिक गुणों से किसी व्यक्ति का निजी जीवन सुखी एवं आनंद मय बन जाता है। वह अपने परिवार, आस-पड़ोस और मिलने-जुलने वालों से यथोचित व्यवहार कर सकता है।


प्रश्नः (ग)

वाणी और व्यवहार की मधुरता सबके लिए सुखदायक क्यों मानी गई है?

उत्तर:

वाणी और व्यवहार की मधुरता सबके लिए सुखदायक मानी जाती है क्योंकि इससे समाज में हार्दिक सद्भाव में वृद्धि होती है। वह सबका प्रिय और सबके आदर का पात्र बन जाता है।


प्रश्नः (घ)

मधुर वाणी और शिष्ट व्यवहार कौन कर सकता है, कौन नहीं और क्यों?

उत्तर:

मधुर वाणी और शिष्ट व्यवहार का प्रयोग अहंकारहीन व्यक्ति ही कर सकता है, अहंकारी और दंभी व्यक्ति नहीं क्योंकि ऐसा व्यक्ति सदा अशिष्ट वाणी और व्यवहार को अभ्यासी होती है।


प्रश्नः (ङ)

देश के प्रति व्यक्ति का व्यवहार और कर्तव्य कैसा होना चाहिए? अपठित गद्यांश

उत्तर:

देश के प्रति व्यक्ति का व्यवहार कर्तव्य और अधिकार की भावना से भावित होना चाहिए। ऐसे में व्यक्ति का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह कोई ऐसा कार्य न करे और न दूसरों को करने दे, जो देश के सम्मान, संपत्ति और स्वाभिमान की भावनाको ठेस पहुँचाए।


(6) गत कुछ वर्षों में जिस तरह मोबाइल फ़ोन-उपभोक्ताओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, उसी अनुपात में सेवा प्रदाता कंपनियों ने जगह-जगह टावर खड़े कर दिए हैं। इसमें यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि जिन रिहाइशी इलाकों में टावर लगाए जा रहे हैं, वहाँ रहने वाले और दूसरे जीवों के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा। मोबाइल टावरों से होने वाले विकिरण से मनुष्य और पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर के मद्देनज़र विभिन्न-अदालतों में याचिकाएं दायर की गई हैं। शायद यही वजह है कि सरकार को इस दिशा में पहल करनी पड़ी। केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार टावर लगाने वाली कंपनियों को अपने मौजूदा रेडियो फ्रिक्वेंसी क्षेत्र में दस फीसदी की कटौती करनी होगी।


मोबाइल टावरों के विकरण से होने वाली कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का मुद्दा देशभर में लोगों की चिंता का कारण बना हुआ है। पिछले कुछ महीनों में आम नागरिकों और आवासीय कल्याण-संगठनों ने न सिर्फ रिहाइशी इलाकों में नए टावर लगाने का विरोध किया, बल्कि मौजूदा टावरों पर भी सवाल उठाए हैं। अब तक कई अध्ययनों में ऐसी आशंकाएँ व्यक्त की जा चुकी हैं कि मोबाइल टावरों से निकलने वाली रेडियो तरंगें न केवल पशु-पक्षियों, बल्कि मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए भी कई रूपों में हानिकारक सिद्ध हो सकती हैं। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की ओर से कराए एक अध्ययन की रिपोर्ट में तथ्य सामने आए कि गौरैयों और मधुमक्खियों की तेज़ी से घटती संख्या के लिए बड़े पैमाने पर लगाए जा रहे मोबाइल टावरों से निकलने वाली विद्युत्-चुंबकीय तरंगें कारण हैं।


इन पर हुए अध्ययनों में पाया गया है कि मोबाइल टावर के पाँच सौ मीटर की सीमा में रहने वाले लोग अनिद्रा, सिरदर्द, थकान, शारीरिक कमजोरी और त्वचा रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं, जबकि कुछ लोगों में चिड़चिड़ापन और घबराहट बढ़ जाती है। फिर मोबाइल टावरों की रेडियो फ्रिक्वेंसी तरंगों को मनुष्य के लिए पूरी तरह सुरक्षित मान लेने का क्या आधार हो सकता है? टावर लगाते समय मोबाइल कंपनियाँ तमाम नियम-कायदों को ताक पर रखने से नहीं हिचकतीं। इसलिए चुंबकीय तरंगों में कमी लाने के साथ-साथ, टावर लगाते समय नियमों की अनदेखी पर नकेल कसने की आवश्यकता है।


प्रश्नः (क)

मोबाइल फ़ोन सेवा प्रदाता कंपनियों ने जगह-जगह टावर क्यों लगाए? उन्होंने किस बात की अनदेखी की?

उत्तर

पिछले कुछ वर्षों में मोबाइल फ़ोन उपभोक्ताओं की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है। उन्हें सेवाएं प्रदान करने के लिए मोबाइल कंपनियों ने टावर लगाए हैं। अपने लाभ के लिए उन्होंने उन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों और अन्य प्राणियों के स्वास्थ्य संबंधी खतरे की अनदेखी की।


प्रश्नः (ख)

सरकार द्वारा पहल करने का क्या कारण था? उसने क्या निर्देश दिए?

उत्तर:

सरकार द्वारा मोबाइल कंपनियों के विरुद्ध पहल करने का कारण था, लोगों और पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे कुप्रभाव संबंधी याचिकाएँ जो अदालतों में विचाराधीन थीं। इस संबंध में सरकार ने कंपनियों को मौजूदा रेडियो फ्रीक्वेंसी क्षेत्र में दस प्रतिशत कटौती का निर्देश दिया।


प्रश्नः (ग)

मोबाइल टावरों के प्रति लोगों की क्या प्रतिक्रिया हुई और क्यों?

उत्तर:

मोबाइल टावरों के प्रति लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इन्हें रिहायशी इलाकों में लगाने का विरोध किया और उनकी मौजूदगी पर सवाल उठाया। इसका कारण यह था कि इनसे निकलने वाली तरंगें मनुष्य तथा पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती हैं।


प्रश्नः (घ)

मोबाइल टावर हमारे पर्यावरण के लिए कितने हानिकारी हैं ? उदाहरण द्वारा स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

मोबाइल टावर हमारे पर्यावरण के लिए भी बहुत हानिकारक हैं। इनसे निकलने वाली किरणों के कारण गौरैया और मधुमक्खियों की संख्या में निरंतर कमी आती जा रही है। इस कारण हमारे पर्यावरण का सौंदर्य कम हुआ है तथा प्रदूषण में वृद्धि हुई है।


प्रश्नः (ङ)

मोबाइल टावरों को सेहत के लिए सुरक्षित क्यों नहीं माना जा सकता है?

उत्तर:

मोबाइल टावरों को सेहत के लिए इसलिए सुरक्षित नहीं माना जा सकता है, क्योंकि


मोबाइल टावरों से जो विद्युत चुंबकीय तरंगें निकलती हैं उनसे सिर दर्द, अनिद्रा, थकान, शारीरिक कमजोरी और त्वचा रोग होता है।

इससे चिड़चिड़ापन और घबराहट बढ़ती है।

(7) साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्य को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीवन का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं।


साहसी मनुष्य उन सपनों में भी रस लेता है जिन सपनों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है। साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता, पर वह अपने विचारों में रमा हुआ अपनी ही किताब पढ़ता है। अर्नाल्ड बेनेट ने एक जगह लिखा है कि जो आदमी यह महसूस करता है कि किसी महान निश्चय के समय वह साहस से काम नहीं ले सका, जिंदगी की चुनौती को कबूल नहीं कर सका, वह सुखी नहीं हो सकता।


जिंदगी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम को झेलना है और जो आदमी सकुशल जीने के लिए जोखिम का हर जगह पर एक घेरा डालता है, वह अंततः अपने ही घेरों के बीच कैद हो जाता है और जिंदगी का कोई मज़ा उसे नहीं मिल पाता, क्योंकि जोखिम से बचने की कोशिश में, असल में, उसने जिंदगी को ही आने से रोक रखा है। ज़िन्दगी से, अंत में हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं। पूँजी लगाना जिंदगी के संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलटकर पढ़ना है जिसके सभी अक्षर फूलों से ही नहीं, कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं।


प्रश्नः (क)

साहस की जिंदगी जीने वालों की उन विशेषताओं का उल्लेख कीजिए जिनके कारण वे दूसरों से अलग नज़र आते हैं।

उत्तर:

साहस की जिंदगी जीने वाले निडर और बेखौफ़ होकर जीते हैं। वे इस बात की चिंता नहीं करते है कि जनमानस उनके बारे में क्या सोचता है। ये विशेषताएँ उन्हें दूसरों से अलग करती हैं।


प्रश्नः (ख)

गद्यांश के आधार पर क्रांति करने वालों तथा जन साधारण में अंतर लिखिए।

उत्तर:

क्रांति करने वालों का उद्देश्य बिल्कुल ही अलग होता है। वे अपने उद्देश्य की तुलना पड़ोसी से नहीं करते है और पड़ोसी की चाल देखकर अपनी चाल को कम या ज्यादा नहीं करते हैं। इसके विपरीत जनसाधारण का लक्ष्य और अपने पड़ोसियों जैसा होता है।


प्रश्नः (ग)

‘साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता है’ का आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

‘साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता है’ का आशय है कि जो साहसी होते हैं वे अपने जीवन का लक्ष्य एवं उसे पूरा करने का मार्ग स्वयं चुनते हैं। वे दूसरे के लक्ष्य और रास्तों की नकल नहीं करते हैं।


प्रश्नः (घ)

‘अर्नाल्ड बेनेट’ के अनुसार सुखी होने के लिए क्या-क्या आवश्यक है?

उत्तर:

अर्नाल्ड बेनेट के अनुसार सुखी होने के लिए-


किसी महान निश्चय के समय साहस से काम लेना आवश्यक है।

ज़िंदगी की चुनौती को स्वीकार करना आवश्यक है।

प्रश्नः (ङ)

जोखिम पर हर जगह घेरा डालने वाला आदमी जिंदगी का मज़ा क्यों नहीं ले सकता?

उत्तर:

जोखिम पर हर जगह घेरा डालने वाला व्यक्ति जिंदगी का असली मजा इसलिए नहीं ले सकता क्योंकि जोखिम से बचने के प्रयास में वह जिंदगी को अपने पास आने ही नहीं देता है। इस तरह वह जिंदगी के आनंद से वंचित रह जाता है।


(8) कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-रात अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरंतर उन्नति की ओर उठाती जाएगी।


इंग्लैंड के एक विद्वान को युवावस्था में राज-दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिंदगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत-से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक बनते। बहुत-से लोग ऐसे होते हैं, जिनके घड़ी भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, क्योंकि उनके ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गंभीर या अच्छी बात नहीं।


एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसे लड़कपन में कहीं से बुरी कहावत सुनी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आए, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद करना नहीं चाहते, वे बार-बार हृदय में उठती हैं और बेधती हैं। अतः तुम पूरी चौकसी रखो, ऐसे लोगों को साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फूहड़ बातों से तुम्हें हँसाना चाहें। सावधान रहो। ऐसा न हो कि पहले-पहल तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऐसा हुआ, फिर ऐसा न होगा। अथवा तुम्हारे चरित्रबल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें बकने वाले आगे चलकर आप सुधर जाएँगे। नहीं, ऐसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी।


पीहे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी, क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है। तुम्हारा विवेक कुंठित हो जाएगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जाएगी। अंत में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे। अतः हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगति की छूत से बचो।


प्रश्नः (क)

कुसंगति की तुलना किससे की गई है और क्यों?

उत्तर:

कुसंगति की तुलना किसी व्यक्ति के पैरों में बँधी चक्की से की गई है क्योंकि इससे व्यक्ति आगे अर्थात् उन्नति की ओर नहीं बढ़ पाता है। इससे व्यक्ति अवनति के गड्ढे में गिरता चला जाता है।


प्रश्नः (ख)

राज-दरबारियों के बीच जगह न मिलने पर भी विद्वान दुखी क्यों नहीं हुआ?

उत्तर:

राजदरबारियों के बीच जगह न मिलने पर विद्वान इसलिए दुखी नहीं हुआ क्योंकि वहाँ वह ऐसे लोगों की कुसंगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होते।


प्रश्नः (ग)

बुरी बाते चित्त में जल्दी जगह बनाती हैं। इसके लिए लेखक ने क्या दृष्टांत दिया है?

उत्तर:

बुरी बातें चित्त में जल्दी बैठती हैं और बहुत दिनों तक हमारे चित्त में टिकती हैं। इसे बताने के लिए लेखक ने आजकल के फूहड़ गानों का उदाहरण दिया है जो सरलता से हमारे दिमाग में चढ़ जाते हैं।


प्रश्नः (घ)

लेखक किस तरह के साथियों से दूर रहने की सलाह देता है और क्यों?

उत्तर:

लेखक ऐसे साथियों से दूर रहने की सलाह देता है जो अश्लील, फूहड़ और अपवित्र बातों से हमें हँसाना चाहते हैं। इसका कारण है कि बुरी बातों को चित्त से दूर रखने की लाख चेष्टा करने पर वे दूर नहीं होती है।


प्रश्नः (ङ)

एक बार बुराइयों में पैर पड़ने के बाद व्यक्ति उन्हें छोड़ नहीं पाता है. क्यों?

उत्तर:

एक बार बुराई में पैर पड़ने के बाद व्यक्ति बुराइयों का अभ्यस्त हो जाता है। उसे बुराइयों से चिढ़ समाप्त हो जाती है। उसे बुराइयाँ हानिकारक नहीं लगती और वह इनको छोड़ नहीं पाता है।


(9) विश्व के प्रायः सभी धर्मों में अहिंसा के महत्त्व पर बहुत प्रकाश डाला गया है। भारत के सनातन हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष प्रशंसा की गई है। ‘अष्टांगयोग’ के प्रवर्तक पतंजलि ऋषि ने योग के आठों अंगों में प्रथम अंग ‘यम’ के अन्तर्गत ‘अहिंसा’ को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार ‘गीता’ में भी अहिंसा के महत्त्व पर जगह-जगह प्रकाश डाला गया है। भगवान् महावीर ने अपनी शिक्षाओं का मूलाधार अहिंसा को बताते हुए ‘जियो और जीने दो’ की बात कही है। अहिंसा मात्र हिंसा का अभाव ही नहीं, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख नहीं पहुँचाना है। ऐसी जीवन-शैली अपनाने का नाम ही ‘अहिंसात्मक जीवन शैली’ है।


अकारण या बात-बात में क्रोध आ जाना हिंसा की प्रवृत्ति का एक प्रारम्भिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है; वह उसकी बुद्धि का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने को प्रेरित करता है, परिणामतः दूसरों को दुख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बनता है। सभी प्राणी मेरे लिए मित्रवत् हैं। मेरा किसी से भी वैर नहीं है, ऐसी भावना से प्रेरित होकर हम व्यावहारिक जीवन में इसे उतारने का प्रयत्न करें तो फिर अहंकारवश उत्पन्न हुआ क्रोध या द्वेष समाप्त हो जाएगा और तब अपराधी के प्रति भी हमारे मन में क्षमा का भाव पैदा होगा। क्षमा का यह उदात्त भाव हमें हमारे परिवार से सामंजस्य कराने व पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में अहम् भूमिका निभाता है।


हमें ईर्ष्या तथा वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थान देते हुए अहिंसा का एक ऐसा जीवन जीना है कि हमारी जीवन-शैली एक अनुकरणीय आदर्श बन जाए।


प्रश्नः (क)

भारतीय ग्रंथों में अहिंसा के बारे में क्या कहा गया है?

उत्तर:

भारत के सनातन हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म आदि के ग्रंथों में अहिंसा को उत्तम बताया गया है। ‘अष्टांगयांग’ में अहिंसा को प्रथम स्थान तथा ‘गीता’ में जगह-जगह अहिंसा का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है।


प्रश्नः (ख)

‘जियो और जीने दो’ की बात किसने कही? इसका आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

‘जियो और जीने दो’ की बात भगवान महावीर ने कही है। इस कथन के मूल में भी अहिंसा का भाव निहित है। हम स्वयं जिएँ पर अपने जीवन के लिए दूसरों का हम जीवन न छीनें तथा उन्हें सताए नहीं।


प्रश्नः (ग)

गद्यांश में वर्णित अहिंसात्मक जीवनशैली से क्या तात्पर्य है?

उत्तर:

अहिंसात्मक जीवन शैली से तात्पर्य है- किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक या जान-बूझकर वध न करना और किसी जीव या प्राणी मात्र को अकारण दुख नहीं पहुँचाना है। दुख पहुँचाने का तरीका मन, वाणी या कर्म कोई भी नहीं होना चाहिए।


प्रश्नः (घ)

क्रोध अहिंसा के मार्ग में किस तरह बाधक सिद्ध होता है?

उत्तर:

बात-बात में क्रोध करना हिंसा का प्रारंभिक रूप है। क्रोध की अधिकता व्यक्ति को अंधा बना देती है। क्रोध उसकी बुद्धि पर हावी होकर व्यक्ति को अनुचित करने के लिए उकसाता है। इससे व्यक्ति दूसरों को दुख पहुंचाता है। इस तरह क्रोध अहिंसा के मार्ग में बाधक है।


प्रश्नः (ङ)

क्षमा का उदात्त भाव मानव जीवन के लिए क्यों आवश्यक है?

उत्तर:

क्षमा का उदात्त भाव क्रोध और द्वेष को शांत करता है। इससे व्यक्ति परिवार के साथ सामंजस्य बिठाने एवं पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में सफल होता है। इस तरह क्षमा मानव-जीवन के लिए आवश्यक है।


(10) कुछ लोगों के अनुसार मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य धन-संग्रह है। नीतिशास्त्र में धन-संपत्ति आदि को ही ‘अर्थ’ कहा गया है। बहुत से ग्रंथों में अर्थ की प्रशंसा की गई है; क्योंकि सभी गुण अर्थ अर्थात् धन के आश्रित ही रहते हैं। जिसके पास धन है वही सुखी रह सकता है, विषय-भोगों को संगृहीत कर सकता है तथा दान-धर्म भी निभा सकता है।


वर्तमान युग में धन का सबसे अधिक महत्त्व है। आज हमारी आवश्यकताएँ बहुत बढ़ गई हैं, इसलिए उनको पूरा करने के लिए धन-संग्रह की आवश्यकता पड़ती है। धन की प्राप्ति के लिए भी अत्यधिक प्रयत्न करना पड़ता है और सारा जीवन इसी में लगा रहता है। कुछ लोग तो धनोपार्जन को ही जीवन का उददेश्य बनाकर उचित-अनुचित साधनों का भेद भी भुला बैठते हैं। संसार के इतिहास में धन की लिप्सा के कारण जितनी हिंसाएँ, अनर्थ और अत्याचार हुए हैं, उतने और किसी दूसरे कारण से नहीं हुए हैं।


अतः धन को जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य नहीं माना जा सकता; क्योंकि धन अपने आप में मूल्यवान वस्तु नहीं है। धन को संचित करने के लिए छल-कपट आदि का सहारा लेना पड़ता है, जिसके कारण जीवन में अशांति और चेहरे पर विकृति बनी रहती है। इतना ही नहीं इसके संग्रह की प्रवृत्ति के पनपने के कारण सदा चोर, डाकू और दुश्मनों का भय बना रहता है। धन का अपहरण या नाश होने पर कष्ट होता है। इस प्रकार अशांति, संघर्ष, दुष्प्रवृत्ति, दुख, भय एवं पाप आदि का मूल होने के कारण, धन को जीवन का परम लक्ष्य नहीं माना जा सकता।


प्रश्नः (क)

जीवन में धन का सर्वाधिक महत्त्व क्यों माना गया है?

उत्तर:

जीवन में धन का महत्त्व इसलिए बढ़ गया है क्योंकि बहुत से धर्मग्रंथों में अर्थ अर्थात धन-संपत्ति की प्रशंसा की गई है। इसके अलावा सभी गुण धन के आश्रित ही रहते हैं। जिसके पास धन है वही सुखी रह सकता है।


प्रश्नः (ख)

आज के युग में धन-संग्रह की आवश्यकता क्यों अधिक बढ़ गई है?

उत्तर:

आज के युग में धन संग्रह की आवश्यकता इसलिए बढ़ गई है क्योंकि आज हमारी आवश्यकताएँ बहुत बढ़ गई हैं। उनको पूरा करने के लिए धन संग्रह की आवश्यकता पड़ती है।


प्रश्नः (ग)

धन-संग्रह को ही जीवन का परम उद्देश्य मानने के कारण जीवन और जगत में क्या दुष्परिणाम देखने को मिलते हैं?

उत्तर:

(ग) धन-संग्रह को ही जीवन का परम उद्देश्य मानने के कारण अनेक दुष्परिणाम दिखाई देते हैं-

(i) लोग उचित-अनुचित का भेद भुला बैठते हैं।

(ii) अनेक बार हिंसाएँ अनर्थ और अत्याचार हुए हैं।


प्रश्नः (घ)

धन को सर्वोच्च लक्ष्य मानना कितना उचित है और क्यों?

उत्तर:

कुछ लोग धन को जीवन लक्ष्य मान बैठते हैं। यह बिलकुल भी उचित नहीं है, क्योंकि धन अपने आप में मूल्यवान वस्तु नहीं है। इसको एकत्र करने के लिए छल-कपट का सहारा लेना पड़ता है।


प्रश्नः (ङ)

धन दुख का कारण भी बन जाता है स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:

अनुचित साधनों से धन एकत्र करने पर व्यक्ति अशांत रहता है। इसके नष्ट होने पर व्यक्ति को कष्ट होता है। इस तरह धन दुख का कारण भी बन जाता है।


(11) आज से लगभग छह सौ साल पूर्व संत कबीर ने सांप्रदायिकता की जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था, वह आज भी प्रसुप्त ज्वालामुखी की भाँति भयंकर बनकर देश के वातावरण को विदग्ध करती रहती है। देश का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि यहाँ जाति, धर्म, भाषागत, ईर्ष्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना समय-असमय भयंकर ज्वालामुखी के रूप में भड़क उठती है। दस बीस हताहत होते हैं, लाखों-करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो जाती है। भय, त्रास और अशांति का प्रकोप होता है। विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।


कबीर हिंदू-मुसलमान में, जाति-जाति में शारीरिक दृष्टि से कोई भेद नहीं मानते। भेद केवल विचारों और भावों का है। इन विचारों और भावों के भेद को बल धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता से मिलता है। हृदय की चरमानुभूति की दशा में राम और रहीम में कोई अंतर नहीं। अंतर केवल उन माध्यमों में है जिनके द्वारा वहाँ तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। इसीलिए कबीर साहब ने उन माध्यमों – पूजा-नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि के दिखावे का विरोध किया।

समाज में एकरूपता तभी संभव है जबकि जाति, वर्ण, वर्ग, भेद न्यून-से-न्यून हों। संतों ने मंदिर-मस्जिद, जाति-पाँति के भेद में विश्वास नहीं रखता। सदाचार ही संतों के लिए महत्त्वपूर्ण है। कबीर ने समाज में व्याप्त वाह्याडम्बरों का कड़ा विरोध किया और समाज में एकता, समानता तथा धर्म-निरपेक्षता की भावनाओं का प्रचार-प्रसार किया।


प्रश्नः (क)

क्या कारण है कि कबीर छह सौ साल बाद भी प्रासंगिक लगते हैं?

उत्तर:

कबीर छह सौ साल बाद भी आज इसलिए प्रासंगिक लगते हैं, क्योंकि सांप्रदायिकता की जिस समस्या की ओर हमारा ध्यान छह सौ साल पहले खींचा था वह समस्या आज भी अपना असर दिखाकर जन-धन को नुकसान पहुँचा रही है।


प्रश्नः (ख)

किस समस्या को ज्वालामुखी कहा गया है और क्यों?

उत्तर:

सांप्रदायिकता की समस्या को ज्वालामुखी कहा गया है क्योंकि जिस तरह ज्वालामुखी सोई रहती है पर जब वह भड़कती है तो भयानक बन जाती है। यही स्थिति सांप्रदायिकता की है। फैलने वाली सांप्रदायिकता के कारण लोग मारे जाते हैं और धन संपत्ति की क्षति होती है।


प्रश्नः (ग)

समाज में ज्वालामुखी भड़कने के क्या दुष्परिणाम होते हैं?

उत्तर:

समाज में ज्वालामुखी भड़कने का दुष्परिणाम यह होता है कि एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय का दुश्मन बन जाता है। दोनों संप्रदाय एक-दूसरे की जान लेने के लिए आमने-सामने आ जाते हैं। इससे जन-धन को हानि पहुँचती है।


प्रश्नः (घ)

मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव के विचार कैसे बलशाली बनते हैं?

उत्तर:

मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव के विचार धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता से बलशाही बनते हैं। मनुष्य अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ समझता है और दूसरे धर्म का अनादर करता है। वह अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अन्य धर्म को हानि पहुँचाने लगता है।


प्रश्नः (ङ)

कबीर ने किन माध्यमों का विरोध किया और क्यों?

उत्तर:

कबीर ने पूजा-नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि के दिखावों का विरोध किया है क्योंकि इससे व्यक्ति में धार्मिक कट्टरता उत्पन्न होती है तथा इस आधार पर व्यक्ति दूसरे धर्म के व्यक्ति का अनादर करने लगता है।


(12) दैनिक जीवन में हम अनेक लोगों से मिलते हैं, जो विभिन्न प्रकार के काम करते हैं-सड़क पर ठेला लगानेवाला, दूधवाला, नगर निगम का सफाईकर्मी, बस कंडक्टर, स्कूल अध्यापक, हमारा सहपाठी और ऐसे ही कई अन्य लोग। शिक्षा, वेतन, परंपरागत चलन और व्यवसाय के स्तर पर कुछ लोग निम्न स्तर पर कार्य करते हैं तो कुछ उच्च स्तर पर। एक माली के कार्य को सरकारी कार्यालय के किसी सचिव के कार्य से अति निम्न स्तर का माना जाता है, किंतु यदि यही अपने कार्य को कुशलतापूर्वक करता है और उत्कृष्ट सेवाएँ प्रदान करता है तो उसका कार्य उस सचिव के कार्य से कहीं बेहतर है, जो अपने काम में ढिलाई बरतता है तथा अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह नहीं करता। क्या आप ऐसे सचिव को एक आदर्श अधिकारी कह सकते हैं? वास्तव में पद महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्त्वपूर्ण होता है, कार्य के प्रति समर्पण-भाव और कार्य-प्रणाली में पारदर्शिता।


इस संदर्भ में गांधी जी से उत्कृष्ट उदाहरण और किसका दिया जा सकता है, जिन्होंने अपने हर कार्य को गरिमामय मानते हुए किया। वे अपने सहयोगियों को श्रम की गरिमा की सीख दिया करते थे। दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों के लिए संघर्ष करते हुए उन्होंने सफ़ाई करने जैसे कार्य को भी कभी नीचा नहीं समझा और इसी कारण स्वयं उनकी पत्नी कस्तूरबा से भी उनके मतभेद हो गए थे।


बाबा आमटे ने समाज द्वारा तिरस्कृत कुष्ठ रोगियों की सेवा में अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया। सुंदरलाल बहुगुणा ने अपने प्रसिद्ध ‘चिपको आंदोलन’ के माध्यम से पेड़ों को संरक्षण प्रदान किया। फादर डेमियन ऑफ मोलोकाई, मार्टिन लूथर किंग और मदर टेरेसा जैसी महान आत्माओं ने इसी सत्य को ग्रहण किया। इनमें से किसी ने भी कोई सत्ता प्राप्त नहीं की, बल्कि अपने जन-कल्याणकारी कार्यों से लोगों के दिलों पर शासन किया। गांधी जी का स्वतंत्रता के लिए संघर्ष उनके जीवन का एक पहलू है, किंतु उनका मानसिक क्षितिज वास्तव में एक राष्ट्र की सीमाओं में बँधा हुआ नहीं था। उन्होंने सभी लोगों में ईश्वर के दर्शन किए। यही कारण था कि कभी किसी पंचायत तक के सदस्य नहीं बनने वाले गांधी जी की जब मृत्यु हुई तो अमेरिका का राष्ट्रध्वज भी झुका दिया गया था।


प्रश्नः (क)

विभिन्न व्यवसाय करने वाले लोगों के समाज में निम्न स्तर और उच्च स्तर को किस आधार पर तय किया जाता है।

उत्तर:

विभिन्न व्यवसाय करने वाले लोगों के समाज में निम्नस्तर और उच्च स्तर को उनकी शिक्षा वेतन व्यवसाय आदि के आधार पर तय किया जाता है। उच्च शिक्षित तथा अधिक वेतन पाने वाले व्यक्ति के काम को उच्च स्तर का तथा माली जैसों के काम को निम्न स्तर का माना जाता है।


प्रश्नः (ख)

एक माली अथवा सफाईकर्मी का कार्य किसी सचिव के कार्य से बेहतर कैसे माना जा सकता है?

उत्तर:

एक माली अथवा सफाईकर्मी अपना काम पूरी निष्ठा ईमानदारी, जिम्मेदारी और कुशलता से करता है तो उसका कार्य उस सचिव के कार्य से बेहतर है जो अपने काम पर ध्यान नहीं देता है या अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं करता है।


प्रश्नः (ग)

गांधी जी काम के प्रति क्या दृष्टिकोण रखते थे। उनका अपनी पत्नी के साथ क्यों मतभेद हो गया?

उत्तर:

गांधी जी सफ़ाई करने जैसे कार्य को गरिमामय मानते थे। वे अपने सहयोगियों को श्रम करने की सीख देते थे फिर खुद श्रम से कैसे पीछे रहते। उन्होंने सफ़ाई का काम स्वयं करना शुरू कर दिया। इसी बात पर उनका पत्नी के साथ झगड़ा हो गया।


प्रश्नः (घ)

बाबा आमटे, सुंदरलाल बहुगुणा, मदर टेरेसा आदि का उल्लेख क्यों किया गया है?

उत्तर:

बाबा आमटे ने समाज द्वारा तिरस्कृत कुष्ठ रोगियों की सेवा की सुंदरलाल बहुगुणा ने चिपको आंदोलन चलाकर पेडों को करने से बचाया तथा मदर टेरेसा ने रोगियों की सेवा की। उन्होंने अपने कार्य को अत्यंत लगन से किया, इसलिए उनका नाम उल्लिखित है।


प्रश्नः (ङ)

गांधी जी की मृत्यु पर अमेरिका का राष्ट्रध्वज क्यों झुका दिया गया?

उत्तर:

गांधी जी की मृत्यु पर अमेरिका ने उनके सम्मान में अपना राष्ट्र ध्वज झुका दिया। गांधी जी किसी एक व्यक्ति या राष्ट्र की भलाई के लिए काम न करके समूची मानवता की भलाई के लिए काम कर रहे थे।


(13) परिवर्तन प्रकृति का नियम है और परिवर्तन ही अटल सत्य है। अतः पर्यावरण में भी परिवर्तन हो रहा है लेकिन वर्तमान समय में चिंता की बात यह है कि जो पर्यावरणीय परिवर्तन पहले एक शताब्दी में होते थे, अब उतने ही परिवर्तन एक दशक में होने लगे हैं। पर्यावरण परिवर्तन की इस तेज़ी का कारण है विस्फोटक ढंग से बढ़ती आबादी, वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति और प्रयोग तथा सभ्यता का विकास। आइए, हम सभी मिलकर यहाँ दो प्रमुख क्षेत्रों का चिंतन करें एवं निवारण विधि सोचें। पहला है ओजोन की परत में कमी और विश्व के तापमान में वृद्धि।


ये दोनों क्रियाएँ परस्पर संबंधित है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में सुपरसोनिक वायुयानों का ईजाद हुआ और वे ऊपरी आकाश में उड़ाए जाने लगे। उन वायुयानों के द्वारा निष्कासित पदार्थों में उपस्थित नाइट्रिक ऑक्साइड के द्वारा ओजोन परत का क्षय महसूस किया गया। यह ओजोन परत वायुमंडल के समताप मंडल या बाहरी घेरे में होता है। आगे शोध द्वारा यह भी पता चला कि वायुमंडल की ओजोन परत पर क्लोरो-फ्लोरो कार्बस प्रशीतक पदार्थ, नाभिकीय विस्फोट इत्यादि का भी दुष्प्रभाव पड़ता है। ओजोन परत जीवमंडल के लिए रक्षा-कवच है, जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों के विकिरण को रोकता है जो जीवमंडल के लिए घातक है।


अतः इन रासायनिक गैसों द्वारा ओजोन की परत की हो रही कमी को ब्रिटिश वैज्ञानिकों द्वारा 1978 में गुब्बारों और रॉकेटों की मदद से अध्ययन किया गया। अतः नवीनतम जानकारी के मुताबित अं टिका क्षेत्र के ऊपर ओजोन परत में बड़ा छिद्र पाया गया है जिससे हो सकता है कि सूर्य की घातक विकिरण पृथ्वी की सतह तक पहुँच रही हो और पृथ्वी की सतह गर्म हो रही हो। भारत में भी अंटार्कटिका स्थित अपने अड्डे, दक्षिण गंगोत्री से गुब्बारों द्वारा ओजोन मापक यंत्र लगाकर शोध कार्य में भाग लिया।


क्लोरो-फ्लोरो कार्बस रसायन सामान्य तौर पर निष्क्रिय होते हैं, पर वायुमंडल के ऊपर जाते ही उनका विच्छेदन हो जाता है। तकनीकी उपकरणों द्वारा अध्ययन से पता चला है कि पृथ्वी की सतह से क्लोरो-फ्लोरो कार्बस की मात्रा वायुमंडल में 15 मिलियन टन से भी अधिक है। इन कार्बस के अणुओं का वायुमंडल में मिलन अगर आज से भी बंद कर दें, फिर भी उनकी उपस्थिति वायुमंडल में आने वाले अनेक वर्षों तक बनी रहेगी। अतः क्लोरो-फ्लोरो कार्बस जैसे रसायनों के उपयोग पर हमें तुरंत प्रतिबंध लगाना होगा, ताकि भविष्य में उनके और ज्यादा अणुओं के बनने का खतरा कम हो जाए।


प्रश्नः (क)

कोई दो कारण लिखिए जिनसे पर्यावरण तेज़ी से परिवर्तित हो रहा है?

उत्तर:

(क) पर्यावरण में तेजी से परिवर्तन लाने वाले दो कारक हैं


विस्फोटक ढंग से बढ़ती हुई आबादी

वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति और उनका जीवन में बढ़ता प्रयोग एवं सभ्यता का विकास।

प्रश्नः (ख)

ओजोन परत क्या है? इसके क्षय (नुकसान) होने का क्या कारण है?

उत्तर:

ओजोन एक गैस है जिसकी मोटी परत वायुमंडल के समताप मंडल या बाहरी घेरे में होती है। यह हमें सूर्य की हानिकारक किरणों से बचाती है। सुपर सोनिक विमानों से निकले धुएँ में नाइट्रिक आक्साइड होता है जिससे ओजोन को क्षति पहुँचती है।


प्रश्नः (ग)

आजकल पृथ्वी की सतह क्यों गर्म हो रही है?

उत्तर:

आजकल पृथ्वी की ऊपरी सतह इसलिए गर्म हो रही है क्योंकि अंटार्कटिक के ऊपर ओजोन परत में बड़ा छिद्र पाया गया है जिससे सूर्य की घातक विकिरण किरणें धरती पर पहुँच रही हैं। इससे धरती गरम हो रही है।


प्रश्नः (घ)

ओजोन परत को रक्षा-कवच क्यों कहा गया है? यह परत किनसे प्रभावित हो रही है?

उत्तर:

ओजोन परत को जीवमंडल की रक्षा कवच इसलिए कहा गया है क्योंकि यह परत हमें सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों के विकिरण से बचाती है।

यह परत क्लोरो फ्लोरो कार्बन, प्रशीतक पदार्थ नाभिकीय विखंडन आदि के द्वारा प्रभावित हो रही है।


प्रश्नः (ङ)

क्लोरो फ्लोरो कार्बन रसायनों का विच्छेदन कैसे हो जाता है?

उत्तर:

क्लोरो-फ्लोरो कार्बस रसायन सामान्यतया निष्क्रिय होते हैं, पर वायुमंडलीय सीमा से ऊपर जाते ही उनका विखंडन अपने आप हो जाता है।


(14) आधुनिक युग विज्ञान का युग है। मनुष्य विकास के पथ पर बड़ी तेज़ी से अग्रसर है। उसने समय के साथ स्वयं के लिए सुख के सभी साधन एकत्र कर लिए हैं। इतना होने के बाद और अधिक पा लेने की अभिलाषा में कोई कमी नहीं आई है बल्कि पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। समय के साथ उसकी असंतोष की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। कल-कारखाने, मोटर-गाड़ियाँ, रेलगाड़ी, हवाई जहाज़ आदि सभी उसकी इसी प्रवृत्ति की देन हैं। उसके इस विस्तार से संसाधनों के समाप्त होने का खतरा दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।


प्रकृति में संसाधन सीमित हैं। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के साथ आवश्यकताएँ भी बढ़ती ही जा रही हैं। दिन-प्रतिदिन सड़कों पर मोटर-गाडियों की संख्या में अतुलनीय वृद्धि हो रही है। रेलगाड़ी हो या हवाई जहाज़ सभी की संख्या में वृद्धि हो रही है। मनुष्य की मशीनों पर निर्भरता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। इन सभी मशीनों के संचालन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है, परंतु जिस गति से ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ रही है उसे देखते हुए ऊर्जा के समस्त संसाधनों के नष्ट होने की आशंका बढ़ने लगी है। विशेषकर ऊर्जा के उन सभी साधनों की जिन्हें पुनः निर्मित नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए पेट्रोल, डीजल, कोयला तथा भोजन पकाने की गैस आदि।


पेट्रोल अथवा डीजल जैसे संसाधनों रहित विश्व की परिकल्पना भी दुष्कर प्रतीत होती है। परंतु वास्तविकता यही है कि जिस तेज़ी से हम इन संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं उसे देखते हुए वह दिन दूर नहीं जब धरती से ऊर्जा के हमारे ये संसाधन विलुप्त हो जायेंगे। अत: यह आवश्यक है कि हम ऊर्जा संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दें अथवा इसके प्रतिस्थापन हेतु अन्य संसाधनों को विकसित करे क्योंकि यदि समय रहते हम अपने प्रयासों में सक्षम नहीं होते तो संपूर्ण मानव सभ्यता ही खतरे में पड़ सकती है।


प्रश्नः (क)

मनुष्य के विकास और उसकी अभिलाषा के बीच क्या संबंध है? गद्यांश के आधार पर लिखिए।

उत्तर:

मनुष्य और उसकी अभिलाषा के बीच यह संबंध है कि मनुष्य ने ज्यों-ज्यों विकास किया त्यों-त्यों उसकी अभिलाषा बढ़ती गई। मनुष्य को जैसे-जैसे सुख-सुविधाएँ मिलती गईं उसकी अभिलाषा कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही हैं।


प्रश्नः (ख)

कल कारखाने मनुष्य की किस प्रवृत्ति की देन हैं? इस प्रवृत्ति से क्या हानि हुई है?

उत्तर:

कल-कारखाने, मोटर गाड़ियाँ मनुष्य की बढ़ती अभिलाषा की प्रवृत्ति की देन है। इस प्रवृत्ति के लगातार बढ़ते जाने से यह हानि हुई है कि कोयला, पेट्रोल जैसे संसाधनों के समाप्त होने का खतरा बढ़ गया है।


प्रश्नः (ग)

ऊर्जा के संसाधनों के नष्ट होने का खतरा क्यों बढ़ गया है ?

उत्तर:

विश्व में जनसंख्या बढ़ने के साथ ही उसकी आवश्यकताओं में खूब वृद्धि हुई है। रेल-मोटर गाड़ियाँ बेतहाशा बढ़ी हैं। इनके लिए तेज़ गति से ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ी है। इसे देखते हुए उर्जा के संसाधनों के नष्ट होने का खतरा बढ़ गया है।


प्रश्नः (घ)

ऊर्जा के वे कौन से संसाधन हैं जिनके खत्म होने की आशंका से मनुष्य घबराया हुआ है?

उत्तर:

ऊर्जा के जिन साधनों के नष्ट होने से मनुष्य घबराया है वे ऐसे संसाधन हैं जिन्हें नष्ट होने पर पुनः नहीं बनाया जा सकता है। ऐसे साधनों में डीजल, कोयला, पेट्रोल, खाना पकाने की गैस प्रमुख है।


प्रश्नः (ङ)

उर्जा संरक्षण की ओर ध्यान देने की आवश्यकता क्यों बढ़ गई है?

उत्तर:

ऊर्जा संसाधन के संरक्षण की आवश्यकता इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि इनके अंधाधुंध उपयोग से इनके नष्ट होने का खतरा मँडराने लगा है। इसके लिए हमें इनका सावधानी से प्रयोग करते हुए इनके विकल्पों की खोज करनी चाहिए।


(15) पड़ोस सामाजिक जीवन के ताने-बाने का महत्त्वपूर्ण आधार है। दरअसल पड़ोस जितना स्वाभाविक है, हमारी सामाजिक सुरक्षा के लिए तथा सामाजिक जीवन की समस्त आनंदपूर्ण गतिविधियों के लिए वह उतना ही आवश्यक भी है। यह सच है कि पड़ोसी का चुनाव हमारे हाथ में नहीं होता, इसलिए पड़ोसी के साथ कुछ-न-कुछ सामंजस्य तो बिठाना ही पड़ता है। हमारा पड़ोसी अमीर हो या गरीब, उसके साथ संबंध रखना सदैव हमारे हित में ही होता है। पड़ोसी से परहेज़ करना अथवा उससे कटे-कटे रहने में अपनी ही हानि है, क्योंकि किसी भी आकस्मिक आपदा अथवा आवश्यकता के समय अपने रिश्तेदारों अथवा परिवारवालों को बुलाने में समय लगता है।


यदि टेलीफ़ोन की सुविधा भी है तो भी कोई निश्चय नहीं कि उनसे समय पर सहायता मिल ही जाएगी। ऐसे में पड़ोसी ही सबसे अधिक विश्वस्त सहायक हो सकता है। पड़ोसी चाहे कैसा भी हो, उससे अच्छे संबंध रखने ही चाहिए। जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता, उससे सहानुभूति नहीं रख सकता, उसके साथ सुख-दुख का आदान-प्रदान नहीं कर सकता तथा उसके शोक और आनंद के क्षणों में शामिल नहीं हो सकता, वह भला अपने समाज अथवा देश के साथ क्या खाक भावनात्मक रूप से जुड़ेगा। विश्व-बंधुत्व की बात भी तभी मायने रखती है, जब हम अपने पड़ोसी से निभाना सीखें।


प्रायः जब भी पड़ोसी से खटपट होती है तो इसलिए कि हम आवश्यकता से अधिक पड़ोसी के व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि किसी को भी अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी की रोक-टोक और हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगता। पड़ोसी के साथ कभी-कभी तब भी अवरोध पैदा हो जाते हैं, जब हम आवश्यकता से अधिक उससे अपेक्षा करने लगते हैं। बात नमक-चीनी के लेन-देन से आरंभ होती है तो स्कूटर और कार तक माँगने की नौबत ही न आए। आपको परेशानी में पड़ा देख पड़ोसी खुद ही आगे आ जाएगा। पड़ोसियों से निर्वाह करने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि बच्चों को नियंत्रण में रखें। आमतौर से बच्चों में जाने-अनजाने छोटी-छोटी बातों पर झगड़े होते हैं और बात बड़ों के बीच सिर फुटौवल तक जा पहुँचती है। इसलिए पड़ोसी के बगीचे से फल-फूल तोड़ने, उसके घर में ऊधम मचाने से बच्चों पर सख्ती से रोक लगाएँ। भूलकर भी पड़ोसी के बच्चे पर हाथ न उठाएँ, अन्यथा संबंधों में कड़वाहट आते देर न लगेगी।


प्रश्नः (क)

पड़ोस का सामाजिक जीवन में क्या महत्त्व है?

उत्तर:

पड़ोस सामाजिक जीवन के ताने-बाने का महत्त्वपूर्ण आधार है। यह हमारी सुरक्षा के लिए तथा सामाजिक जीवन की समस्त आनंदपूर्ण गतिविधियों के लिए भी बहुत आवश्यक है।


प्रश्नः (ख)

कैसे कह सकते हैं कि पड़ोसी के साथ सामंजस्य बिठाना हमारे हित में है?

उत्तर:

मुसीबत के समय सहायता के लिए पड़ोसी से तालमेल बिठाना आवश्यक होता है, क्योंकि पड़ोसी ही हमारे सबसे निकट होता है। हमारी सहायता करने वाला वही पहला व्यक्ति होता है क्योंकि हमारे रिश्तेदारों को आने में समय लग जाता है।


प्रश्नः (ग)

“जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता, …वह भला अपने समाज अथवा देश के साथ क्या खाक भावनात्मक रूप से जुड़ेगा!” उपर्युक्त पंक्तियों का भाव अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर:

जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता वह विश्व से भला कैसे जुड़ सकता है, क्योंकि विश्व से जुड़ने का आधार पड़ोस है। जो अपने पड़ोस से मिलकर एक नहीं हो सकता, वह भला देश या समाज से एक होकर कैसे रह सकता है।


प्रश्नः (घ)

पड़ोसी से खटपट होने में हमारी भूल कितनी जिम्मेदार रहती है?

उत्तर:

पड़ोसी के साथ खटपट होने का मुख्य कारण होता है-आवश्यकता से अधिक पड़ोसी के व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप करना। यह व्यक्तिगत हस्तक्षेप उसे अच्छा नहीं लगता। इस तरह खटपट के लिए हमारी भूल जिम्मेदार रहती है।


प्रश्नः (ङ)

पड़ोसी से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए हमें क्या करना चाहिए?

उत्तर:

पड़ोसी से अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए हमें


अपने बच्चों के व्यवहार पर ध्यान रखना चाहिए।

अपनी आवश्यकताओं के लिए उन पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।

पड़ोसी के बच्चे को अपना बच्चा समझना चाहिए।

(16) समस्त ग्रंथों एवं ज्ञानी, अनुभवीजनों का कहना है कि जीवन एक कर्मक्षेत्र है। हमें कर्म के लिए जीवन मिला है। कठिनाइयाँ एवं दुख और कष्ट हमारे शत्रु हैं, जिनका हमें सामना करना है और उनके विरुद्ध संघर्ष करके हमें विजयी बनना है। अंग्रेज़ी के यशस्वी नाटककार शेक्सपीयर ने ठीक ही कहा है कि “कायर अपनी मृत्यु से पूर्व अनेक बार मृत्यु का अनुभव कर चुके होते हैं किंतु वीर एक से अधिक बार कभी नहीं मरते हैं।”


विश्व के प्रायः समस्त महापुरुषों के जीवन वृत्त अमरीका के निर्माता जॉर्ज वाशिंगटन और राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन से लेकर भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के जीवन चरित्र हमें यह शिक्षा देते हैं कि महानता का रहस्य संघर्षशीलता, अपराजेय व्यक्तित्व है। इन महापुरुषों को जीवन में अनेक संकटों का सामना करना पड़ा परंतु वे घबराए नहीं, संघर्ष करते रहे और अंत में सफल हुए। संघर्ष के मार्ग में अकेला ही चलना पड़ता है। कोई बाहरी शक्ति आपकी सहायता नहीं करती है। परिश्रम, दृढ़ इच्छा शक्ति व लगन आदि मानवीय गुण व्यक्ति को संघर्ष करने और जीवन में सफलता प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।


समस्याएँ वस्तुतः जीवन का पर्याय हैं यदि समस्याएँ न हों तो आदमी प्रायः अपने को निष्क्रिय समझने लगेगा। ये समस्याएँ वस्तुतः जीवन की प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती हैं। समस्या को सुलझाते समय उसका समाधान करते समय व्यक्ति का श्रेष्ठतम तत्व उभरकर आता है। धर्म, दर्शन, ज्ञान, मनोविज्ञान इन्हीं प्रयत्नों की देन हैं। पुराणों में अनेक कथाएँ यह शिक्षा देती हैं कि मनुष्य जीवन की हर स्थिति में जीना सीखे व समस्या उत्पन्न होने पर उसके समाधान के उपाय सोचे। जो व्यक्ति जितना उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करेगा, उतना ही उसके समक्ष समस्याएँ आएँगी और उनके परिप्रेक्ष्य में ही उसकी महानता का निर्धारण किया जाएगा।


प्रश्नः (क)

महापुरुषों ने जीवन को एक कर्मक्षेत्र क्यों कहा है?

उत्तर:

मनुष्य के जीवन में सबसे ज़रूरी है- कर्म करते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ना और निरंतर कर्म करना। इसका कारण है जीवन ही कर्म करने के लिए मिला है। कर्म द्वारा संघर्ष ही हमें सदैव विजयी बना सकता है।


प्रश्नः (ख)

महापुरुषों का जीवन हमें क्या संदेश देता है?

उत्तर:

महापुरुषों का जीवन हमें यह संदेश देता है कि महानता का रहस्य संघर्षशीलता एवं अपराजेय व्यक्तित्व है। हमें कभी संघर्ष से घबराना नहीं चाहिए। इन महापुरुषों की सफलता का रहस्य है- जीवन में संकटों से घबराए बिना संघर्ष करते रहना।


प्रश्नः (ग)

समस्याएँ हमारे जीवन का पर्याय कैसे हैं ? समस्याओं का सामना हमें किस प्रकार करना चाहिए?

उत्तर:

समस्याएँ हमारे जीवन का पर्याय हैं। समस्या आने पर उनसे छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति संघर्ष करता है। इस तरह वे हमें कर्म के लिए प्रेरित करती हैं और हम कर्मशील बनते हैं। हमें समस्याओं का सामना धैर्यपूर्वक सोच समझकर करना चाहिए।


प्रश्नः (घ)

संघर्ष के मार्ग की क्या विशेषताएँ हैं?

उत्तर:

संघर्ष के मार्ग की विशेषता यह है कि व्यक्ति को इस मार्ग पर अकेला चलना पड़ता है। इसमें कोई बाहरी शक्ति हमारी मदद नहीं करती है। संघर्ष में सफलता पाने के लिए परिश्रम, दृढ़ इच्छाशक्ति, लगन आदि मानवीय गुणों की आवश्यकता होती है।


प्रश्नः (ङ)

पुराणों की कथाओं में हमें क्या सीख दी गई है?

उत्तर:

पुराणों की कथाओं में यह सीख दी गई है कि मनुष्य जीवन की हर स्थिति में जीना सीखे, समस्याएँ उत्पन्न होने पर उसके समाधान का उपाय सोचे। समस्याओं का समाधान करने की क्षमता से व्यक्ति की महानता का संबंध बताकर समस्याएँ हमें संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं।


(17) श्रमहीन शरीर की दशा जंग लगी हुई चाबी की तरह अथवा अन्य किसी उपयोगी वस्तु की तरह निष्क्रिय हो जाती है। शारीरिक श्रम वस्तुत जीवन का आधार है, जीवंतता की पहचान है। योगाभ्यास में तो पहली शिक्षा होती है आसन आदि के रूप में शरीर को श्रमशीलता का अभ्यस्त बनाना।

महात्मा गांधी अपना काम अपने हाथ से करने पर बल देते थे। वह प्रत्येक आश्रमवासी से आशा करते थे कि वह अपने शरीर से संबंधित प्रत्येक कार्य सफ़ाई तक स्वयं करेगा। उनका कहना था कि जो श्रम नहीं करता है, वह पाप करता है और पाप का अन्न खाता है।


ऋषि मुनियों ने कहा है- बिना श्रम किए जो भोजन करता है, वह वस्तुतः चोर है। महात्मा गांधी का समस्त जीवन दर्शन श्रम सापेक्ष था। उनका समस्त अर्थशास्त्र यही बताता था कि प्रत्येक उपभोक्ता को उत्पादनकर्ता होना चाहिए। उनकी नीतियों की उपेक्षा करने का परिणाम हम आज भी भोग रहे हैं। न गरीबी कम होने में आती है, न बेरोजगारी पर नियंत्रण हो पा रहा है और न अवरोधों की वृद्धि हमारे वश की बात रही है। दक्षिण कोरिया वासियों ने श्रमदान करके ऐसे श्रेष्ठ भवनों का निर्माण किया है, जिनसे किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है।


श्रम की अवज्ञा के परिणाम का सबसे ज्वलंत उदाहरण है, हमारे देश में व्याप्त शिक्षित वर्ग की बेकारी। हमारा शिक्षित युवा वर्ग शारीरिक श्रमपरक कार्य करने से परहेज करता है, वह यह नहीं सोचता है कि शारीरिक श्रम परिमाणतः कितना सुखदायी होता है। पसीने से सिंचित वृक्ष में लगने वाला फल कितना मधुर होता है। ‘दिन अस्त और मज़दूर मस्त’ इसका भेद जानने वाले महात्मा ईसा मसीह ने अपने अनुयायियों को यह परामर्श दिया था कि तुम केवल पसीने की कमाई खाओगे। पसीना टपकाने के बाद मन को संतोष और तन को सुख मिलता है, भूख भी लगती है और चैन की नींद भी आती है। हमारे समाज में शारीरिक श्रम न करना सामान्यतः उच्च सामाजिक स्तर की पहचान माना जाता है।


यही कारण है कि ज्यों के यों आर्थिक स्थिति में सुधार होता जाता है। त्यों त्यों बीमारी व बीमारियों की संख्या में वृद्धि होती जाती है। इतना ही नहीं बीमारियों की नई-नई किस्में भी सामने आती जाती हैं। जिसे समाज में शारीरिक श्रम के प्रति हेय दृष्टि नहीं होती है, वह समाज अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ एवं सुखी दिखाई देता है। विकसित देशों के निवासी शारीरिक श्रम को जीवन का अवश्यक अंग समझते हैं। ऐसे उदाहरण भारत में ही मिल सकते हैं, शत्रु दरवाजा तोड़ रहे हैं और नवाब साहब इंतज़ार कर रहे हैं जूते पहनने वाली बाँदी का।


प्रश्नः (क)

जीवन का आधार क्या है और क्यों?

उत्तर:

जीवन का आधार शारीरिक श्रम है। इसका कारण यह है कि जो शरीर श्रम नहीं करता है, उसकी दशा उस जंग लगी चाबी जैसी होती है जो उपयोग में न आने के कारण बेकार हो जाती है। अपठित गद्यांश


प्रश्नः (ख)

गांधी जी की नीति क्या थी? उसकी उपेक्षा का परिणाम हम किस रूप में भोग रहे हैं?

उत्तर:

गांधी जी की नीति यह थी कि प्रत्येक व्यक्ति अपना काम स्वयं करे। श्रम न करने वाला पाप का अन्न खाता है। उनकी नीतियों की उपेक्षा का परिणाम हम इन रूपों में भोग रहे हैं


गरीबी कम न होना

बेरोज़गारी पर नियंत्रण न होना

अपराध में वृद्धि

प्रश्नः (ग)

समाज की आर्थिक स्थिति और बीमारियों में संबंध बताते हुए श्रम के दो लाभ लिखिए।

उत्तर:

समाज की आर्थिक स्थिति और बीमारियों में गहरा संबंध है। ज्यों-ज्यों समाज की आर्थिक स्थिति बढ़ती है त्यों-त्यों वहाँ बीमारियों की संख्या भी बढ़ती जाती है क्योंकि व्यक्ति परिश्रम से विमुख होने लगता है। परिश्रम करने से-


व्यक्ति स्वस्थ रहता है।

व्यक्ति को भूख लगती है और चैन की नींद आती है।

प्रश्नः (घ)

शिक्षित वर्ग की बेकारी का क्या कारण है? यह वर्ग किस बात से अनभिज्ञ है?

उत्तर:

युवा शिक्षित वर्ग की बेकारी का कारण शारीरिक श्रम की उपेक्षा है। यह वर्ग इस बात से अनभिज्ञ है कि शारीरिक श्रम कितना सुखदायी होता है और पसीने से सिंचित वृक्ष में लगने वाला फल कितना मधुर होता है।


प्रश्नः (ङ)

श्रम के प्रति भारत और अन्य देशों की सोच में क्या अंतर है? इस सोच का परिणाम क्या होता है?

उत्तर:

श्रम के प्रति हमारे देश की सोच यह है कि जब ज़रूरत आ पड़ेगी तब देखा जाएगा वही अन्य देश इसे जीवन का आवश्यक अंग समझते हैं। इस सोच का परिणाम यह होता है कि परिश्रम करने वाले देश उन्नति करते हैं तथा दूसरे पिछड़ते जाते हैं।


(18) ईश्वर के प्रति आस्था वास्तव में जन्मजात न होकर सामान्यतः हमारे घर-परिवार और परिवेश से हमें संस्कारों के रूप में मिलती है और ज़्यादातर लोग बचपन में इसे बिना कोई प्रश्न किए ही ग्रहण करते हैं। हमें छह में से सिर्फ एक व्यक्ति ऐसा मिला जिसका कहना है कि वह बचपन से ही ईश्वर के अस्तित्व के प्रति संदेहशील हो चला था, लेकिन पाँच ने कहा कि उनके साथ ऐसी स्थिति नहीं थी। जिस व्यक्ति ने यह कहा कि बचपन से ही उसने ईश्वर के बारे में अपने संदेह प्रकट करने शुरू कर दिए थे, उसका कहना था कि ऐसा उसने शायद अपने आसपास के जीवन में सामाजिक विसंगतियाँ देखकर किया होगा, क्योंकि उसके सवालों के स्रोत यही थे।


एक तरफ उसने पाया कि धार्मिक पुस्तकें और धार्मिक लोगों के कथनों से कुछ और बात निकलती हैं, लेकिन जो आसपास के वातावरण में उन्हें देखने को मिलता है तथा ये धार्मिक लोग स्वयं जो व्यवहार करते हैं वह कुछ और है, लेकिन बाकी पांच ने सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों और ईश्वर के प्रति आस्था में अंतर्संबंध पहले नहीं देखे थे। जिन लोगों ने ईश्वर में आस्था बाद में खो दी, उन्होंने माना कि इसका मूल कारण उनका पुस्तकों से बचपन से ही संपर्क में आना रहा है। बाद में निरीश्वरवादी विचारों तथा नास्तिकों के संपर्क में आने से ईश्वर में आस्था बाद में खो दी। वे नहीं मानते कि उनके इस जीवन में बाद में कभी ऐसा कोई समय भी आ सकता है, जब वे ईश्वर की तरफ पुनः लौटने की बाध्यता महसूस करेंगे, हालांकि वे स्वीकार करते हैं कि उन्होंने ऐसे लोगों को भी देखा है, जो अपने युवाकाल में घनघोर नास्तिक थे, मगर जीवन के अंतिम दौर तक आकर घनघोर आस्तिक बन गये।


आस्तिकों का कहना है कि ईश्वर के विरुद्ध कोई कितना ही मज़बूत तर्क पेश करे, उनकी ईश्वर में आस्था कभी कमज़ोर नहीं पड़ेगी। तर्क वे सुन लेंगे, लेकिन ईश्वर नहीं है, इस बात को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करेंगे। उनका मानना है कि तर्क से ईश्वर को पाया नहीं जा सकता, वह तो तर्कातीत है। दूसरी तरफ जिन्होंने ईश्वर में अपनी आस्था खो दी है, उनका कहना है कि उन्होंने अपनी नव अर्जित नास्तिकता के कारण अपने परिवार और समाज में अकेला पड़ जाने का खतरा भी उठाया है लेकिन धीरे-धीरे अपने परिवार में उन्होंने ऐसी स्थिति पैदा कर ली है कि उन्हें इस रूप में स्वीकार किया जाने लगा है।

यह पाया गया कि ईश्वर में व्यक्ति की आस्था को कायम रखने के लिए तमाम तरह का संस्थागत समर्थन निरंतर मिलता रहता है, जबकि इसके विपरीत स्थिति नहीं है।


वे संस्थाएँ भी ईश्वर और धर्म के प्रति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आस्था पैदा और मज़बूत करने की कोशिश करती हैं, जिनका कि प्रत्यक्ष रूप से धर्म से कोई संबंध नहीं है। जैसे परिवार, पास-पड़ोस, स्कूल, अदालतें, काम की जगहें आदि। एक साथी ने बताया कि वे एक ऐसे कालेज में काम करते थे, जहाँ रोज सुबह ईश्वर की प्रार्थना गाई जाती है, जिससे छात्र-छात्राएँ तो किसी तरह बच भी सकते हैं, लेकिन अध्यापक नहीं, अगर वे बचने की कोशिश करते हैं, तो उनकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है।


प्रश्न

प्रश्नः (क)

ईश्वर के प्रति आस्था हम कहाँ से ग्रहण करते हैं ? हम उसे किस तरह स्वीकारते हैं ?

उत्तर:

ईश्वर के प्रति आस्था हम अपने घर-परिवार और परिवेश से संस्कार के रूप में ग्रहण करते हैं। इस आस्था पर कोई तर्क वितर्क या सोच-विचार किए बिना हम ग्रहण कर लेते हैं।


प्रश्नः (ख)

छह में से एक व्यक्ति के ईश्वर के प्रति संदेहशील हो उठने का क्या कारण था?

उत्तर:

छह में से एक व्यक्ति के ईश्वर के प्रति संदेहशील हो उठने का कारण था- उसके द्वारा अपने आसपास के जीवन में सामाजिक विसंगतियाँ देखना। उसने पाया कि धार्मिक पुस्तकें और धार्मिक लोग की बातों में और उनके व्यवहार में बहुत अंतर है।


प्रश्नः (ग)

ईश्वर के प्रति आस्था खो देने का क्या कारण था? वे अपने विचार का किस तरह खंडन करते दिखाई देते हैं ?

उत्तर:

ईश्वर के प्रति आस्था खो देने का कारण था- बचपन से ही पुस्तकों के संपर्क में आना और बाद में निरीश्वरवादी और नास्तिकों के संपर्क में आना। ये लोग कहते हैं कि उन्होंने ऐसे लोगों को देखा है कि युवावस्था में घोर नास्तिक थे परंतु जीवन के अंतिम समय में घोर आस्तिक बन गए। ऐसा कहकर वे अपने विचारों का खंडन करते हैं।


प्रश्नः (घ)

ईश्वर के बारे में आस्तिकों का क्या कहना है? इस बारे में वे क्या तर्क देते हैं?

उत्तर:

ईश्वर के बारे में आस्तिकों का कहना है कि कोई ईश्वर के विरुद्ध कितना भी मज़बूत तर्क प्रस्तुत करे पर वे अपनी आस्था को कमज़ोर नहीं होने देंगे। इस बारे में वे तर्क देते हैं कि ईश्वर को तर्क से नहीं पाया जा सकता है वह तर्क से परे है।


प्रश्नः (ङ)

नास्तिक हो जाने से व्यक्ति क्या हानि उठता है?

उत्तर:

नास्तिक हो जाने से व्यक्ति परिवार और समाज में अकेला पड़ जाता है। बाद में उसे लोगों के बीच ऐसी स्थिति बनानी पड़ती है कि सब उसे उसी स्थिति में स्वीकार करें।


अपठित काव्यांश

निम्नलिखित काव्यांश तथा उन पर आधारित प्रश्नोत्तर ध्यानपूर्वक पढ़िए-


1.


हॅस ली दो क्षण खुशी मिली गर

वरना जीवन-भर क्रदन है।

किसका जीवन हँसी-खुशी में

इस दुनिया में रहकर बीता?

सदा-सर्वदा संघर्षों को

इस दुनिया में किसने जीता?

खिलता फूल म्लान हो जाता

हँसता-रोता चमन-चमन है।

कितने रोज चमकते तारे

दूर तलक धरती की गाथा

मौन मुखर कहता कण-कण है।

यदि तुमको सामथ्र्य मिला तो

मुसकाओं सबके संग जाकर।


कितने रह-रह गिर जाते हैं,

हँसता शशि भी छिप जाता है ,

जब सावन घन घिर आते हैं।

उगता-ढलता रहता सूरज

जिसका साक्षी नील गगन है।

आसमान को छुने वाली,

वे ऊँची-ऊँची मीनारें।

मिट्टी में मिल जाती हैं वे

छिन जाते हैं सभी सहारे।

यदि तुमको मुसकान मिली तो

थामो सबको हाथ बढ़ाकर।

झाँको अपने मन-दर्पण में

प्रतिबिंबित सबका आनन है।


 


प्रश्न 


(क) कवि दो क्षण के लिए मिली खुशी पर हँसने के लिए क्यों कह रहा है? 1

(ख) कविता में संसार की किस वास्तविकता को प्रस्तुत किया गया है? 1

(ग) धरती का कण-कण कौन-सी गाथा सुनाता रहा है? 1

(घ) भाव स्पष्ट कीजिए-1

झाँको अपने मन-दर्पण में

प्रतिबिंबित सबका आनन है।

(ङ) ‘उगता-ढलता रहता सूरज’ के माध्यम से कवि ने क्या कहना चाहा है? 1


उत्तर-


(क) जीवन में बहुत आपदाएँ हैं। अत: जब भी हँसी के क्षण मिल जाएँ तो उन क्षणों में हँस लेना चाहिए। कवि इसलिए कहता है जब अवसर मिले हँस लेना चाहिए। खुशी मनानी चाहिए।

(ख) कविता में बताया गया है कि संसार में सब कुछ नश्वर है।

(ग) धरती का कण-कण गाथा सुनाता आ रहा है कि आसमान को छूने वाली ऊँची-ऊँची दीवारें एक दिन मिट्टी में मिल जाती हैं। सभी सहारे दूर हो जाते हैं। अत: यदि समय है तो सबके साथ मुस्कराओ और यदि सामथ्र्य है तो सबको सहारा दो।

(घ) यहाँ कवि का अभिप्राय है कि यदि अपने मन-दर्पण में झाँककर देखोगे तो सभी के एक-समान चेहरे नजर आएँगे अर्थात् सभी एक ईश्वर के ही रूप दिखाई देंगे।

(ङ) ‘उगता-ढलता रहता सूरज’ के माध्यम से कवि ने कहना चाहा है कि जीवन में समय एक-सा नहीं रहता है। अच्छे-बुरे समय के साथ-साथ सुख-दुख आते-जाते रहते हैं।


2.


क्या रोकेंगे प्रलय मेघ ये, क्या विद्युत-घन के नर्तन,

मुझे न साथी रोक सकेंगे, सागर के गर्जन-तर्जन।


मैं अविराम पथिक अलबेला रुके न मेरे कभी चरण,

शूलों के बदले फूलों का किया न मैंने मित्र चयन।

मैं विपदाओं में मुसकाता नव आशा के दीप लिए

फिर मुझको क्या रोक सकेंगे जीवन के उत्थान-पतन, 


मैं अटका कब, कब विचलित मैं, सतत डगर मेरी संबल

रोक सकी पगले कब मुझको यह युग की प्राचीर निबल

आँधी हो, ओले-वर्षा हों, राह सुपरिचित है मेरी,

फिर मुझको क्या डरा सकेंगे ये जग के खंडन-मंडन।


मुझे डरा पाए कब अंधड़, ज्वालामुखियों के कंपन,

मुझे पथिक कब रोक सके हैं अग्निशिखाओं के नर्तन।

मैं बढ़ता अविराम निरंतर तन-मन में उन्माद लिए,

फिर मुझको क्या डरा सकेंगे, ये बादल-विद्युत नर्तन।


प्रश्न  


(क) उपर्युक्त काव्यांश के आधार पर कवि के स्वभाव की किन्हीं दो प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। 1

(ख) कविता में आए मेघ, विदयुत, सागर की गर्जना और ज्वालामुखी किनके प्रतीक हैं? कवि ने उनका संयोजन यहाँ क्यों किया है? 1

(ग) ‘शूलों के बदले फूलों का किया न मैंने कभी चयन’-पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए। 1

(घ) ‘युग की प्राचीर’ से क्या तात्पर्य है? उसे कमजोर क्यों बताया गया है? 1

(ङ) किन पंक्तियों का आशय है-तन-मन में दृढ़निश्चय का नशा हो तो जीवन मार्ग में बढ़ते रहने से कोई नहीं. रोक सकता? 1


उत्तर-


(क) कवि के स्वभाव की निम्नलिखित दो विशेषताएँ हैं-


(अ) गतिशीलता

(ब) साहस व संघर्षशीलता


(ख) मेघ, विद्युत, सागर की गर्जना व ज्वालामुखी जीवनपथ में आई बाधाओं के परिचायक हैं। कवि इनका संयोजन इसलिए करता है ताकि अपनी संघर्षशीलता व साहस को दर्शा सके।

(ग) इसका अर्थ है कि कवि ने हमेशा चुनौतियों से पूर्ण कठिन मार्ग चुना है। वह सुख-सुविधा पूर्ण जीवन नहीं जीना चाहता।

(घ) इसका अर्थ है, समय की बाधाएँ। कवि कहता है कि संकल्पवान व्यक्ति बाधाओं व संकटों से घबराता नहीं है। वह उनसे मुकाबला कर उन पर विजय पा लेता है।

(ङ) ये पंक्तियाँ हैं-

मैं बढ़ता अविराम निरंतर तन-मन में उन्माद लिए, फिर मुझको क्या डरा सकेंगे, ये बादल-विद्युत नर्तन।


3.


यह मजूर, जो जेठ मास के इस निधूम अनल में

कर्ममग्न है अविकल दग्ध हुआ पल-पल में;

यह मजूर, जिसके अंगों पर लिपटी एक लैंगोटी;

यह मजूर, जर्जर कुटिया में जिसकी वसुधा छोटी;

किस तप में तल्लीन यहाँ है भूख-प्यास को जीते,

किस कठोर साधन में इसके युग के युग हैं बीते।


कितने महा महाधिप आए, हुए विलीन क्षितिज में,

नहीं दृष्टि तक डाली इसने, निर्विकार यह निज में।

यह अविकंप न जाने कितने घूंट पिए हैं विष के,

आज इसे देखा जब मैंने बात नहीं की इससे।

अब ऐसा लगता है, इसके तप से विश्व विकल है,

नया इंद्रपद इसके हित ही निश्चित है निस्संशय।


प्रश्न  


(क) जेठ के महीने में अपने काम में लगा हुआ मजदूर क्या अनुभव कर रहा है? 1 

(ख) उसकी दीन-हीन दशा को कवि ने किस तरह प्रस्तुत किया है? 1

(ग) उसका पूरा जीवन कैसे बीता है? उसने बडे-से-बड़े लोगों को भी अपना कष्ट क्यों नहीं बताया? 1

(घ) उसने जीवन को कैसे जिया है? उसकी दशा को देखकर कवि को किस बात का आभास होने लगा है? 1

(ङ) आशय स्पष्ट कीजिए: ‘नया इंद्रपद इसके हित ही निश्चित है निस्संशय।’ 1


उत्तर-


(क) जेठ के महीने में अपने काम में लगा हुआ मजदूर अपने काम में मग्न है। गरम मौसम भी उसके कार्य को बाधित नहीं कर रहा है।

(ख) कवि बताता है कि मजदूर की दशा खराब है। वह सिर्फ एक लैंगोटी पहने हुए है। उसकी कुटिया टूटी-फूटी है। वह पेट भरने भर भी नहीं कमा पाता है।

(ग) मजदूर का पूरा जीवन तंगहाली में बीतता है। उसने बड़े-से बड़े लोगों को भी अपना कष्ट नहीं बताया, क्योंकि वह अपने काम में तल्लीन रहता था।

(घ) मजदूर ने सारा जीवन विष का घूंट पीकर जिया। वह सदा अभावों से ग्रस्त रहा। उसकी दशा देखकर कवि को लगता है कि मजदूर की तपस्या से सारा संसार विकल है।

(ङ) इसका अर्थ है कि मजदूर के कठोर तप से यह लगता है कि उसे नया इंद्रपद मिलेगा अर्थात् कवि को लगता है कि अब उसकी हालत में सुधार होगा।


4.


नीलांबर परिधान हरित पट पर सुंदर हैं,

सूर्य चंद्र युग-मुकुट, मेखला रत्नाकर हैं,

नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारे मंडल है,

बंदीजन खग-वृद, शेषफन सिंहासन है

परमहंस सम बाल्यकाल में सब, सुख पाए,

जिसके कारण ‘धूल भरे हीरे कहलाए,

हम खेले कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में

हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हो मोद में

निर्मल तेरा नीर अमृत के सम उत्तम है,

शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है,

षट्क्रतुओं का विविध दृश्य युत अद्भुत क्रम है,

हरियाली का फर्स नहीं मखमल से कम है,


करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेश की

हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की;

जिसकी रज में लोट-लोटकर बड़े हुए हैं,

घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुए हैं,

शुचि-सुधा सींचता रात में तुझ पर चंद्रप्रकाश है

हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है

जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे,

उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे,

लोट-लोट कर वहीं हृदय को शांत करेंगे

उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे,

उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जाएँगे

होकर भव-बंधन-मुक्त हम, आत्मरूप बन जाएँगे।


प्रश्न  


(क) प्रस्तुत काव्यांश में ‘हरित पट’ किसे कहा गया है? 1

(ख) कवि अपने देश पर क्यों बलिहारी जाता है? 1

(ग) कवि अपनी मातृभूमि के जल और वायु की क्या-क्या विशेषता बताता है? 1

(घ) मातृभूमि को ईश्वर का साकार रूप किस आधार पर बताया गया है? 1

(ङ) प्रस्तुत कविता का मूल भाव अपने शब्दों में लिखिए। 1


उत्तर-


(क) यहाँ हरित पट शस्य-श्यामला धरती के लिए कहा है, जिस पर चारों ओर फैली हरियाली मखमल से कम सुंदर नहीं लगती है।

(ख) कवि अपनी सुंदर मातृभूमि से प्रेम करता है जिसकी प्राकृतिक छटा मनोहारी है, जो सर्वथा ईश्वर की साक्षात् प्रतिमूर्ति के रूप में विद्यमान दिखाई देती है।

(ग) कवि अपनी मातृभूमि के जल को अमृत के समान उत्तम, शीतल, निर्मल बताते हैं और वायु को शीतल, सुगंधित और श्रम की थकान को हर लेने वाली बताते हैं।

(घ) मातृभूमि को कवि ने ईश्वर का साकार रूप बताया है, क्योंकि ईश्वर की तरह ही मातृभूमि का मुकुट सूर्य और चंद्र के समान है, शेषनाग का फन सिंहासन के समान है। बादल निरंतर जिसका अभिषेक करते हैं। पक्षी प्रात: चहचहाकर गुणगान करते हैं। तारे इसके लिए फूलों के समान हैं। इस तरह मातृभूमि ईश्वर का साकार रूप है।

(ङ) मूलभाव है कि हमारी मातृभूमि अनुपम है, ईश्वर की साक्षात् प्रतिमूर्ति है। ऐसी मातृभूमि पर हम बलिहारी होते हैं।


5.


मुक्त करो नारी को, मानव।

चिर बदिनि नारी को,

युग-युग की बर्बर कारा से

जननि, सखी, प्यारी को!

छिन्न करो सब स्वर्ण-पाश

उसके कोमल तन-मन के

वे आभूषण नहीं, दाम

उसके बंदी जीवन के!

उसे मानवी का गौरव दे

पूर्ण सत्व दो नूतन,


उसका मुख जग का प्रकाश हो,

उठे अंध अवगुंठन।

मुक्त करो जीवन–संगिनि को,

जननि देवि को आदूत

जगजीवन में मानव के संग ,

हो मानवी प्रतिष्ठित!

प्रेम स्वर्ग हो धरा, मधुर

नारी महिमा से मंडित,

नारी-मुख की नव किरणों से

युग-प्रभाव हो ज्योतित!


प्रश्न  


(क) कनक कि वहा से पुतकरना चहता है बाह अके धन-धन क्यों का क्लब क्यों कर रहा है? ” 1

(ख) कवि नारी के आभूषणों को उसके अलंकरण के साधन न मानकर उन्हें किन रूपों में देख रहा है? 1

(ग) वह नारी को किन दो गरिमाओं से मंडित करा रहा है और क्या कामना कर रहा है? 1

(घ) वह मुक्त नारी को किन-किन रूपों में प्रतिष्ठित करना चाहता है? 1

(ङ) आशय स्पष्ट कीजिए- 1

नारी मुख की नव किरणों से

युग प्रभात हो ज्योतित!


उत्तर-


(क) कवि नारी को पुरुष के बंधन से मुक्त करना चाहता है। वह नारी के जननी, सखी व प्यारी रूप को बताता है, क्योंकि पुरुष का संबंध उसके साथ माँ, दोस्त व पत्नी के रूप में होता है।

(ख) कवक के आष्यों क उके अकण के साधनों मानता वाहउहें नारीक स्तक कम मानता हैं।

(ग) कवि नारी को मानवी तथा मातृत्व की गरिमाओं से मंडित कर रहा है। वह कामना करता है कि उसे पुरुष के समान दर्जा मिले।

(घ) कवि मुक्त नारी को मानवी, युग को प्रकाश देने वाली आदि रूपों में प्रतिष्ठित करना चाहता है।

(ङ) इसका अर्थ है कि नारी के नए रूप से नए युग का प्रभात प्रकाशित हो तथा वह अपने कार्यों से समाज को दिशा दे।


6. 


कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाए,

एक हिलोर इधर से आए एक हिलोर उधर से आए।

प्राणों के लाले पड़ जाएँ, त्राहि-त्राहि स्वर नभ में छाए,

नाश और सत्यानाशों का धुआँधार जग में छा जाए।


बरसे’ आग, जलद जल जाए, भस्मसात भूधर हो जाए,

पाप-पुण्य सदसद् भावों की धूल उड़े उठ दाएँ-बाएँ।

नभ का वक्षस्थल फंट जाए, तारे टूक-टूक हो जाएँ।

कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए।


 


प्रश्न  


(क) कवि की कविता क्रांति लाने में कैसे सहायक हो सकती है? 1

(ख) कवि ने किस प्रकार के उथल-पुथल की कल्पना की है? 1

(ग) आपके] विचार] से नाश और सत्यानाश में क्या अंतर हो सकता है? कवि  उनकी कमना क्यों करता है? 1

(घ) किसी समाज में फैली जड़ता और रूढ़िवादिता केवल क्रांति से ही दूर हो सकती है-पक्ष या विपक्ष  में दो तर्क दीजिए। 1

(ङ) काव्यांश से दो मुहावरे चुनकर उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए। 1


उत्तर-


(क) कवी लोगों में जागरूकता पैदा करता है। वह अपने संदेशों से जनता को कुशासन समाप्त  करने  के लिए प्रेरित करता है।

(ख) कवि से ऐसी उथल-पुथल की चाह की गई है, जिससे समाज में बुरी ताकत पूर्णतया नष्ट हो जाए।

(ग) हमारे विचार में, ‘नाश’ से सिर्फ बुरी ताकतें समाप्त हो सकती हैं, परंतु ‘सत्यानाश’ से सब कुछ नष्ट हो जाता है। इसमें अच्छी ताकतें भी समाप्त हो जाती हैं।

(घ) यह बात बिलकुल सही है कि समाज में फैली जड़ता व रूढ़िवादिता केवल क्रांति से ही दूर हो सकती है। क्रांति से वर्तमान में चल रही व्यवस्था नष्ट हो जाती है तथा नए विचारों को पनपने का अवसर मिलता है।

(ङ) लाले पड़ना-महँगाई के कारण गरीबों को रोटी के लाले पड़ने लगे हैं।

छा जाना-बिजेंद्र ओलंपिक में पदक जीतकर देश पर छा गया।


7.


यदि फूल नहीं बो सकते तो काँटे कम-से-कम मत बोओ!

है अगम चेतना की घाटी, कमजोर बड़ा मानव का मन

ममता की शीतल छाया में होता। कटुता का स्वयं शमन।

ज्वालाएँ जब घुल जाती हैं, खुल-खुल जाते हैं मूंदे नयन।

होकर निर्मलता में प्रशांत, बहता प्राणों का क्षुब्ध पवन।

संकट में यदि मुसका न सको, भय से कातर हो मत रोओ।

यदि फूल नहीं बो सकते तो काँटे कम-से-कम मत बोओ।


प्रश्न  


(क) ‘फूल बोने’ और ‘काँटे बोने’ का प्रतीकार्थ क्या है? 1

(ख) मन किन स्थितियों में अशांत होता है और कैसी स्थितियाँ उसे शांत कर देती हैं? 1

(ग) संकट आ पड़ने पर मनुष्य का व्यवहार कैसा होना चाहिए। और क्यों? 1

(घ) मन में कटुता कैसे आती है और वह कैसे दूर हो जाती है? 1

(ङ) काव्यांश से दो मुहावरे चुनकर वाक्य-प्रयोग कीजिए। 1


उत्तर-


(क) इनका अर्थ है-अच्छे कार्य करना व बुरे कर्म करना।

(ख) मन में विरोध की भावना  के  उदय  के  कारण अशांति का उदय होता है।माता की शीतल छाया  उसे शांत कर देती है।

(ग) संकट आ पड़ने पर मनुष्य को भयभीत नहीं होना चाहिए। उसे मन को मजबूत करना चाहिए। उसे मुस्कराना चाहिए।

(घ) मन में कटुता तब आती है जब उसे सफलता नहीं मिलती। वह भटकता रहता है। स्नेह से यह दूर हो जाता है।

(ङ) काँटे बोना-हमें दूसरों के लिए काँटे नहीं बोने चाहिए। घुल जाना-विदेश में गए पुत्र की खोज खबर न मिलने से विक्रम घुल गया है।


8. 


पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,

तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?

तेरी ही यह देह तुझी से बनी हुई है,

बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है,

फिर अंत समय तूही इसे अचल देख अपनाएगी।

हे मातृभूमि! यह अंत में तुझमें ही मिल जाएगी।


प्रश्न  


(क) यह काव्यांश किसे संबोधित है? उससे हम क्या पाते हैं? 1

(ख) ‘प्रत्युपकार’ किसे कहते हैं? देश का प्रत्युपकार क्यों नहीं हो सकता? 1

(ग) शरीर-निर्माण में मात्भूमि का क्या योगदान है? 1

(घ) ‘अचल’ विशेषण किसके लिए प्रयुक्त हुआ है और क्यों?  1

(ङ) यह कैसे कह सकते हैं कि देश से हमारा संबंध मृत्युपर्यत रहता है? 1


उत्तर-


(क) यह काव्यांश मातृभूमि को संबोधित है। मातृभूमि से हम जीवन के लिए आवश्यक सभी वस्तुएँ पाते हैं।

(ख) किसी से वस्तु प्राप्त करने के बदले में कुछ देना प्रत्युपकार कहलाता है। देश का प्रत्युपकार नहीं हो सकता, क्योंकि मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक हमेशा कुछ-न-कुछ इससे प्राप्त करता रहता है।

(ग) मातृभूमि से ही मनुष्य का शरीर बना है। जल, हवा, आग, भूमि व आकाश-मातृभूमि में ही मिलते हैं।

(घ) ‘अचल’ विशेषण मानव के मृत शरीर के लिए प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि मृत शरीर गतिहीन होता है तथा मातृभूमि ही इसे ग्रहण करती है।

(ङ) मनुष्य का जन्म देश में होता है। यहाँ के संसाधनों से वह बड़ा होता है तथा अंत में उसी में मिल जाता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि देश से हमारा संबंध मृत्युपर्यत रहता है।


9. 


चिड़िया को लाख समझाओ

कि पिंजड़े के बाहर

धरती बड़ी है. निर्मम है,

वहाँ हवा में उसे

बाहर दाने का टोटा है

यहाँ चुग्गा मोटा है।

बाहर बहेलिए का डर है

यहाँ निद्र्वद्व कंठ-स्वर है।

फिर भी चिड़िया मुक्ति का गाना गाएगी,


अपने जिस्म की गंध तक नहीं मिलेगी।

यूँ  तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है,

पर पानी के लिए भटकना है,

यहाँ कटोरी में भरा जल गटकना है।

मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी

पिंजड़े से जितना अंग निकल सकेगा निकालेगी,

हर सू जोर लगाएगी

और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी।


प्रश्न  


(क) पिंजड़े के बाहर का संसार निर्मम कैसे है? 1

(ख) पिंजड़े के भीतर चिड़िया को क्या-क्या सुविधाएँ उपलब्ध हैं? 1

(ग) कवि चिड़िया को स्वतंत्र जगत् की किन वास्तविकताओं से अवगत कराना चाहता है? 1

(घ) बाहर सुखों का अभाव और प्राणों का संकट होने पर भी चिड़िया मुक्ति ही क्यों चाहती है? 1

(ङ) कविता का संदेश स्पष्ट कीजिए। 1


उत्तर-


(क) पिंजड़े के बाहर संसार हमेशा कमजोर को सताने की कोशिश में रहता है। यहाँ सदैव संघर्ष रहता है। इस कारण वह निर्मम है।

(ख) पिंजड़े के भीतर चिड़िया को पानी, अनाज, आवास तथा सुरक्षा उपलब्ध है।

(ग) कवि बताना चाहता है कि बाहर जीने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। भोजन, आवास व सुरक्षा के लिए हर समय मेहनत करनी होती है।

(घ) बाहर सुखों का अभाव व प्राणों का संकट होने पर भी चिड़िया मुक्ति चाहती है, क्योंकि वह आजाद जीवन जीना पसंद करती है।

(ङ) इस कविता में कवि ने स्वाधीनता के महत्व को समझाया है। मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास आजाद परिवेश में हो सकता है।


10.


ले चल माँझी मझधार मुझे, दे-दे बस अब पतवार मुझे।

इन लहरों के टकराने पर आता रह-रह कर प्यार मुझे।

मत रोक मुझे भयभीत न कर, मैं सदा कैंटीली राह चला।

पथ-पथ मेरे पतझारों में नव सुरभि भरा मधुमास पला।


फिर कहाँ डरा पाएगा यह पगले जर्जर संसार मुझे।

इन लहरों के टकराने पर, आता रह-रह कर प्यार मुझे।

मैं हूँ अपने मन का राजा, इस पार रहूँ उस पार चलूँ

मैं मस्त खिलाड़ी हूँ ऐसा जी चाहे जीतें हार चलूँ।


मैं हूँ अबाध, अविराम, अथक, बंधन मुझको स्वीकार नहीं।

मैं नहीं अरे ऐसा राही, जो बेबस-सा मन मार चलूँ।

कब रोक सकी मुझको चितवन, मदमाते कजरारे घन की,

कब लुभा सकी मुझको बरबस, मधु-मस्त फुहारें सावन की।

जो मचल उठे अनजाने ही अरमान नहीं मेरे ऐसे-

राहों को समझा लेता हूँ सब बात सदा अपने मन की

इन उठती-गिरती लहरों का कर लेने दो श्रृंगार मुझे,

इन लहरों के टकराने पर आता रह-रह कर प्यार मुझे।


प्रश्न  


(क) ‘अपने मन का राजा’ होने के दो लक्षण कविता से चुनकर लिखिए। 1

(ख) किस पंक्ति में कवि पतझड़ को भी बसंत मान लेता है? 1

(ग) कविता का केंद्रीय भाव दो-तीन वाक्यों में लिखिए। 1

(घ)कविता के आधार पर कवि-स्वभाव की दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। 1

(ङ) आशय स्पस्ष्टकीजिए-कब रोक सकी मुज्कोम चितवन, मदमाते कजरारे घन की। 1


उत्तर-


(क) ‘अपने मन का राजा’ होने के दो लक्षण निम्नलिखित हैं


कहीं भी रहने के लिए स्वतंत्र हूँ।

मुझे किसी प्रकार का बंधन स्वीकार नहीं है। मैं बंधनमुक्त रहना चाहता हूँ।

(ख) ये पंक्ति हैं-

पथ-पथ मेरे पतझारों में नव सुरभि भरा मधुमास पला।

(ग) इस कविता में कवि जीवनपथ पर चलते हुए भयभीत न होने की सीख देता है। वह विपरीत परिस्थितियों में मार्ग बनाने, आत्मनिर्भर बनने तथा किसी भी रुकावट से न रुकने के लिए कहता है।

(घ) कवि का स्वभाव निभीक, स्वाभिमानी तथा विपरीत दशाओं को अनुकूल बनाने वाला है।

(ङ) इसका अर्थ है कि किसी सुंदरी का आकर्षण भी पथिक के निश्चय को नहीं डिगा सका।


11.


पथ बंद है पीछे अचल है पीठ पर धक्का प्रबल।

मत सोच बढ़ चल तू अभय, प्ले बाहु में उत्साह-बल।

जीवन-समर के सैनिकों संभव असंभव को करो

पथ-पथ निमंत्रण दे रहा आगे कदम, आगे कदम।


ओ बैठने वाले तुझे देगा न कोई बैठने।

पल-पल समर, नूतन सुमन-शय्या न देगा लेटने।

आराम संभव है नहीं जीवन सतत संग्राम है

बढ़ चल मुसाफिर धर कदम, आगे कदम, आगे कदम।


ऊँचे हिमानी श्रृंगपर, अंगार के ध्रु-भृग पर

तीखे करारे खंग पर आरंभ कर अद्भुत सफर

ओ नौजवाँ, निर्माण के पथ मोड़ दे, पथ खोल दे

जय-हार में बढ़ता रहे आगे कदम, आगे कदम।


प्रश्न 


(क) इस काव्यांश में कवि किसे और क्या प्रेरणा दे रहा है? 1

(ख) ‘जीवन-समर के सैनिकों संभव-असंभव को करो”-का भाव स्पष्ट कीजिए। 1

(ग) अदभुत सफर की अदभुतता क्या है? 1

(घ) आशय स्पष्ट कीजिए-जीवन सतत संग्राम है। 1

(ङ) कविता का केंद्रीय भाव दो-तीन वाक्यों में लिखिए। 1


उत्तर-


(क) इस काव्यांश में कवि मनुष्य को निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा दे रहा है।

(ख) कवि ने जीवन को युद्ध के समान बताया है। वह जीवन रूपी युद्ध में लड़ने वाले सैनिकों से हर हाल में विजय प्राप्त करने का आहवान करता है अर्थात् जीवन की विषम परिस्थितियों में भी हार नहीं माननी चाहिए।

(ग) कवि ने अद्भुत सफर के बारे में बताया है। यह सफर हिम से ढकी ऊँची चोटियों पर ज्वालामुखी के लावे पर तथा तीक्ष्ण तलवार पर भी जारी रहता है।

(घ) इसका अर्थ है कि जीवन युद्ध की तरह है जो निरंतर चलता रहता है। मनुष्य सफलता पाने के लिए बाधाओं से संघर्ष करता रहता है।

(ङ) इस कविता में कवि ने जीवन को संघर्ष से युक्त बताया है। मनुष्य को बाधाओं से संघर्ष करते हुए निरंतर आगे बढ़ना चाहिए।


12. 


रोटी उसकी, जिसका अनाज, जिसकी जमीन, जिसका श्रम है;

अब कौन उलट सकता स्वतंत्रता का सुसिद्ध, सीधा क्रम है।

आजादी है। अधिकार परिश्रम का पुनीत फल पाने का,

आजादी है। अधिकार शोषणों की धज्जियाँ उड़ाने का।

गौरव की भाषा नई सीख, भिकमंगो  सी आवाज बदल

सिमटी बाँहों को खोल गरुड़, उड़ने का अब अंदाज बदल।

स्वाधीन मनुज की इच्छा के आगे पहाड़ हिल सकते हैं;

रोटी क्या? ये अंबरवाले सारे सिंगार मिल सकते हैं।


 


प्रश्न  


(क) आजादी क्यों आवश्यक है?  1

(ख) सच्चे अर्थों में रोटी पर किसका अधिकार है? 1

(ग ) कवि ने किन पंक्तियों में गिड़गिड़ाना छोड़कर स्वाभिमानी बनने को कहा है? 1

(घ) कवि व्यक्ति को क्या परामर्श देता है? 1

(ङ) आजाद व्यक्ति क्या कर सकता है?1


उत्तर-


(क) परिश्रम का फल पाने तथा शोषण का विरोध करने के लिए आजादी आवश्यक है।

(ख) सच्चे अर्थों में रोटी पर उसका अधिकार है जो अपनी जमीन पर श्रम करके अनाज पैदा करता है।

(ग) ये पंक्तियाँ हैं गौरव की भाषा की नई सीख, भिखमैंगों सी आवाज बदल।

(घ) कवि व्यक्ति को स्वतंत्रता के साथ जीवन जीने का और उसके बल पर सफलता पाने का परामर्श देता है।

(ङ) जो व्यक्ति आजाद है, वह शोषण का विरोध कर सकता है, पहाड़ हिला सकता है तथा आकाश से तारे तोड़कर ला सकता है।


13.


अपने नहीं अभाव मिटा पाया जीवन भर

पर औरों के सभी अभाव मिटा सकता हूँ।

तूफानों-भूचालों की भयप्रद छाया में,

मैं ही एक अकेला हूँ जो गा सकता हूँ।


मेरे ‘मैं’ की संज्ञा भी इतनी व्यापक है,

इसमें मुझ-से अगणित प्राणी आ जाते हैं।

मुझको अपने पर अदम्य विश्वास रहा है।

मैं खंडहर को फिर से महल बना सकता हूँ।


जब-जब भी मैंने खंडहर आबाद किए हैं,

प्रलय-मेघ भूचाल देख मुझको शरमाए।

में मजदूर मुझे देवों की बस्ती से क्या

मैंने अगणित बार धरा पर स्वर्ग बनाए।


प्रश्न  


(क) उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में किसका महत्व प्रतिपादित किया जाता है? 1

(ख) स्वर्ग के प्रति मजदूर की विरक्ति का क्या कारण है? 1

(ग) किन कठिन परिस्थितियों में भी मजदूर ने अपनी निर्भयता प्रकट की है? 1

(घ) मेरे ‘मैं’ की संज्ञा भी इतनी व्याप इसमें मुझे-से अगणित प्राणी आ जाते हैं। उपर्युक्त पंक्तियों का भाव स्पष्ट करके लिखिए। 1.

(ङ) अपनी शक्ति और क्षमता के प्रति उसने क्या कहकर अपना आत्म-विश्वास प्रकट किया है? 1


 


उत्तर-


(क) उपर्युक्त काव्य पंक्तियों में मजदूर की शक्ति का महत्व प्रतिपादित किया गया है।

(ख) मजदूर निर्माता है। वह अपनी शक्ति से धरती पर स्वर्ग के समान सुंदर बस्तियाँ बना सकता है। इस कारण उसे स्वर्ग से विरक्ति है।

(ग) मजदूर ने तूफानों व भूकंपों में भी घबराहट प्रकट नहीं की है। वह हर मुसीबत का सामना करने को तैयार है।

(घ) उपर्युक्त पक्तियों में ‘मैं’ श्रमिक वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा है। कवि कहना चाहता है कि मजदूर वर्ग में संसार के सभी क्रियाशील प्राणी आ जाते हैं।

(ङ) मजदूर ने कहा है कि खंडहर को भी आबाद कर सकता है। उसकी शक्ति के सामने भूचाल, प्रलय व बादल भी झुक जाते हैं।


14.


निर्भय स्वागत करो मृत्यु का,

मृत्यु है एक विश्राम-स्थल।

जीव जहाँ से फिर चलता है,

धारण कर नव जीवन संबल।


मृत्यु एक सरिता है, जिसमें

श्रम से कातर जीवन नहाकर

फिर नूतन धारण करता है,

काया रूपी वस्त्र बहाकर।


सच्चा प्रेम वही है जिसकी-

तृप्ति आत्म-बलि पर हो निर्भर!

त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है,

करो प्रेम पर प्राण निछावर।


प्रश्न  


(क) कवि ने मृत्यु के प्रति निर्भय बने रहने के लिए क्यों कहा है? 1

(ख) मृत्यु को विश्राम-स्थल क्यों कहा गया है? 1

(ग) कवि ने मृत्यु की तुलना किससे और क्यों की है? 1

(घ) मृत्यु रूपी सरिता में नहाकर जीवन में क्या परिवर्तन आ जाता है? 1

(ङ) सच्चे प्रेम की क्या विशेषता बताई गई है और उसे कब निष्प्राण कहा गया है? 1. 


उत्तर


(क) कवि ने मृत्यु के प्रति निर्भय बने रहने के लिए क्यों कहा है ?

(ख) कवि ने मृत्यु को विश्राम स्थल की संज्ञा दी है। जिस प्रकार मनुष्य चलते-चलते थक जाता है और विश्राम

स्थल पर रुककर पुन: ऊर्जा प्राप्त करता है उसी प्रकार मृत्यु के बाद जीव नए जीवन का सहारा लेकर फिर से चलने लगता है।

(ग) कवि ने मृत्यु की तुलना सरिता से की है, क्योंकि थका व्यक्ति नदी में स्नान करके प्रसन्न होता है। इसी तरह मृत्यु के बाद मानव नया शरीर रूपी वस्त्र धारण करता है।

(घ) मृत्यु रूपी सरिता में नहाकर जीव नया शरीर धारण करता है तथा पुराने को त्याग देता है।

(ङ) सच्चा प्रेम वह है जो आत्मबलिदान देता है। जिस प्रेम में त्याग नहीं होता, वह निष्प्राण होता है।


15.


जीवन एक कुआँ है

अथाह-अगम

सबके लिए एक-सा वृत्ताकार!

जो भी पास जाता है,

सहज ही तृप्ति, शांति, जीवन पाता है!

मगर छिद्र होते हैं जिसके पात्र में,

रस्सी-डोर रखने के बाद भी,

हर प्रयत्न करने के बाद भी-

वह यहाँ प्यासा का प्यासा रह जाता है।


मेरे मन! तूने भी, बार-बार

बड़ी-बड़ी रस्सियाँ बटीं

रोज-रोज कुएँ पर गया

तरह-तरह घड़े को चमकाया,

पानी में डुबाया, उतराया

लेकिन तू सदा हीप्यासा गया,

प्यासा ही आया!

और दोष तूने दिया

कभी तो कुएँ को


कभी पानी को

कभी सब को

मगर कभी जाँचा नहीं खुद को

परखा नहीं घड़े की तली कोचीन्हा नहीं उन असंख्य छिद्रों को

और मूढ! अब तो खुद को परख देख 


प्रश्न  


(क) कविता में जीवन को कुआँ क्यों कहा गया है कैसा व्यक्ति कुएँ के पास जाकर भी प्यासा रह जाता है ?1

(ख) कवि का मन सभी प्रकार के प्रयासों के उपरांत भी प्यासा क्यों रह जाता है? 1

(ग) किन पंक्तियों का आशय है-हम अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को दोषी मानते हैं? 1

(घ) यदि किसी को असफलता प्राप्त हो रही हो तो उसे किन बातों की जाँच-परख करनी चाहिए? 1

(ङ) पात्र में छिद्र होने का आशय क्या है? 1


उत्तर-


(क) कवि ने जीवन को कुआँ कहा है क्योंकि जीवन भी कुएँ की तरह अथाह व अगम है। दोषी व्यक्ति कुएँ के पास जाकर भी प्यासा रह जाता है।

(ख) कवि ने कभी अपना मूल्यांकन नहीं किया। वह अपनी कमियों को नहीं देखता । इस कारण वह सभी प्रकार के प्रयासों के बावजूद प्यासा रह जाता है।

(ग) ये पंक्तियाँ हैं

और दोष तूने दिया

कभी तो कुएँ को

कभी पानी की

कभी सब को।

(घ) यदि किसी को असफलता प्राप्त हो रही हो तो उसे अपनी कमियों के बारे में जानना चाहिए। उन्हें अपने में सुधार करके कार्य करने चाहिए।

(ङ) पात्र में छिद्र होने का आशय है-व्यक्ति में कमी या दोष होना, जो उसके सफल होने में बाधक बनता है।


16.


माना आज मशीनी युग में, समय बहुत महँगा है लेकिन

तुम थोड़ा अवकाश निकाली, तुमसे दो बातें करनी हैं।


उम्र बहुत बाकी है, लेकिन, उम्र बहुत छोटी भी तो है

एक स्वप्न मोती का है तो, एक स्वप्न रोटी भी तो है

घुटनों में माथा रखने से पोखर पार नहीं होता है:

सोया है विश्वास जगा लो, हम सबको नदिया तरनी है!

तुम थोड़ा अवकाश निकाली, तुम से दो बातें करनी हैं।


मन छोटा करने से मोटा काम नहीं छोटा होता है,

नेह-कोष को खुलकर बाँटो, कभी नहीं टोटा होता है,

आँसू वाला अर्थ न समझे, तो सब ज्ञान व्यर्थ जाएँगे:

मत सच का आभास दबा लो, शाश्वत आग नहीं मरनी है!

तुम थोड़ा अवकाश निकाली, तुमसे दो बातें करनी हैं।


प्रश्न  


(क) मशीनी युग में समय महँगा होने का क्या तात्पर्य है? इस कथन पर आपकी क्या राय है?1

(ख) ‘मोती का स्वप्न’ और ‘रोटी का स्वप्न’ से क्या तात्पर्य है? दोनों में क्या अंतर है? 1

(ग) ‘घुटनों में माथा रखने से पोखर पार नहीं होता है’-पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए। 1

(घ) मन और स्नेह के बारे में कवि क्या परामर्श दे रहा है और क्यों? 1

(ङ) ‘आँसू वाला अर्थ न समझे’ का क्या आशय है? 1


उत्तर-


(क) इस युग में व्यक्ति समय के साथ बँध गया है। उसे हर घंटे के हिसाब से मजदूरी मिलती है। हमारी राय में यह बात सही है।

(ख) ‘मोती का स्वप्न’ का तात्पर्य वैभव युक्त जीवन की आकाक्षा से है तथा ‘रोटी का स्वप्न’ का तात्पर्य जीवन की मूल जरूरतों को पूरा करने से है। दोनों में अमीरी व गरीबी का अंतर है।

(ग) इक अ कमान क्रियाहक आगेन वा सकता उसे पिरमकता हणती इसाक किसा हो सकता है।

(घ)मन के बारे में कवि का मानना है कि मनुष्य को हिम्मत रखनी चाहिए। हौसला खोने से बाधा खत्म नहीं होती। स्नेह भी बाँटने से कभी कम नहीं होता। कवि मनुष्य को मानवता के गुणों से युक्त होने के लिए कह रहा है।

(ङ) ‘आँसू वाला अर्थ न समझे’ का अर्थ है-उन अभावग्रस्त दीन-हीन लोगों की आवश्यकताओं को समझना जिन्हें रोटी के भी लाले पड़े रहते हैं। यदि हमें उनसे सहानुभूति नहीं है तो हमारा ज्ञान किसी काम का नहीं हुआ।


17.


नवीन कंठ दो कि मैं नवीन गान गा सकूं,

स्वतंत्र देश की नवीन आरती सजा सकूं!


नवीन दृष्टि का नया विधान आज हो रहा,

नवीन आसमान में विहान आज हो रहा,

खुली दसों दिशा खुले कपाट ज्योति-द्वार के

विमुक्त राष्ट्र-सूर्य भासमान आज हो रहा।


युगांत की व्यथा लिए अतीत आज रो रहा,

दिगंत में वसंत का भविष्य बीज बो रहा,

सुदीर्घ क्रांति झेल, खेल की ज्वलंत आग

सेस्वदेश बल सँजो रहा, कडी थकान खो रहा।

प्रबुद्ध राष्ट्र की नवीन वंदना सुना सकूं!

नवीन बीन दो कि मैं अगीत गान गा सकूं!


नए समाज के लिए नवीन नींव पड़ चुकी,

नए मकान के लिए नवीन ईंट गढ़ चुकी,

सभी कुटुब एक, कौन पास, कौन दूर है

नए समाज का हरेक व्यक्ति एक नूर है।

कुलीन जो उसे नहीं गुमान या गरूर है

समर्थ शक्तिपूर्ण जो किसान या मजूर है।


भविष्य-द्वार मुक्त से स्वतंत्र भाव से चलो,

मनुष्य बन मनुष्य से गले मिले चले चलो,

समान भाव के प्रकाशवान सूर्य के तले

समान रूप-गंध फूल-फूल-से खिले चलो।


पुराण पंथ में खड़े विरोध वैर भाव के

त्रिशूल को दले चलो, बबूल को मले चलो।

प्रवेश-पर्व है स्वेदश का नवीन वेश में

मनुष्य बन–मनुष्य से गले मिलो चले चलो।

नवीन भाव दो कि मैं नवीन गान गा सकूं

नवीन देश की नवीन अर्चना सुना सकूं!


प्रश्न  


(क) कवि ने किन नवीनताओं की चर्चा की है? 1

(ख) ‘नए समाज का हरेक व्यक्ति एक नूर है’-आशय स्पष्ट कीजिए। 1

(ग) कवि मनुष्य को क्या परामर्श देता है? 1

(घ) कवि किस नवीनता की कामना कर रहा है? 1

(ङ) किसान और कुलीन की क्या विशेषता बताई गई है? 1


उत्तर-


(क) कवि कहता है कि उसे नयी आवाज मिले ताकि वह स्वतंत्र देश के लिए नए गीत गा सके तथा नयी आरती सजा सके।

(ख) इसका अर्थ है कि स्वतंत्र भारत का हर व्यक्ति प्रकाश के गुणों से युक्त है। उसके विकास से भारत का विकास होता है।

(ग) कवि मनुष्य को सलाह देता है कि आजाद होने के बाद हमें अब मैत्रीभाव से आगे बढ़ना है। सूर्य व फूलों के समान समानता का भाव अपनाना है।

(घ) कवि कामना करता है कि देशवासियों को वैर-विरोध के भावों को भुलाना चाहिए। उन्हें मनुष्यता का भाव अपनाकर सौहार्दता से आगे बढ़ना है।

(ङ) किसान समर्थ व शक्तिपूर्ण होते हुए भी समाज हित में कार्य करता है तथा कुलीन वह है जो घमंड नहीं दिखाता है।


18.


जिसमें स्वदेश का मान भरा

आजादी का अभिमान भरा

जो निर्भय पथ पर बढ़ आए

जो महाप्रलय में मुस्काए

जो अंतिम दम तक रहे डटे

दे दिए प्राण, पर नहीं हटे

जो देश-राष्ट्र की वेदी पर

देकर मस्तक हो गए अमर

ये रक्त-तिलक-भारत-ललाट!

उनको मेरा पहला प्रणाम

फिर वे जो आँधी बन भीषण

कर रहे आज दुश्मन से रण

बाणों के पवि-संधान बने

जो ज्वालामुख-हिमवान बने

हैं टूट रहे रिपु के गढ़ पर


बाधाओं के पर्वत चढ़कर

जो न्याय-नीति को अर्पित हैं

भारत के लिए समर्पित हैं।

कीर्तित जिससे यह धरा धाम

उन वीरों को मेरा प्रणाम।

श्रद्धानत कवि का नमस्कार

दुर्लभ है छद-प्रसून हार

इसको बस वे ही पाते हैं

जो चढ़े काल पर आते हैं !

हुकृति से विश्व कैंपाते हैं

पर्वत का दिल दहलाते हैं

रण में त्रिपुरांतक बने शर्व

कर ले जो रिपु का गर्व खर्च

जो अग्नि-पुत्र, त्यागी, अकाम

उनको अर्पित मेरा प्रणाम!


प्रश्न  


(क) कवि किन वीरों को प्रणाम करता है? 1

(ख) कवि ने भारत के माथे का लाल चंदन किन्हें कहा है? 1

(ग) दुश्मनों पर भारतीय सैनिक किस तरह वार करते हैं? 1

(घ) उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1

(ङ) कवि की श्रदधा किन वीरों के प्रति है? 1


उत्तर-


(क) कवि उन वीरों को प्रणाम करता है जिनमें स्वदेश का मान भरा है तथा जो निभीक होकर अंतिम दम तक देश के लिए संघर्ष करते हैं।

(ख) कवि ने भारत के माथे का लाल तिलक उन वीरों को कहा है जिन्होंने देश की वेदी पर अपने प्राण न्योछावर कर दिए।

(ग) दुश्मनों पर भारतीय वीर आँधी की तरह भीषण वार करते हैं तथा आग उगलते हुए शत्रुओं के किलों को तोड़ देते हैं।

(घ) शीर्षक-वीरों को मेरा प्रणाम।

(ङ) कवि की श्रद्धा उन वीरों के प्रति है जो मृत्यु से नहीं घबराते तथा अपनी हुकार से विश्व को कपा देते हैं।


19.


पुरुष हो पुरुषार्थ करो, उठो।

पुरुष क्या, पुरुषार्थी हुआ न जो,

हृदय की सब दुर्बलता तजो।

प्रबल जो तुम में पुरुषार्थ हो,

सुलभ कौन तुम्हें न पदार्थ हो?

प्रगति के पथ में विचरो उठो,

पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो।


न पुरुषार्थ बिना कुछ स्वार्थ है,

न पुरुषार्थ बिना परमार्थ है।

समझ लो यह बात यथार्थ है

कि पुरुषार्थ ही पुरुषार्थ है।

भुवन में सुख-शांति भरो, उठो।

पुरुष हो पुरुषार्थ करो, उठो।


न पुरुषार्थ बिना वह स्वर्ग है,

न पुरुषार्थ बिना अपवर्ग है।

न पुरुषार्थ बिना क्रियता कहीं,

न पुरुषार्थ बिना प्रियता कहीं।

सफलता वर-तुल्य वरो, उठो

पुरुष हो पुरुषार्थ करो, उठो।


न जिसमें कुछ पौरुष हो यहाँ

सफलता वह पा सकता कहाँ?

अपुरुषार्थ भयंकर पाप है,

न उसमें यश है, न प्रताप है।

न कृमि-कीट समान मरो, उठो

पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो।


प्रश्न  


(क) प्रथम काव्यांश के माध्यम से कवि ने मनुष्य को क्या प्रेरणा दी है? 1

(ख) मनुष्य पुरुषार्थ से क्या-क्या कर सकता है? 1

(ग) ‘सफलता वर-तुल्य वरो उठो’-पंक्ति का अर्थ स्पष्ट करें। 1

(घ) अपुरुषार्थ भयंकर पाप है-कैसे? 1

(ङ) काव्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए। 1


उत्तर-


(क) प्रथम काव्यांश में कवि मनुष्य को प्रेरणा देता है कि वह अपनी समस्त शक्तियाँ इकट्ठी करके परिश्रम करे। इससे उसका विकास होगा।

(ख) पुरुषार्थ से मनुष्य अपना व समाज का भला कर सकता है। वह विश्व में सुख-शांति की स्थापना कर सकता है।

(ग) इसका अर्थ है कि मनुष्य निरंतर कर्म करे तथा वरदान के समान सफलता को धारणा करे। दूसरे शब्दों में, जीवन में सफलता के लिए परिश्रम आवश्यक है।

(घ) अपुरुषार्थ का अर्थ है-कर्म न करना। जो व्यक्ति परिश्रम नहीं करता, उसे यश नहीं मिलता। उसे वीरत्व नहीं प्राप्त होता है। इसी कारण अपुरुषार्थ को भयंकर पाप कहा गया है।

(ङ) शीर्षक–पुरुषार्थ का महत्त्व अथवा पुरुष हो पुरुषार्थ करो।


20.


मनमोहनी प्रकृति की जो गोद में बसा है।

सुख स्वर्ग-सा जहाँ है, वह देश कौन-सा है।

जिसके चरण निरंतर रत्नेश धो रहा है।

जिसका मुकुट हिमालय, वह देश कौन-सा है।


नदियाँ जहाँ सुधा की धारा बहा रही हैं।

सींचा हुआ सलोना, वह देश कौन-सा है।

जिसके बड़े रसीले, फल, कंद, नाज, मेवे।

सब अंग में सजे हैं, वह देश कौन-सा है।


जिसके सुगंध वाले, सुंदर प्रसून प्यारे।

दिन-रात हँस रहे हैं, वह देश कौन-सा है।

मैदान, गिरि, वनों, में हरियालियाँ महकतीं।

आनंदमय जहाँ है, वह देश कौन-सा है।


जिसकी अनंत वन से धरती भरी पड़ी है।

संसार का शिरोमणि, वह देश कौन-सा है।

सबसे प्रथम जगत में जो सभ्य था यशस्वी।

जगदीश का दुलारा, वह देश कौन-सा है।


प्रश्न 


(क) मनमोहिनी प्रकृति की गोद में कौन-सा देश बसा हुआ है और वहाँ कौन-सा सुख प्राप्त होता है? 1

(ख) भारत की नदियों की क्या विशेषता है? 1

(ग) भारत के फूलों का स्वरूप कैसा है? 1

(घ) जगदीश का दुलारा देश भारत संसार का शिरोमणि कैसे है? 1

(ङ) काव्यांश का सार्थक एवं उपयुक्त शीर्षक लिखिए। 1


उत्तर-


(क) मनमोहिनी प्रकृति की गोद में भारत देश बसा हुआ है। यहाँ स्वर्ग के समान सुख प्राप्त होता है।

(ख) भारत की नदियों की विशेषता है कि इनका जल अमृत के समान है तथा यह निरंतर देश को सींचती रहती हैं।

(ग) भारत के फूल सुंदर व प्यारे हैं। वे दिन-रात हँसते रहते हैं।

(घ) भारत देश जगदीश का दुलारा है तथा यह संसार शिरोमणि है, क्योंकि यहीं पर सबसे पहले सभ्यता फैली।

(ङ) शीर्षक-वह देश कौन-सा है?


21.


जब कभी मछेरे को फेंका हुआ

फैला जाल

समेटते हुए, देखता हूँ

तो अपना सिमटता हुआ

‘स्व’ याद हो आता है

जो कभी समाज, गाँव और

परिवार के वृहत्तर रकबे में

समाहित था ‘सर्व’ की परिभाषा बनकर

और अब केंद्रित हो

गया हूँ, मात्र बिंदु में।

जब कभी अनेक फूलों पर

बैठी, पराग को समेटती

मधुमक्खियों को देखता हूँ

तो मुझे अपने पूर्वजों की

याद हो आती है,

जो कभी फूलों को रंग, जाति, वर्ग

अथवा कबीलों में नहीं बाँटते थे

और समझते रहे थे कि

देश एक बाग है,

और मधु-मनुष्यता

जिससे जीने की अपेक्षा होती है।

किंतु अब

बाग और मनुष्यता

शिलालेखों में जकड़ गई है

मात्र संग्रहालय की जड़ वस्तुएँ।


प्रश्न  


(क) कविता में प्रयुक्त ‘स्व’ शब्द से कवि का क्या अभिप्राय है? उसकी जाल से तुलना क्यों की गई है? 1

(ख) कवि का ‘स्व’ पहले जैसा था और अब कैसा हो गया है और क्यों? 1

(ग) कवि को अपने पूर्वजों की याद कब और क्यों आती है? 1

(घ) उसके पूर्वजों की विचारधारा पर टिप्पणी लिखिए। 1

(ङ) निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों का आशय स्पष्ट कीजिए- 1

“और मनुष्यता

शिलालेखों में जकड़ गई है।”


उत्तर-


(क) यहाँ ‘स्व’ का अभिप्राय निजता से है। इसकी तुलना जाल से की गई है, क्योंकि इसमें भी जाल की तरह विस्तार व संकुचन की क्षमता होती है।

(ख) कवि का ‘स्व’ पहले समाज, गाँव व परिवार के बड़े दायरे में फैला था। आज यह निजी जीवन तक सिमटकर रह गया है, क्योंकि अब वह स्वार्थी हो गया है।

(ग) कवि जब मधुमक्खियों को परागकण समेटते देखता है तो उसे अपने पूर्वजों की याद आती है। पूर्वज रंग, जाति, वर्ग या कबीलों के आधार पर भेदभाव नहीं करते थे।

(घ) कवि के पूर्वज सारे देश को एक बाग के समान समझते थे। वे मनुष्यता को महत्व देते थे।

(ङ) इसका अर्थ है कि आज मनुष्य शिलालेखों की तरह जड़, कठोर, सीमित व कट्टर हो गए हैं। वे जीवन को सहज रूप में नहीं जीते।


22.


तू हिमालय नहीं, तू न गंगा-यमुना

तू त्रिवेणी नहीं, तू न रामेश्वरम्

तू महाशील की है अमर कल्पना

देश! मेरे लिए तू परम वंदना।


मेघ करते नमन, सिंधु धोता चरण,

लहलहाते सहस्त्रों यहाँ खेत-वन।

नर्मदा-ताप्ती, सिंधु, गोदावरी,

हैं कराती युगों से तुझे आचमन।


तू पुरातन बहुत, तू नए से नया

तू महाशील की है अमर कल्पना। ।


देश! मेरे लिए तू महा अर्चना।


शक्ति–बल का समर्थक रहा सर्वदा,

तू परम तत्व का नित विचारक रहा।

शांति-संदेश देता रहा विश्व की।

प्रेम-सद्भाव का नित प्रचारक रहा।


सत्य और प्रेम की है परम प्रेरणा

देश! मेरे लिए तू महा अर्चना।


प्रश्न  


(क) कवि का देश को ‘महाशील की अमर कल्पना’ कहने से क्या तात्पर्य है?1

(ख) भारत देश पुरातन होते हुए भी नित नूतन कैसे है? 1

(ग) ‘तू परम तत्व का नित विचारक रहा’ पंक्ति का भावार्थ स्पष्ट कीजिए। 1

(घ) देश का सत्कार प्रकृति कैसे करती है? काव्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए। 1

(ङ) “शांति-संदेश ……………….रहा” काव्य-पंक्तियों का अर्थ बताते हुए इस कथन की पुष्टि में इतिहास से कोई एक प्रमाण दीजिए। 1


उत्तर-


(क) कवि देश को महाशील की अमर कल्पना कहता है। इसका अर्थ है कि भारत में महाशील के अंतर्गत करुणा, प्रेम, दया, शांति जैसे महान आचरण हैं जिसके कारण भारत का उज्ज्वल चरित्र बना है। ‘

(ख) भारत में करुणा, दया, प्रेम आदि पुराने गुण विद्यमान हैं तथा वैज्ञानिक व तकनीकी विकास भी बहुत हुआ है। इस कारण भारत देश पुरातन होते हुए नित नूतन है।

(ग) इसका अर्थ है कि भारत ने सदा सृष्टि के परम तत्व की खोज की है।

(घ) प्रकृति देश का सत्कार करती है। मेघ यहाँ वर्षा करते हैं, सागर भारत के चरण धोता है। यहाँ लाखों लहलहाते खेत व वन हैं। नर्मदा, ताप्ती, सिंधु, गोदावरी भारत को आचमन करवाती हैं।

(ङ) इसका अर्थ है कि भारत सदा विश्व को शांति का पाठ पढ़ाता रहा है। यहाँ सम्राट अशोक व गौतम बुद्ध ने संसार को शांति व धर्म का पाठ पढ़ाया।


23.


जब-जब बाहें झुकी मेघ की, धरती का तन-मन ललका है

जब-जब मैं गुजरा पनघट से, पनिहारिन का घट छलका है।


सुन बाँसुरिया सदा-सदा से हर बेसुध राधा बहकी है,

मेघदूत को देख यक्ष की सुधियों में केसर महकी है।

क्या अपराध किसी का है फिर, क्या कमजोरी कहूँ किसी की,

जब-जब रंग जमा महफिल में जोश रुका कब पायल का है।


जब-जब मन में भाव उमड़ते, प्रणय श्लोक अवतीर्ण हुए हैं।

जब-जब प्यास जमी पत्थर में, निझर स्रोत विकीर्ण हुए हैं।

जब-जब गूंजी लोकगीत की धुन अथवा आल्हा की कड़ियाँ

खेतों पर यौवन लहराया, रूप गुजरिया का दमका है।


प्रश्न  


(क) मेघों के झुकने का धरती पर क्या प्रभाव पड़ता है और क्यों? 1

(ख) राधा कौन थी? उसे ‘बेसुध’ क्यों कहा है? 1

(ग) मन के भावों और प्रेम-गीतों का परस्पर क्या संबंध है? इनमें कौन किस पर आश्रित है? 1

(घ) काव्यांश में झरनों के अनायास फूट पड़ने का क्या कारण बताया गया है? 1

(ङ) आशय स्पष्ट कीजिए-खेतों पर यौवन लहराया, रूप गुजरिया का दमका है। 1


उत्तर-


(क) मेघों के झुकने पर धरती का तन-मन ललक उठता है, क्योंकि मेघों से बारिश होती है और इससे धरती पर खुशियाँ फैलती हैं।

(ख) राधा कृष्ण की आराधिका थी। वह कृष्ण की बाँसुरी की मधुरता पर मुग्ध थी। वह हर समय उसमें ही खोई रहती थी। इस कारण उसे बेसुध कहा गया है।

(ग) प्रेम का स्थान मन में है। जब मन में प्रेम उमड़ता है तो कवि प्रेम-गीतों की रचना करता है। प्रेम-गीत मन के भावों पर आश्रित होते हैं।

(घ) जब-जब पत्थरों के मन में प्रेम की प्यास जागती है, तब-तब उसमें से झरने फूट पड़ते हैं।

(ङ) इसका अर्थ है कि खेतों में हरी-भरी फसलें लहलहाने पर कृषक-बालिकाएँ प्रसन्न हो जाती हैं। उनके चेहरे खुशी से दमक उठते हैं।


स्वयं करें

निम्नलिखित काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-


1.


यहाँ कोकिला नहीं, काक हैं शोर मचाते।

काले-काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिलीं, मिली हैं कटक-कुल से।

वे पौधे, वे पुष्प, शुष्क हैं अथवा झुलसे।


परिमल-हीन पराग दाग-सा बना पड़ा है।

हा! ये प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

आओ प्रिय ऋतुराज! किंतु धीरे से आना।

यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।


वायु चले मंद चाल से उसे चलाना।

दुख की आहें संग उड़ाकर मत ले जाना।

कोकिल गावे, किंतु राग रोने का गावे।

भ्रमर करे गुजार, कष्ट की कथा सुनावे।


लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले।

हो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ-कुछ गीले।

किंतु न तुम उपहार भाव आकर दरसाना।

स्मृति की पूजा-हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।


कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा—खाकर।

कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर।

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं।

अपने प्रिय परिवार, देश से भिन्न हुए हैं।


कुछ कलियाँ अधखिलीं यहाँ इसलिए चढ़ाना।

करके उनकी याद अश्रु की ओस बहाना।

तड़प-तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खाकर।

शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जाकर।

यह सब करना किंतु,

बहुत धीरे से आना।

यह है शोक-स्थान,

यहाँ मत शोर मचाना।


प्रश्न  


(क) कवि ने बाग की क्या दशा बताई है? 1

(ख) कवि ऋतुराज को धीरे से आने की सलाह क्यों देता है? 1

(ग) ऋतुराज को क्या-क्या न लाने के लिए कहा गया है? 1

(घ) ‘कोमल बालक………………खा-खाकर’ पंक्ति से किस घटना का पता चलता है? 1

(ङ) शुष्क पुष्प कहाँ गिराने की बात कही गई है तथा क्यों? 1


2.


चौड़ी सड़क पतली गली थी,

दिन का समय घनी बदली थी,

रामदास उस समय उदास थी,

अंत समय आ गया पास था,

उसे बता दिया गया था उसकी हत्या होगी।

धीरे-धीरे चला अकेले

सोचा साथ किसी को ले ले

फिर रह गया, सड़क पर सब थे,

सभी मौन थे सभी निहत्थे,

सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी।

खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर,

दोनों हाथ पेट पर रखकर

सधे कदम रख करके आए,


लोग सिमटकर आँख गदाडाए

लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी।

निकट गली से तब हत्यारा

आकर उसने नाम पुकारा

हाथ तौलकर चाकू मारा

छटा लोहू का फव्वारा

कहा नहीं था आखिर उसकी हत्या होगी

भीड़ टेलकर ठेलकर लौट गया वह,

मरा पड़ा है रामदास यह

देखी-देखी बार-बार कह

लोग निडर उस जगह खड़े रह,

लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी।


प्रश्न  


(क) रामदास की उदासी का क्या कारण था? 1

(ख) रामदास सड़क पर अकेले क्यों आया? 1

(ग) हत्यारा अपने उददेश्य में क्यों कामयाब हो गया? 1

(घ) समाज की इस मानसिकता को आप कितना उचित समझते हैं? 1

(ङ) लोगों ने रामदास की सहायता क्यों नहीं की? 1


3.


एक फाइल ने दूसरी फाइल से कहा

बहन लगता है

साहब हमें छोड़कर जा रहे हैं

इसीलिए तो सारा काम

जल्दी-जल्दी निपटा रहे हैं

मैं बार-बार सामने जाती हूँ

रोती हूँ, गिडगिडाती हूँ

करती हूँ विनती हर बार

साहब जी! इधर भी देख लो एक बार।


पर साहब हैं कि ………

कभी मुझे नीचे पटक देते हैं

कभी पीछे सरका देते हैं

और कभी-कभी तो

फाइलों के ढेर तले

दबा देते हैं।


अधिकारी बार-बार

अंदर झाँक जाता है

डरते-डरते पूछ जाता है

साहब कहाँ गए ………?

हस्ताक्षर हो गए……….?


दूसरी फाइल ने उसे

प्यार से समझाया

जीवन का नया फलसफा सिखाया

बहन! हम यूँ ही रोते  हैं

बेकार गिडगिडाते  हैं

लोग आते हैं, जाते हैं।

हस्ताक्षर कहाँ रुकते हैं

हो ही जाते हैं।


पर कुछ बातें ऐसी होती हैं

जो दिखाई नहीं देतीं

और कुछ आवाजें

सुनाई नहीं देतीं

जैसे फूल खिलते हैं

और अपनी महक छोड़ जाते हैं

वैसे ही कुछ लोग

कागज पर नहीं

दिलों पर हस्ताक्षर छोड़ जाते हैं।


प्रश्न  


(क) साहब जल्दी-जल्दी काम क्यों निपटा रहे हैं? 1

(ख) फाइल की विनती पर साहब की क्या प्रतिक्रिया होती है? 1

(ग) ‘हस्ताक्षर कहाँ रुकते हैं, हो ही जाते हैं।’-पंक्ति में छिपा व्यंग्य बताइए। 1

(घ) दूसरी फाइल ने पहली फाइल को क्या समझाया? 1

(ङ) इस काव्यांश का भाव स्पष्ट करें। 1


4.


विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना नहीं

केवल इतना हो (करुणामय)

कभी न विपदा में पाऊँ भय।

दुःख–ताप से व्यथित चित्त को न दो सांत्वना

नहीं सही

पर इतना होवे (करुणामय)

दुख को मैं कर सकूं सदा जय।

कोई कहीं सहायक न मिले

तो अपना बल पौरुष न हिले,


हानि उठानी पड़े जगत में लाभ अगर वंचना रही

तो भी मन में ना मानूँ क्षय।

मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं

बस इतना होवे (करुणामय)

तरने की ही शक्ति अनामय

मेरा भार अगर लघु करके न दो सांत्वना

नहीं सही।

केवल इतना रखना अनुनय

वहन कर सकूं इसको निर्भय।


प्रश्न  


(क) विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना नहीं – पंक्ति के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है? 1

(ख) कवि अपना कोई सहायक न मिलने पर क्या प्रार्थना करता है? 1

(ग) कवि निर्भय होकर क्या वहन करना चाहता है? 1

(घ) बल पौरुष न हिलने का क्या तात्पर्य है? 1

(ङ) साधारण मनुष्य और कवि की प्रार्थना में क्या अंतर दिखाई देता है? काव्यांश के आधार पर लिखिए। 1


5.


ग्राम, नगर या कुछ लोगों का

नाम नहीं होता है देश।

संसद, सड़कों, आयोगों का

नाम नहीं होता है देश।

देश नहीं होता है केवल

सीमाओं से घिरा मकान।

देश नहीं होता है कोई

सजी हुई ऊँची दुकान।

देश नहीं क्लब जिसमें बैठे

करते रहें सदा हम मौज।

देश नहीं होता बंदूकें

देश नहीं होता है फौज।

जहाँ प्रेम के दीपक जलते

वहीं हुआ करता है देश।


जहाँ इरादे नहीं बदलते

वहीं हुआ करता है देश।

हर दिल में अरमान मचलते,

वहीं हुआ करता है देश।

सज्जन सीना ताने चलते,

वहीं हुआ करता है देश।

देश वहीं होता जो सचमुच,

आगे बढ़ता कदम-कदम।

धर्म, जाति, सीमाएँ जिसका,

ऊँचा रखते हैं परचम।

पहले हम खुद को पहचानें,

फिर पहचानें अपना देश

एक दमकता सत्य बनेगा,

वहीं रहेगा सपना देश।


प्रश्न   


(क) कवि किसे देश नहीं मानता? 1

(ख) ‘पहले हम खुद को पहचानें, फिर पहचानें अपना देश’-इस पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए। 1

(ग) किन-किन बातों से देश की पहचान होती है? 1

(घ) देश के मस्तक को ऊँचा रखने में किन-किनका योगदान होता है? 1

(ङ) कवि क्या कहना चाहता है?1


6.


बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया

तले जल नहा, पहन श्वेत वसन आई

खुले लान बैठे गई दमकती लुनाई

सूरज खरगोश धवल गोद उछल आया

बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया

नभ के उद्यान-छत्र-तले मेघ टीला

पड़ा हरा फूल कढ़ा मेजपोश पीला

वृक्ष खुली पुस्तक हर पेड़ फड़फड़ाया

बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।


पैरों में मखमल की जूती-सी क्यारी

मेघ ऊन का गोला बुनती सुकुमारी

डोलती सिलाई, हिलता जल लहराया

बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया

बोली कुछ नहीं, एक कुर्सी थी खाली

हाथ बढ़ा छज्जे की छाया सरका ली

बाँह छुड़ा भागा, गिर बर्फ हुई छाया

बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।


प्रश्न  


(क) धूप किस रूप में आई? 1

(ख) ‘पड़ा हरा फूल मेजपोश पीला’ पंक्ति से क्या तात्पर्य है? 1

(ग) कवि बाँह छुड़ा कब और क्यों भागा? 1

(घ) सुकुमारी क्या बुन रही थी? उससे जल पर क्या प्रभाव पड़ा? 1

(ङ) मेघ रूपी टीले की विशेषता काव्यांश के आधार पर लिखिए। 1


7.


अभी परिंदों

में धड़कन है

पेड़ हरे है जिंदा धरती,

मत उदास

हो छाले लखकर,

चाहे

थके पर्वतारोही

धूप शिखर पर चढ़ती रहती।

फिर-फिर समय का पीपल कहता

बढ़ो हवा की लेकर हिम्मत,

बरगद का आशीष सिखाता

खोना नहीं प्यार की दौलत

पथ में


ओी माझी नदियां कब थकती?

चाँद भले ही बहुत दूर हो

राहों को चाँदनी सजाती,

हर गतिमान चरण की खातिर

बदली खुद छाया बन जाती।

रात भोले घिर आए,

कभी सूर्य की दौड़ न रुकती

कितने ही पक्षी बेघर हैं

हिरनों के बच्चे बेहाल,

तम से लड़ने कौन चलेगारोज दिए का यही सवाल

पग-पग है आँधी की साजिश पथ में

पर मशाल की जग न थमती।


प्रश्न  


(क) उदास व्यक्ति को कवि किस तरह उत्साहित कर रहा है? 1

(ख) कवि ने नदी का उदाहरण किस संदर्भ में दिया है और क्यों? 1

(ग) पीपल मनुष्य को क्या प्रेरणा देता है? 1

(घ) दीप मनुष्य से क्या सवाल करता है? उससे मनुष्य को क्या प्रेरणा लेनी चाहिए? 1

(ङ) बदली किसकी प्रतीक है? वह किनके लिए छाया बन जाती है? 1


8.


उसे दरवाजे पर रखकर

चला गया है माली

उसका वहाँ होना

अटपटा लगता है मेरी आँखों को

पर जाते हुए दिन की

धुंधली रोशनी में

उसकी वह अजब अड़बंग-सी धूल भरी

धज

आकर्षित करती है मुझे

काम था

सो हो चुका है

मिट्टी थी

सो खुद चुकी है जड़ों तक

और अब कुदाल है कि एक चुपचाप

चुनौती की तरह

खड़ी है दरवाजे पर

सोचता हूँ उसे वहाँ से उठाकर

ले जाऊँ अंदर

और रख दूँ किसी कोने में

ड्राइंग-रूम कैसा रहेगा-

मैं सोचता हूँ


न सही कुदाल

एक अलंकार ही सही

यदि वहाँ रह सकती है नागफनी

तो कुदाल क्यों नहीं?

पर नहीं-मेरे मन ने कहा

कुदाल नहीं रह सकती ड्राइंग-रूम में

इससे घर का संतुलन बिगड़ सकता है

फिर किया क्या जाए मैंने सोचा

कि तभी ख्याल आया

उसे क्यों न छिपा दूँ।

पलंग के नीचे के अंधेरे में

इससे साहस थोड़ा दबेगा जरूर

पर हवा में जो भर जाएगी एक रहस्य की गंध

उससे घर की गरमाहट कुछ बढ़ेगी ही

लेकिन पलंग के नीचे कुदाल?

मैं ठठाकर हँस पड़ा इस अद्भुत बिंब पर

अंत में कुदाल के सामने रुककर

मैंने कुछ देर सोचा कुदाल के बारे में

सोचते हुए लगा उसे कंधे पर रखकर

किसी अदृश्य अदालत में खड़ा हूँ मैं

पृथ्वी पर कुदाल के होने की गवाही में


प्रश्न  


(क) माली किस वस्तु को घर के दरवाजे पर रखकर चला गया और क्यों? 1

(ख) कवि ने कुदाल को दरवाजे के निकट रख कर क्या सोचा? 1

(ग) ‘यदि वहाँ रह सकती है नागफनी

तो कुदाल क्यों नहीं’

आशय स्पष्ट कीजिए। 1

(घ) कुदाल के बारे में सोचते हुए कवि को क्या महसूस हुआ? 1

(ङ) कवि कुदाल को अलंकार की तरह ड्राइग रूम में नहीं सजा पाता है, क्यों? 1

निम्नलिखित काव्यांश को पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए –

1. कोलाहल हो,
या सन्नाटा, कविता सदा सृजन करती है,
जब भी आँसू
कविता सदा जंग लड़ती है।
यात्राएँ जब मौन हो गईं
कविता ने जीना सिखलाया
जब भी तम का
जुल्म चढ़ा है, कविता नया सूर्य गढ़ती है,

जब गीतों की फ़सलें लुटती
शीलहरण होता कलियों का,
शब्दहीन जब हुई चेतना हुआ पराजित,
तब-तब चैन लुटा गलियों का जब भी कर्ता हुआ अकर्ता,
जब कुरसी का
कंस गरजता, कविता स्वयं कृष्ण बनती है।
अपने भी हो गए पराए कविता ने चलना सिखलाया।
यूँ झूठे अनुबंध हो गए
घर में ही वनवास हो रहा
यूँ गूंगे संबंध हो गए। (Delhi 2015)

प्रश्नः 1.
कविता की प्रवृत्ति किस तरह की बताई गई है?
उत्तर:
कविता की प्रवृत्ति हर काल में नव सृजन करने वाली बताई गई है।

प्रश्नः 2.
कविता मनुष्य को कब जीना सिखाती है?
उत्तर:
जब परिश्रमी कर्मठ और श्रम करने वाले लोग अकर्मण्यता का शिकार हो जाते हैं तब कविता कर्म की राह दिखाकर उन्हें जीना सिखाती है।

प्रश्नः 3.
कविता लगातार संघर्ष करने की प्रेरणा देती है-ऐसा किस पंक्ति में कहा गया है?
उत्तर:
उक्त भाव व्यक्त करने वाली पंक्ति है… जब भी आँसू हुआ पराजित, कविता सदा जंग लड़ती है।

प्रश्नः 4.
कविता ने लोगों को कब प्रेरित किया और कैसे?
उत्तर:
जब जब लोगों में निराशा और अंधकार के कारण हताशा की स्थिति आई, तब-तब कविता ने लोगों को प्रेरित किया। निराशा की इस बेला में कविता नया सूर्य बनकर अंधेरे में रास्ता दिखाती है।

प्रश्नः 5.
संबंधों में दूरियाँ आ जाने का परिणाम आज किस रूप में भुगतना पड़ रहा है?
उत्तर:
संबंधों में दूरियाँ बढ़ जाने के कारण अपने लोग भी दूसरों जैसा ही व्यवहार करने लगे। जो संबंध अत्यंत घनिष्ठ थे वे समझौता बनकर रह गए। लोग एक घर में रहते हुए भी दूरी बनाकर रहने लगे हैं।

2. जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे साँप हों चूस रहे,
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली।

मानो, जनता हो फूल जिसे एहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दुधमुँही जिसे बहलाने के
जंतर-मंतर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन, होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है;
जनता की रोके राह, समय में ताब कहाँ ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।

सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुँचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो;
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूँढ़ता है मूरख,
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर मिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में। (Delhi 2015)

प्रश्नः 1.
एहसासहीन जनता की तुलना किससे की गई है?
उत्तर:
एहसासहीन जनता की तुलना उस फूल से की गई है जिसे जब चाहें, तोड़कर दूसरे के सामने प्रस्तुत कर दिया जाता है।

प्रश्नः 2.
कवि किसके सिर पर मुकुट रखने के लिए कह रहा है?
उत्तर:
कवि तैंतीस करोड़ भारतीय जनता के सिर पर मुकुट रखने के लिए कह रहा है।

प्रश्नः 3.
‘जंतर-मंतर सीमित हों चार खिलौनों में’ का भाव क्या है?
उत्तर:
भाव यह है कि अपनी माँगों के लिए आवाज़ उठाती जनता को बातों का खिलौना देकर बहला दिया जाता है।

प्रश्नः 4.
क्रोधित जनता में क्रांति भड़कने का क्या परिणाम होता है ?
उत्तर:
क्रोधित जनता में क्रांति भड़कने पर व्यवस्था में भूकंप आ जाता है, तूफ़ान आ जाता है। उसकी हुंकार से शासन की नींव हिल जाती है। उसकी शक्ति से सत्ता नष्ट हो जाती है। तब समय में भी इतनी ताकत नहीं रहती कि उसे रोका जा सके।

प्रश्नः 5.
कवि ने देवता किसे कहा है ? वह कहाँ रहता है?
उत्तर:
कवि ने हमारे देश के साधारण लोगों, मज़दूरों, किसानों आदि को देवता कहा है। ऐसे देवता देवालयों और राजप्रासादों में न रहकर सड़कों के किनारे मिट्टी खोदते और खेतों-खलिहानों में काम करते हुए मिल जाते हैं।

3. सबको स्वतंत्र कर दे यह संगठन हमारा।
छूटे स्वदेश ही की सेवा में तन हमारा॥

जब तक रहे फड़कती नस एक भी बदन में।
हो रक्त बूंद भर भी जब तक हमारे तन में।
छीने न कोई हमसे प्यारा वतन हमारा।
छूटे स्वदेश ही की सेवा में तन हमारा॥

कोई दलित न जग में हमको पड़े दिखाई।
स्वाधीन हों सुखी हों सारे अछूत भाई ॥
सबको गले लगा ले यह शुद्ध मन हमारा।
छूटे स्वदेश ही की सेवा में तन हमारा ।।

धुन एक ध्यान में है, विश्वास है विजय में।
हम तो अचल रहेंगे तूफ़ान में प्रलय में॥
कैसे उजाड़ देगा कोई चमन हमारा?
छूटे स्वदेश ही की सेवा में तन हमारा॥

हम प्राण होम देंगे, हँसते हुए जलेंगे।
हर एक साँस पर हम आगे बढ़े चलेंगे॥
जब तक पहुँच न लेंगे तब तक न साँस लेंगे।
वह लक्ष्य सामने है पीछे नहीं टलेंगे।
गायें सुयश खुशी से जग में सुजन हमारा।
छूटे स्वदेश ही की सेवा में तन हमारा॥ (Foreign 2015)

प्रश्नः 1.
कवि की हार्दिक इच्छा क्या है?
उत्तर:
कवि की हार्दिक इच्छा यह है कि वह मरते समय तक देश की सेवा करता रहे।

प्रश्नः 2.
‘हम प्राण होम देंगे हँसते हुए जलेंगे’ में निहित अलंकार का नाम बताइए।
उत्तर:
‘हम प्राण होम देंगे हँसते हुए जलेंगे’ में अनुप्रास अलंकार है।

प्रश्नः 3.
‘हम तो अचल रहेंगे तूफ़ान में प्रलय में’ यहाँ ‘तफ़ान’ और ‘प्रलय’ किसके प्रतीक हैं?
उत्तर:
‘हम तो अचल रहेंगे तूफान में प्रलय में’-यहाँ ‘तूफ़ान’ और ‘प्रलय’ राह की मुश्किलों के प्रतीक हैं।

प्रश्नः 4.
कवि जिस समाज की कल्पना करता है उसका स्वरूप कैसा होगा?
उत्तर:
कवि जिस समाज की कल्पना करता है उसमें कोई भी दीन-दुखी और दलित नहीं होगा। समाज के अछूत समझे जाने वाले दलित जन भी आपस में भाई-भाई होंगे और वे एक-दूसरे को प्रेम से गले लगाएँगे।

प्रश्नः 5.
कवि अपना लक्ष्य पाने के लिए क्या-क्या करना चाहता है और क्यों?
उत्तर:
कवि अपना लक्ष्य पाने के लिए शरीर में एक भी साँस रहने तक आगे बढ़ना चाहता है। वह लक्ष्य तक पहुँचे बिना साँस तक नहीं लेना चाहता है। कवि उस लक्ष्य के सहारे चाहता है कि विश्व के लोग भारत का गुणगान करें।

4. तेरे-मेरे बीच कहीं है एक घृणामय भाईचारा।
संबंधों के महासमर में तू भी हारा मैं भी हारा ।।

बँटवारे ने भीतर-भीतर
ऐसी-ऐसी डाह जगाई।
जैसे सरसों के खेतों में
सत्यानाशी उग-उग आई॥

तेरे-मेरे बीच कहीं है टूटा-अनटूटा पतियारा।
संबंधों के महासमर में तू भी हारा मैं भी हारा॥

अपशब्दों की बंदनवारें
अपने घर हम कैसे जाएँ।

जैसे साँपों के जंगल में
पंछी कैसे नीड़ बनाएँ।।

तेरे-मेरे बीच कहीं है भूला-अनभूला गलियारा।
संबंधों के महासमर में तू भी हारा मैं भी हारा ।।

बचपन की स्नेहिल तसवीरें
देखें तो आँखें दुखती हैं।
जैसे अधमुरझी कोंपल से
ढलती रात ओस झरती है॥

तेरे-मेरे बीच कहीं है बूझा-अनबूझा उजियारा।
संबंधों के महासमर में तू भी हारा मैं भी हारा॥ (Foreign 2015)

प्रश्नः 1.
कविता में किस बँटवारे की बात कही गई है? उत्तर:
कविता में दो भाइयों के बीच हुए बँटवारे और उससे उत्पन्न स्थिति की बात कही गई है।

प्रश्नः 2.
‘तेरे-मेरे बीच कहीं है एक घृणामय भाईचारा’ का भाव क्या है?
उत्तर:
‘तेरे-मेरे बीच कहीं है एक घृणामय भाईचारा’ का भाव यह है कि संबंधों में इतनी घृणा हो गई है कि भाईचारा के लिए इसमें कोई जगह नहीं है।

प्रश्नः 3.
सरसों के खेत और सत्यानाशी किनके प्रतीक हैं?
उत्तर:
‘सरसों के खेत’ मिल जुलकर रहने वालों और ‘सत्यानाशी’ एकता देखकर ईर्ष्या से जल-भुन जाने वालों के प्रतीक हैं।

प्रश्नः 4.
अपशब्दों की बंदनवारें हमारे संबंध और रहन-सहन को किस तरह प्रभावित कर रही हैं ?
उत्तर:
अपशब्दों की बंदनवारों के कारण लोगों का आपस में मिलना-जुलना कम हो गया है। आज स्थिति यह है कि साँपों के जंगल में पक्षी कैसे अपना घर बना सकते हैं। अब तो लोग एक-दूसरे से मिलने में कतराने लगे हैं।

प्रश्नः 5.
बचपन की तस्वीरें देखकर कवि को कैसा लगता है ? ऐसे में कवि को किस बात की आशा जग रही है?
उत्तर:
बचपन की तसवीरें देखकर लगता है कि पहले लोगों में बहत भाईचारा था। वे मिल-जुलकर रहते थे। वैसी स्थिति अब स्वप्न बन गई है। ऐसे में कवि को आशा है कि दिलों में आई ये दूरियों की मलिनता समाप्त हो जाएगी और नए संबंधों की शुरुआत होगी।

5. ओ महमूदा मेरी दिल जिगरी
तेरे साथ मैं भी छत पर खड़ी हूँ
तुम्हारी रसोई तुम्हारी बैठक और गाय-घर में
पानी घुस आया
उसमें तैर रहा है घर का सामान
तेरे बाहर के बाग का सेब का दरख्त
टूट कर पानी के साथ बह रहा है
अगले साल इसमें पहली बार सेब लगने थे
तेरी बल खाकर जाती कश्मीरी कढ़ाई वाली चप्पल
हुसैन की पेशावरी जूती
बह रहे हैं गंदले पानी के साथ
तेरी ढलवाँ छत पर बैठा है
घर के पिंजरे का तोता
वह फिर पिंजरे में आना चाहता है

महमूदा मेरी बहन
इसी पानी में बह रही है तेरी लाडली गऊ
इसका बछड़ा पता नहीं कहाँ है
तेरी गऊ के दूध भरे थन
अकड़ कर लोहा हो गए हैं

जम गया है दूध
सब तरफ पानी ही पानी
पूरा शहर डल झील हो गया है

महमूदा, मेरी महमूदा
मैं तेरे साथ खड़ी हूँ
मुझे यकीन है छत पर ज़रूर
कोई पानी की बोतल गिरेगी
कोई खाने का सामान या दूध की थैली
मैं कुरबान उन बच्चों की माँओं पर
जो बाढ़ में से निकलकर
बच्चों की तरह पीड़ितों को
सुरक्षित स्थान पर पहुँचा रही हैं
महमूदा हम दोनों फिर खड़े होंगे
मैं तुम्हारी कमलिनी अपनी धरती पर…
उसे चूम लेंगे अपने सूखे होठों से
पानी की इस तबाही से फिर निकल आएगा।
मेरा चाँद जैसा जम्मू
मेरा फूल जैसा कश्मीर। (All India 2015)

प्रश्नः 1.
रसोई, बैठक और गाय घर में पानी घुस आने का क्या कारण है ?
उत्तर:
रसोई, बैठक और गाय-घर में पानी घुस आने का कारण भीषण बाढ़ है।

प्रश्नः 2.
‘पूरा शहर डल-झील हो गया है’ का आशय क्या है ?
उत्तर:
आशय यह है कि बाढ़ का पानी चारों ओर ऐसा भर गया है जैसे सारा शहर डलझील बन गया है।

प्रश्नः 3.
कवयित्री को किस बात का विश्वास है?
उत्तर:
कवयित्री को विश्वास है कि उसकी छत पर पानी की बोतल, खाने का सामान या दूध की थैली अवश्य गिरेगी।

प्रश्नः 4.
जलमग्न हुए स्थान पर तोते और गाय-बछड़े की मार्मिक दशा कैसी हो गई है?
उत्तर:
जम्मू-कश्मीर में बाढ़ आ जाने से पेड़ धराशायी हो गए हैं। बाहर सब जलमग्न हो गया है। इस स्थिति में तोता घर की छत पर बैठा है। इसी पानी में महमूदा की गाय बह रही है, बछड़े का पता नहीं है। बछड़े से न मिल पाने के कारण गाय के दूध भरे थन अकड़ गए हैं।

प्रश्नः 5.
कवयित्री की आशावादिता किस प्रकार प्रकट हुई है? काव्यांश के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
कवयित्री को आशा है कि पानी जल्द ही उतर जाएगा, धरती की रौनक-लौट आएगी और ज मू-कश्मीर का स्वर्ग जैसा सौंदर्य पुनः जल्दी वापस आ जाएगा।

6. हम जंग न होने देंगे!
विश्व शांति के हम साधक हैं,
जंग न होने देंगे!
कभी न खेतों में फिर खूनी खाद फलेगी,

खलिहानों में नहीं मौत की फ़सल खिलेगी,
आसमान फिर कभी न अंगारे उगलेगा,
एटम से फिर नागासाकी नहीं जलेगी
युद्धविहीन विश्व का सपना भंग न होने देंगे!

हथियारों के ढेरों पर जिनका है डेरा,

मुँह में शांति, बगल में बम, धोखे का फेरा,
कफ़न बेचने वालों से कह दो चिल्लाकर,
दुनिया जान गई है उनका असली चेहरा,
कामयाब हों उनकी चालें, ढंग न होने देंगे!

हमें चाहिए शांति, ज़िंदगी हमको प्यारी,
हमें चाहिए शांति, सृजन की है तैयारी,
हमने छेड़ी जंग भूख से, बीमारी से,
आगे आकर हाथ बटाए दुनिया सारी,
हरी-भरी धरती को खूनी रंग न लेने देंगे! (Delhi 2014)

प्रश्नः 1.
कवि किस तरह की दुनिया चाहता है ?
उत्तर:
कवि ऐसी दुनिया चाहता है, जहाँ युद्ध का नामोनिशान न हो और सर्वत्र शांति हो।

प्रश्नः 2.
‘खलिहानों में नहीं मौत की फ़सल खिलेगी’ का आशय क्या है?
उत्तर:
‘खलिहानों में नहीं मौत की फ़सल खिलेगी’ का आशय है कि युद्ध अब अपार जनसंहार का कारण नहीं बनेगा।

प्रश्नः 3.
‘कफ़न बेचने वाले’ कहकर कवि ने किनकी ओर संकेत किया है?
उत्तर:
कफ़न बेचने वालों कहकर कवि ने उन देशों की ओर संकेत किया है जो घातक अस्त्र-शस्त्र की खरीद-फरोख्त करते हैं।

प्रश्नः 4.
‘एटम’ के माध्यम से कवि ने क्या याद दिलाया है ? उसका सपना क्या है ?
उत्तर:
एटम के माध्यम से कवि ने अमेरिका द्वारा नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराए गए बम की ओर संकेत किया है। उसका सपना यह है उसने युद्धरहित दुनिया का स्वप्न देखा है, वह किसी भी दशा में नहीं टूटना चाहिए।

प्रश्नः 5.
कवि ने किसके विरुद्ध युद्ध छेड़ रखा है? उसका यह कार्य कितना उचित है?
उत्तर:
कवि ने भूख और बीमारी से जंग छेड़ रखी है। इसका कारण यह है कि कवि को शांतिपूर्ण जीवन पसंद है। वह नवसृजन की तैयारी में व्यस्त है। इस जंग में वह विश्व को भागीदार बनाकर दुनिया में खुशहाली देखना चाहता है।

7. जिसके निमित्त तप-त्याग किए, हँसते-हँसते बलिदान दिए,
कारागारों में कष्ट सहे, दुर्दमन नीति ने देह दहे,
घर-बार और परिवार मिटे, नर-नारि पिटे, बाज़ार लुटे
आई, पाई वह ‘स्वतंत्रता’, पर सुख से नेह न नाता है –
क्या यही ‘स्वराज्य’ कहाता है।

सुख, सुविधा, समता पाएँगे, सब सत्य-स्नेह सरसाएँगे,
तब भ्रष्टाचार नहीं होगा, अनुचित व्यवहार नहीं होगा,
जन-नायक यही बताते थे, दे-दे दलील समझाते थे,

वे हुई व्यर्थ बीती बातें, जिनका अब पता न पाता है।
क्या यही ‘स्वराज्य’ कहाता है।

शुचि, स्नेह, अहिंसा, सत्य, कर्म, बतलाए ‘बापू’ ने सुधर्म,
जो बिना धर्म की राजनीति, उसको कहते थे वह अनीति,
अब गांधीवाद बिसार दिया, सद्भाव, त्याग, तप मार दिया,
व्यवसाय बन गया देश-प्रेम, खुल गया स्वार्थ का खाता है –
क्या यही ‘स्वराज्य’ कहाता है। (Delhi 2014)

प्रश्नः 1.
वीरों ने किसके लिए तप त्याग करते हुए अपना बलिदान दे दिया?
उत्तर:
वीरों ने देश को आज़ादी दिलाने के लिए तप-त्याग करते हुए अपना बलिदान दे दिया।

प्रश्नः 2.
‘सुख-सुविधा समता पाएँगे’ में निहित अलंकार का नाम बताइए।
उत्तर:
‘सुख-सुविधा समता पाएँगे’ में अनुप्रास अलंकार है।

प्रश्नः 3.
‘क्या यही स्वराज्य कहाता है’ कहकर कवि ने व्यंग्य क्यों किया है ?
उत्तर:
‘क्या यही स्वराज्य कहाता है’ कहकर कवि ने इसलिए व्यंग्य किया है क्योंकि हमारे जननायकों ने ऐसी स्वतंत्रता का सपना नहीं देखा था।

प्रश्नः 4.
हमारे जननायकों ने किस तरह की स्वतंत्रता का स्वप्न देखा था? वह स्वप्न कहाँ तक पूरा हो सका।
उत्तर:
हमारे जननायकों द्वारा स्वतंत्रता का सपना देखा गया था उसमें सभी को सुख-सुविधा और समानता पाने तथा मिल-जलकर प्रेम से रहने, भ्रष्टाचार मुक्त भारत में सबके साथ एक समान व्यवहार करने के सुंदर दृश्य की कल्पना की गई थी।

प्रश्नः 5.
बापू अनीति किसे मानते थे? उनकी राजनीति की आज क्या स्थिति है?
उत्तर:
बापू उस राजनीति को अनीति कहते थे जिसमें पवित्रता, प्रेम, अहिंसा शांति जैसे सुधर्म का मेल न हो। उनकी राजनीति में अब गांधीवाद, सद्भाव, त्याग, तप आदि मर चुका है। देश-प्रेम के नाम पर व्यवसाय किया जा रहा है और सर्वत्र स्वार्थ का बोलबाला है।

8. जैसे धधके आग ग्रीष्म के लाल पलाशों के फूलों में,
वैसी आग जगाओ मन में, वैसी आग जगाओ रे।

जीवन की धरती तो रूखी मटमैली ही होती है,
तन-तरु-मूल सिंचाई, अतल की गहराई में होती है।
किंतु कोपलों जैसे ज्वाला में भी शीश उठाओ रे,
ऐसी आग जगाओ मन में, ऐसी आग जगाओ रे।

एक आग होती है मन को जो कि राह दिखलाती है,

सघन अँधेरे में मशाल बन दिशि का बोध कराती है,
किंतु द्वेष की चिनगारी से मत घर-द्वार जलाओ रे,
ऐसी आग जगाओ मन में, ऐसी आग जगाओ रे।

आज ग्रीष्म की ऊष्मा कल को रिमझिम राग सुनाएगी,
तापमयी दोपहरी, संध्या को बयार ले आएगी;
रसघन आँगन में हिलकोरे, ऐसा ताप रचाओ रे;
ऐसी आग जगाओ मन में, ऐसी आग जगाओ रे। (Foreign 2014)

प्रश्नः 1.
कवि किनसे कैसी ज्वाला जलाने के लिए कह रहा है?
उत्तर:
कवि देश के नवयुवकों से ग्रीष्म ऋतु में धधकते पलाश के लाल फूलों-सी क्रांति जगाने के लिए कह रहा है।

प्रश्नः 2.
वृक्षों की कोपलें हमें क्या प्रेरणा देती हैं?
उत्तर:
वृक्षों की कोपलें हमें ज्वालाओं में भी सिर ऊँचा उठाए रखने की प्रेरणा देती हैं।

प्रश्नः 3.
‘जीवन की धरती तो रूखी मटमैली’ में निहित अलंकार का नाम बताइए।
उत्तर:
‘जीवन की धरती तो रूखी मटमैली’ में रूपक अलंकार है।

प्रश्नः 4.
कवि ने दो प्रकार की आग का उल्लेख किया है। कविता के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
काव्यांश में कवि ने दो प्रकार की आग का उल्लेख किया है। पहली आग वह ज्ञान है जिससे मन को दिशा दिख जाती है और अँधेरे में मार्ग प्रकाशित होता है किंतु वह दूसरी आग अर्थात् द्वेष की ज्वाला से दूर रहना चाहता है ताकि इससे किसी का घर न जले।

प्रश्नः 5.
आज जलाने से कवि को किस सुखद परिणाम की आशा है ? काव्यांश के आधार पर लिखिए।
उत्तर:
आग जलाने से कवि जिस सुखद परिणाम की आशा करता है, वे हैं –
क. दुख सहने और संघर्ष करने से ही सुखद समय आएगा।
ख. जिस प्रकार गरम दोपहरी के बाद सुहानी शाम आती है उसी प्रकार क्रांति का परिणाम भी सुखद ही होगा।
ग. हर घर-आँगन में खुशी का वातावरण होगा।

9. कैसे बेमौके पर तुमने ये
मज़हब के शोले सुलगाए।
मानव-मंगल-अभियानों में
जब नया कल्प आरंभ हुआ
जब चंद्रलोक की यात्रा के
सपने सच होने को आए।

तुम राग अलापो मज़हब का
पैगंबर को बदनाम करो,
नापाक हरकतों में अपनी
रूहों को कत्लेआम करो!
हम प्रजातंत्र में मनुष्यता के
मंगल-कलश सँवार रहे

हर जाति-धर्म के लिए
खुला आकाश-प्रकाश पसार रहे।
उत्सर्ग हमारा आज
हिमालय की चोटी छू आया है।
सदियों की कालिख को
हमने बलिदानों से धोना है
मानवता की खुशहाली की
हरियाली फ़सलें बोना है।
बढ़-बढ़कर बातें करने की
बलिदानी रटते बान नहीं
इतना तो तुम भी समझ गए
यह कल का हिंदुस्तान नहीं। (Foreign 2014)

प्रश्नः 1.
कवि ने ‘मज़हब के शोले’ किन्हें कहा है ?
उत्तर:
कवि ने जाति-धर्म-संप्रदाय आदि पर आधारित नफ़रत फैलाने वाली बातों को ‘मज़हब के शोले’ कहा है।

प्रश्नः 2.
मज़हब के शोले सुलगाने का यह मौका क्यों नहीं है?
उत्तर:
मज़हब के शोले सुलगाने का यह वक्त इसलिए नहीं है क्योंकि इस समय मानव द्वारा मंगल पर यान भेजा जा रहा है जिससे चंद्रलोक की यात्रा की कल्पना को साकार रूप मिलेगा।

प्रश्नः 3.
‘बढ़-बढ़कर बातें करने की’ में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर:
‘बढ़-बढ़कर बातें करने की’ में अनुप्रास अलंकार है।

प्रश्नः 4.
मज़हब का राग अलापने वाले तथा अन्य लोगों में क्या अंतर है?
उत्तर:
मज़हब का राग अलापने वाले अपने स्वार्थपूर्ण कार्यों से पैगंबर को बदनाम करते हैं और निर्दोष लोगों का खून खराबा करते हैं जबकि अन्य लोग लोकतंत्र को मजबूत बनाते हुए हर जाति-धर्म के लोगों के लिए अवसरों की समानता उपलब्ध करा रहे हैं।

प्रश्नः 5.
कवि अपने देश के लिए क्या कहना चाहता है?
उत्तर:
कवि अपने बलिदान से सदियों की कालिख को धो देना चाहता है तथा मानवता की भलाई एवं खुशहाली के लिए हरियाली की फ़सल बोकर देश को खुशहाल देखना चाहता है।

10. शीश पर मंगल-कलश रख
भूलकर जन के सभी दुख
चाहते हो तो मना लो जन्म-दिन भूखे वतन का।

जो उदासी है हृदय पर,
वह उभर आती समय पर,
पेट की रोटी जुड़ाओ,
रेशमी झंडा उड़ाओ,

ध्यान तो रक्खो मगर उस अधफटे नंगे बदन का।

तन कहीं पर, मन कहीं पर,
धन कहीं, निर्धन कहीं पर,

फूल की ऐसी विदाई,
शूल को आती रुलाई

आँधियों के साथ जैसे हो रहा सौदा चमन का।

आग ठंडी हो, गरम हो,
तोड़ देती है, मरम को,
क्रांति है आनी किसी दिन,

आदमी घड़ियाँ रहा गिन, राख कर देता सभी कुछ अधजला दीपक भवन का
जन्म-दिन भूखे वतन का। (All India 2014)

प्रश्नः 1.
देश की स्वतंत्रता का उत्सव मनाना कब अर्थहीन हो जाता है?
उत्तर:
देश की स्वतंत्रता का उत्सव मनाना तब अर्थहीन हो जाता है, जब देश की जनता भूखी और उदास हो।

प्रश्नः 2.
कवि किस उदासी की बात कर रहा है?
उत्तर:
कवि जनता की अभावग्रस्तता, मूलभूत सुविधाओं की कमी आदि से उत्पन्न उदासी की बात कर रहा है।

प्रश्नः 3.
‘अधजला दीपक भवन का’ किसका प्रतीक है?
उत्तर:
अधजला दीपक भवन का भूखे-प्यासे दुखी और अभावग्रस्त लोगों का प्रतीक है।

प्रश्नः 4.
कवि देश के शासकों से क्या कहना चाहता है और क्यों?
उत्तर:
कवि देश के शासकों से यह कहना चाहते हैं कि वे आज़ादी का उत्सव मनाएँ, रेशमी झंडा लहराएँ पर उन गरीबों के लिए रोटी और अधनंगे बदन वालों के लिए वस्त्र का इंतज़ाम करें का भी ध्यान रखें। वह ऐसा इसलिए कह रहा है क्योंकि शासकों को संवेदनहीनता के कारण भूखी जनता का ध्यान नहीं रह गया है।

प्रश्नः 5.
कवि को ऐसा क्यों लगता है कि किसी दिन क्रांति होकर रहेगी? इसका क्या परिणाम होगा?
उत्तर:
देश की बदहाल स्थिति देखकर कवि को लगता है कि देश की जनता शोषण, अभावग्रस्तता, दुख और आपदाओं से जैसे समझौता कर रही है। जिस दिन उसका धैर्य जवाब देगा उसी दिन क्रांति हो जाएगी तब यह आक्रोशित जनता यह व्यवस्था नष्ट करके रख देगी।

11. बहती रहने दो मेरी धमनियों में
जन्मदात्री मिट्टी की गंध,
मानवीय संवेदनाओं की पावनी गंगा,
सदा-सदा को वांछित रह सकने वाले
पसीने की खारी यमुना।
शपथ खाने दो मुझे
केवल उस मिट्टी की
जो मेरे प्राणों का आदि है,
मध्य है,
अंत है।
सिर झुकाओ मेरा
केवल उस स्वतंत्र वायु के सम्मुख
जो विश्व का गरल पीकर भी
बहता है
पवित्र करने को कण-कण।
क्योंकि
मैं जी सकता हूँ
केवल उस मिट्टी के लिए,
केवल इस वायु के लिए।
क्योंकि
मैं मात्र साँस लेती
खाल होना नहीं चाहता। (All India 2014)

प्रश्नः 1.
‘जन्मदात्री मिट्टी की गंध’ पंक्ति में कवि की इच्छा का स्वरूप क्या है?
उत्तर:
‘जन्मदात्री मिट्टी की गंध’ पंक्ति में कवि की इच्छा का स्वरूप मातृभूमि के प्रति गहन अनुराग की उत्कट भावना है।

प्रश्नः 2.
‘मात्र साँस लेती खाल’ का आशय क्या है?
उत्तर:
मात्र साँस लेती खाल का आशय है – अपने स्वार्थ में डूबकर निष्प्राणों जैसा जीवन बिताना।

प्रश्नः 3.
‘पवित्र करने को कण-कण’ में कौन-कौन सा अलंकार है?
उत्तर:
‘पवित्र करने को कण-कण में’ अनुप्रास अलंकार है।

प्रश्नः 4.
मानवीय संवेदनाओं की पावनी गंगा के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है? उसने मातृभूमि की मिट्टी से अपना लगाव कैसे प्रकट किया है?
उत्तर:
‘मानवीय संवेदनाओं की पावनी गंगा’ के माध्यम से कवि पीड़ित मानवता के उद्धार की बात कहना चाहता है। उसने मिट्टी को अपने प्राणों का आदि मध्य और अंत बताकर अपना लगाव प्रकट किया है।

प्रश्नः 5.
कवि अपना सिर किसके सामने झुकाना चाहता है और किसके लिए जीना चाहता है?
उत्तर:
कवि अपना सिर उस वायु के सामने झुकाना चाहता है जो विश्व का जहर पीकर भी बहती रहती है। इसी वायु का सेवन करके वह इसी वायु और मातृभूमि की मिट्टी के लिए जीना चाहता है।

12. जब कभी मछेरे को फेंका हुआ
फैला जाल
समेटते हुए देखता हूँ
तो अपना सिमटता हुआ
‘स्व’ याद हो आता है
जो कभी समाज, गाँव और
परिवार के वृहत्तर परिधि में
समाहित था
‘सर्व’ की परिभाषा बनकर,
और अब केंद्रित हो
बैठी, पराग को समेटती
मधुमक्खियों को देखता हूँ
तो मुझे अपने पूर्वजों की
याद हो आती है,
जो कभी फूलों को रंग, जाति, वर्ग
अथवा कबीलों में नहीं बाँटते थे
और समझते रहे थे कि
देश एक बाग है
और मधु-मनुष्यता
जिससे जीने की अपेक्षा होती है।
किंतु अब गया हूँ मात्र बिंदु में।
बाग और मनुष्यता जब कभी अनेक फूलों पर,
शिलालेखों में जकड़ गई है
मात्र संग्रहालय की जड़ वस्तुएँ। (Delhi 2013 Comptt.)

प्रश्नः 1.
काव्यांश में ‘स्व’ शब्द से कवि का क्या आशय है?
उत्तर:
काव्यांश में ‘स्व’ शब्द से कवि का आशय अपनेपन की भावना से है।

प्रश्नः 2.
काव्यांश का मूल भाव स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
काव्यांश का मूलभाव यह है कि बदलते समय के साथ मनुष्य के अपनेपन की भावना संकीर्ण होती गई है।

प्रश्नः 3.
आज बाग और मनुष्यता की स्थिति में क्या बदलाव आ गया है?
उत्तर:
आज बाग और मनुष्यता की बातें शिलालेखों में जकड़कर संग्रहालय की जड़ वस्तुएँ बन गई हैं।

प्रश्नः 4.
कवि के बचपन और वर्तमान की स्व-भावना में क्या अंतर आ गया है?
उत्तर:
कवि के बचपन में स्व का दायरा पूरे गाँव और समाज तक सीमित था परंतु अब स्व की भावना अपने आप तक सिमट कर रह गई है। उसकी यह भावना दिनों-दिन संकीर्ण होती गई।

प्रश्नः 5.
मधुमक्खियों को देखकर कवि को किसकी याद आ जाती है और क्यों?
उत्तर:
मधुमक्खियों को देखकर कवि को अपने पूर्वजों की याद हो आती है क्योंकि मधुमक्खियाँ जिस प्रकार तरह-तरह के फूलों से पराग निकालती हैं उसी प्रकार पूर्वज लोगों को रंग, जाति, वर्ग अथवा कबीलों में नहीं बाँटते थे। उनमें एकता बनाए रखते थे।

13. बिन बैसाखी अपनी शर्तों पर, मैं मदमस्त चला।
सब्जबाग को दिखा-दिखा
दुनिया रह-रह मुसकाई।
कंचन और कामिनी ने भी
अपनी छटा दिखाई।
सतरंगे जग के साँचे में, मैं न कभी ढला॥
चिनगारी पर चलते-चलते
रुका-झुका ना पल-छिन।
गिरे हुओं को रहा उठाता
हालाहल पीते-पीते ही मैं जीवन-भर चला॥
कितने बढ़े-चढ़े द्रुत चलकर
शैलशिखर शृंगों पर।
कितने अपनी लाश लिए
फिरते अपने कंधों पर।
सबकी अपनी अलग नियति है, है जीने की कला॥
आँधी से जूझा करना ही
बस आता है मुझको।
पीड़ाओं के संग-संग जीना
भाता है बस मुझको। गले लगाता अनुदिन।
मैं तटस्थ, जो भी जग समझे कह ले बुरा-भला॥ (All India 2013 Comptt.)

प्रश्नः 1.
सतरंगी संसार कवि को क्यों नहीं लुभा सका?
उत्तर:
कवि को सतरंगी संसार इसलिए नहीं लुभा सका क्योंकि उसे अपने सिद्धांतों से विशेष प्यार है।

प्रश्नः 2.
कवि को लुभाने के लिए दुनिया ने क्या-क्या किया?
उत्तर:
कवि को लुभाने के लिए दुनिया ने तरह-तरह के सपने दिखाए और कंचन-कामिनी को भी उसके सामने प्रस्तुत कर दिया।

प्रश्नः 3.
‘कितने बढ़े-चढ़े द्रुत चलकर शैल-शिखर के शृंगों पर’ में निहित अलंकार का नाम बताइए।
उत्तर:
कितने बढ़े-चढ़े द्रुत चलकर शैल-शिखर के शृंगों पर’ में अनुप्रास अलंकार है।

प्रश्नः 4.
कवि ने अपना जीवन समाज के अन्य लोगों से अलग बिताया, कैसे?
उत्तर:
कवि विपरीत परिस्थितियों का सामना करता रहा पर पल भर के लिए भी न रुका। वह दीन-दुखियों की मदद करते, उन्हें गले लगाते हुए नाना प्रकार के कष्ट सहकर जीवन बिताया।।

प्रश्नः 5.
कवि को संघर्ष करना अच्छा लगता है। – काव्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कवि को संकट और मुसीबतों से संघर्ष करना अच्छा लगता है। वह दीन-दुखियों का साथ देना जानता है। कवि को जग ने भले ही भला-बुरा कहा पर वह इससे तटस्थ रहा। इस तरह वह संघर्षशील बना रहा।

14. जिस पर गिरकर उदर-दरी से तुमने जन्म लिया है
जिसका खाकर अन्न, सुधा-सम नीर-समीर पिया है।
वह स्नेह की मूर्ति दयामयि माता-तुल्य मही है
उसके प्रति कर्तव्य तुम्हारा क्या कुछ शेष नहीं है?

पैदाकर जिस देश-जाति ने तुमको पाला-पोसा।
किए हुए है वह निज हित का तुमसे बड़ा भरोसा
उससे होना उऋण प्रथम है सत्कर्तव्य तुम्हारा
फिर दे सकते हो वसुधा को शेष स्वजीवन सारा। (Delhi 2013 Comptt.)

प्रश्नः 1.
‘खाकर जिसका अन्न’ में किसका अन्न खाने की बात कवि ने कही है?
उत्तर:
‘खाकर जिसका अन्न’ में मातृभूमि का अन्न खाने की बात कवि ने कही है।

प्रश्नः 2.
‘सुधा-सम नीर-समीर पिया है’ में निहित अलंकार का नाम बताइए।
उत्तर:
‘सुधा-सम नीर-समीर पिया है’ में उपमा अलंकार है।

प्रश्नः 3.
कवि ने किसके ऋण से उऋण होने की बात कही है?
उत्तर:
कवि ने व्यक्ति का भरण-पोषण करने वाली मातृभूमि के ऋण से उऋण होने की बात कही है।

प्रश्नः 4.
कवि किसे किसके प्रति कर्तव्यों की याद दिला रहा है और क्यों?
उत्तर:
कवि भारतवासियों को मातृभूमि के प्रति उनके कर्तव्यों की याद दिला रहा है क्योंकि भारतवासियों ने मातृभूमि का अनाज खाया है और अमृत तुल्य पानी और हवा का सेवन करके जीवन पाया है।

प्रश्नः 5.
देश जाति के प्रति व्यक्ति का पहला कर्तव्य क्या है और क्यों?
उत्तर:
देश और जाति के प्रतिव्यक्ति का पहला कर्तव्य उसके कर्ज से मुक्ति पाना है क्योंकि जिस देश और जाति ने व्यक्ति को जन्म दिया है, उसने व्यक्ति से अपना हित पूरा होने की आशा लगा रखी है।

15. प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ?
सात साल की बच्ची का पिता तो है।
सामने गीयर से ऊपर
हुक से लटका रखी हैं
काँच की चार गुलाबी चूड़ियाँ।
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं,
झुक कर मैंने पूछ लिया,
खा गया मानो झटका।
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रौबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला : हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनियाँ । (All India 2013 Comptt.)

प्रश्नः 1.
‘बच्ची का पिता तो है’ पंक्ति में किस भाव की अभिव्यक्ति हुई है ?
उत्तर:
‘बच्ची का पिता तो है’ पंक्ति में बच्ची के प्रति आत्मीयता, स्नेह और लगाव की अभिव्यक्ति हुई है।

प्रश्नः 2.
ड्राइवर झटका क्यों खा गया?
उत्तर:
चूड़ियों के बारे में पूछने पर ड्राइवर इसलिए झटका खा गया क्योंकि उसे अचानक अपनी बिटिया की याद आ गई।

प्रश्नः 3.
‘खा गया मानो झटका’ में निहित अलंकार का नाम बताइए।
उत्तर:
‘खा गया मानो झटका’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।

प्रश्नः 4.
चूड़ियाँ किसने और कहाँ लटका रखी थी और क्यों?
उत्तर:
बस में चूड़ियों को ड्राइवर की बेटी ने गीयर से ऊपर हुक से लटका रखी थी ताकि पिता को उसकी बराबर याद आती रहे और वह जल्दी से घट लौट आएँ।

प्रश्नः 5.
बस ड्राइवर के चेहरे और उसकी आवाज़ में निहित विरोधाभास स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
बस ड्राइवर अधेड़ उम्र वाला व्यक्ति है। उसका चेहरा रोबीला है जिस पर घनी मूंछे हैं। इससे चेहरा कठोर प्रतीत होता है परंतु इस रोबीले चेहरे की आवाज़ धीमी है। इस तरह दोनों में विरोधाभास है।

16. तापित को स्निग्ध करे
प्यासे को चैन दे।
सूखे हुए अधरों को
फिर से जो बैन दे।
ऐसा सभी पानी है।
लहरों के आने पर
काई-सा फटे नहीं
रोटी के लालच में
तोते-सा रटे नहीं
प्राणी वही प्राणी है।
लँगड़े को पाँव और
लूले को हाथ दे,
रात की सँभार में
मरने तक साथ दे,
बोले तो हमेशा सच
सच से हटे नहीं,
हरगिज़ डरे नहीं
सचमुच वही प्राणी है।

प्रश्नः 1.
काव्यांश में पानी की क्या विशेषता बताई गई है?
उत्तर:
काव्यांश में पानी की विशेषता यह बताई गई है कि पानी प्यासों की प्यास, गरमी से परेशान लोगों का ताप और अधरों की शुष्कता हर लेता है।

प्रश्नः 2.
‘काई-सा फटे नहीं’ में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर:
‘काई-सा फटे नहीं’ में उपमा अलंकार है।

प्रश्नः 3.
‘फिर से जो न दे’ का आशय क्या है?
उत्तर:
फिर से जो बैन दे का आशय है कि पानी लोगों की जुबान को तर करके उन्हें बोलने लायक बनाता है।

प्रश्नः 4.
कवि सच्चा प्राणी किसे मानता है?
उत्तर:
कवि सच्चा प्राणी उसे मानता है जो लँगड़े-लूलों और लाचारों को सहारा देता है, कठिन समय में उनका साथ निभाता है, सच बोलने से कभी नहीं डरता है और हमेशा सच बोलता है।

प्रश्नः 5.
अपने किन कर्मों से प्राणी छोटा बन जाता है?
उत्तर:
जब व्यक्ति छोटी-सी मुसीबत देखते ही घबरा जाते हैं, अपने स्वार्थ के लिए अपना स्वाभिमान भूलकर तोतों की भाँति रटू बनकर दूसरों को उनकी चापलूसी और झूठा गुणगान करने लगते हैं तब वे छोटे बन जाते हैं।

17. अरे! चाटते जूठे पत्ते जिस दिन देखा मैंने नर को
उस दिन सोचा, क्यों न लगा दूँ आज आग इस दुनियाभर को?
यह भी सोचा, क्यों न टेटुआ घोटा जाए स्वयं जगपति का?
जिसने अपने ही स्वरूप को रूप दिया इस घृणित विकृति का।
जगपति कहाँ ? अरे, सदियों से वह तो हुआ राख की ढेरी;
वरना समता संस्थापन में लग जाती क्या इतनी देरी?
छोड़ आसरा अलखशक्ति का रे नर स्वयं जगपति तू है,
यदि तू जूठे पत्ते चाटे, तो तुझ पर लानत है थू है।
ओ भिखमंगे अरे पराजित, ओ मजलूम, अरे चिर दोहित,
तू अखंड भंडार शक्ति का, जाग और निद्रा संमोहित,
प्राणों को तड़पाने वाली हुँकारों से जल-थल भर दे,
अनाचार के अंबारों में अपना ज्वलित पलीता भर दे।
भूखा देख तुझे गर उमड़े आँसू नयनों में जग-जन के
तू तो कह दे, नहीं चाहिए हमको रोने वाले जनखे,
तेरी भूख असंस्कृति तेरी, यदि न उभाड़ सके क्रोधानल,
तो फिर समयूँगा कि हो गई सारी दुनिया कायर निर्बल। (Delhi 2014)

प्रश्नः 1.
कवि क्या देखकर दुनियाभर में आग लगा देना चाहता है ?
उत्तर:
भूखे-प्यासे मनुष्य को जूठे पत्तलों में खाने के लिए कुछ खोजता देखकर कवि दुनिया भर में आग लगा देना चाहता है।

प्रश्नः 2.
‘वह तो हुआ राख की ढेरी’ कवि ऐसा क्यों कह रहा है?
उत्तर:
वह अर्थात् जगपति राख की ढेरी हो गया है क्योंकि यदि जगपति अपना काम कर रहा होता तो दुनिया में समानता आने में इतनी देर न लगती।

प्रश्नः 3.
‘अनाचार के अंबारों में अपना ज्वलित पलीता भर दे’ पंक्ति में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर:
‘अनाचार के …… भर दे’ में अनुप्रास अलंकार है।

प्रश्नः 4.
कवि भूखों नंगों को उनकी शक्ति का भान किस तरह कराना चाहता है और क्यों?
उत्तर:
कवि भूखे-नंगों उनकी शक्ति के बारे में ज्ञान कराते हुए उन्हें खुद ही जगपति होने, अदृश्यशक्ति का सहारा त्यागने, निद्रा और सम्मोहन त्यागने की बात कह रहा है ताकि वे अपनी शक्ति पहचान कर दूसरों का मुँह ताकते हुए जीना छोड़ें।

प्रश्नः 5.
दुनिया कायर और निर्बल हो गई है, कवि ऐसा कब और क्यों सोचेगा?
उत्तर:
कुछ लोगों को भूखा-नंगा देखकर यदि लोग आँसू बहाने के सिवा अभावग्रस्तों के लिए कुछ नहीं करते हैं तो कवि समझेगा कि दुनिया पागल हो गई है। लोगों को भूखा नंगा देखकर उन्हें व्यवस्था परिवर्तन के लिए आगे आ जाना चाहिए। अपठित काव्यांश

18. पृथ्वी की छाती फाड़, कौन यह अन्न उगा लाता बाहर?
दिन का रवि-निशि की शीत कौन लेता अपनी सिर-आँखों पर?
कंकड़ पत्थर से लड़-लड़कर, खुरपी से और कुदाली से,
ऊसर बंजर को उर्वर कर, चलता है चाल निराली ले।

मज़दूर भुजाएँ वे तेरी, मज़दूर, शक्ति तेरी महान;
घूमा करता तू महादेव! सिर पर लेकर के आसमान !
पाताल फोड़कर, महाभीष्म! भूतल पर लाता जलधारा;
प्यासी भूखी दुनिया को तू देता जीवन संबल सारा !

खेती से लाता है कपास, धुन-धुन, बुनकर अंबार परम;
इस नग्न विश्व को पहनाता तू नित्य नवीन वस्त्र अनुपम। ।

नंगी घूमा करती दुनिया, मिलता न अन्न, भूखों मरती,
मज़दूर! भुजाएँ जो तेरी मिट्टी से नहीं युद्ध करतीं!

तू छिपा राज्य-उत्थानों में, तू छिपा कीर्ति के गानों में;
मज़दूर! भुजाएँ तेरी ही दुर्गों के शृंग-उठानों में।
तू छिपा नवल निर्माणों में, गीतों में और पुराणों में;
युग का यह चक्र चला करता तेरी पद-गति की तानों में।

तू ब्रह्मा-विष्णु रहा सदैव,
तू है महेश प्रलयंकर फिर।
हो तेरा तांडव, शंभु! आज
हो ध्वंस, सृजन मंगलकर फिर!

प्रश्नः 1.
अन्न उगाने वाले को क्या-क्या सहना पड़ता है ?
उत्तर:
अन्न उगाने वाले किसान को दिन की धूप और रात की सरदी सहनी पड़ती है।

प्रश्नः 2.
किसान के हथियार क्या-क्या हैं? इनकी मदद से किनसे लड़ता है?
उत्तर:
किसान के हथियार खुरपी और कुदाल हैं। इनकी मदद से वह कंकड़ और पत्थर से लड़ता है।

प्रश्नः 3.
मज़दूर को महाभीष्म क्यों कहा गया है?
उत्तर:
मज़दूर पाताल फोड़कर धरती पर जलधारा लाता है, इसलिए उसे भीष्म कहा गया है।

प्रश्नः 4.
यदि मज़दूर परिश्रम न करता तो दुनिया की क्या स्थिति होती और क्यों?
उत्तर:
मज़दूर यदि परिश्रम न करता तो कपड़ों के अभाव में दुनिया नंगी घूमती और अन्न के अभाव में भूखों मरती, क्योंकि मजदूर अपने परिश्रम से फ़सल उगाता है और कपड़े बुनता है।

प्रश्नः 5.
मजदूर को किस-किस संज्ञा से विभूषित किया गया है? वह कहाँ छिपा है?
उत्तर:
मज़दूर को ब्रहमा, विष्णु और महेश की संज्ञा से विभूषित किया गया है। वह राज्य की प्रगति, उसकी यशगाथा, दुर्ग की ऊँची चोटियों में नए निमार्णों और गीत-पुराणों में छिपा है।

19. भाग्यवाद आवरण पाप का
और शस्त्र शोषण का
जिससे दबा एक जन
भाग दूसरे जन का।
पूछो किसी भाग्यवादी से
यदि विधि अंक प्रबल हैं,
पद पर क्यों न देती स्वयं
वसुधा निज रतन उगल है?
उपजाता क्यों विभव प्रकृति को
सींच-सींच व जल से
क्यों न उठा लेता निज संचित करता है।
अर्थ पाप के बल से,
और भोगता उसे दूसरा
भाग्यवाद के छल से।
नर-समाज का भाग्य एक है
वह श्रम, वह भुज-बल है।
जिसके सम्मुख झुकी हुई है;
पृथ्वी, विनीत नभ-तल है।

प्रश्नः 1.
भाग्यवादी सफलता के बारे में क्या मानते हैं ?
उत्तर:
भाग्यवादी सफलता के बारे में यह मानते हैं कि भाग्य में लिखी होने पर ही सफलता मिलती है।

प्रश्नः 2.
धरती और आकाश किसके कारण झुकने को विवश हुए हैं ?
उत्तर:
धरती और आकाश मनुष्य के परिश्रम के कारण झुकने को विवश हुए हैं।

प्रश्नः 3.
काव्यांश में निहित संदेश स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
काव्यांश में निहित संदेश यह है कि मनुष्य को भाग्य का सहारा छोड़कर परिश्रम से सफलता प्राप्त करनी चाहिए।

प्रश्नः 4.
कवि भाग्यवादियों से क्या पूछने के लिए कहता है और क्यों?
उत्तर:
कवि भाग्यवादियों से यह पूछने के लिए कहता है कि यदि भाग्य का बल इतना प्रबल है तो सुधा अपने भीतर छिपे रत्नों को मनुष्य के चरणों पर क्यों नहीं रख देती है। इसके लिए मनुष्य को परिश्रम क्यों करना पड़ता है। ऐसा पूछने का कारण हैं भाग्यवाद की बातें मिथ्या होना।

प्रश्नः 5.
भाग्यवाद को किसका हथियार कहा गया है और क्यों?
उत्तर:
भाग्यवाद को दूसरों का शोषण करने का अस्त्र कहा गया है क्योंकि भाग्यवाद का छलावा देकर लोग दूसरों का शोषण करते हैं और दूसरों को मिलने वाला भाग दबाकर बैठ जाते हैं।

20. जिस-जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस-उस राही को धन्यवाद।
जीवन अस्थिर, अनजाने ही
हो जाता पथ पर मेल कही
सीमित पग-डग, लंबी मंजिल,
तय कर लेना कुछ खेल नहीं।
दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते
सम्मुख चलता पथ का प्रमाद,
जिस-जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस-उस राही को धन्यवाद।
साँसों पर अवलंबित काया,
जब चलते-चलते चूर हुई।
दो स्नेह शब्द मिल गए,
मिली नव स्फूर्ति,
थकावट दूर हुई।
पथ के पहचाने छूट गए,
पर साथ-साथ चल रही यादें।
जिस-जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस-उस राही को धन्यवाद।

प्रश्नः 1.
कवि किस-किस राही को धन्यवाद देना चाहता है?
उत्तर:
कवि को जीवन-मार्ग पर जिन-जिन लोगों से स्नेह मिला, वह उन्हें धन्यवाद देना चाहता है।

प्रश्नः 2.
जाने-पहचाने लोगों का साथ छूट जाने पर भी कवि के साथ अब कौन चल रहा है?
उत्तर:
जाने-पहचाने लोगों का साथ छूट जाने पर भी कवि के साथ अब तरह-तरह की यादें चल रही हैं।

प्रश्नः 3.
जीवन पथ पर कवि का साथ कौन-कौन दे रहे हैं?
उत्तर:
जीवन-पथ पर कवि का साथ सुख-दुख और आलस्य दे रहे हैं।

प्रश्नः 4.
कवि राही को धन्यवाद क्यों देना चाहता है?
उत्तर:
कवि राही को इसलिए धन्यवाद देना चाहता है क्योंकि जीवन अस्थिर एवं सीमित है। इस दशा में मंजिल पर पहुँचना आसान नहीं है। ऐसे में राही से मिले स्नेह के कारण वह जीवन यात्रा पूरी कर सका।

प्रश्नः 5.
कवि की जीवन-यात्रा की सुखद-समाप्ति का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
उत्तर:
कवि जीवन यात्रा पर जब थकने लगा तभी उसे स्नेह भरे शब्दों से नई स्फूर्ति एवं ऊर्जा मिली, जिससे उसकी थकावट दूर हो गई और वह जीवन पर बढ़ता गया।

(21) उठे राष्ट्र तेरे कंधों पर, बढ़े प्रगति के प्रांगण में।
पृथ्वी को राख दिया उठाकर, तूने नभ के आँगन में॥
तेरे प्राणों के ज्वारों पर, लहराते हैं देश सभी।
चाहे जिसे इधर कर दे तू, चाहे जिसे उधर क्षण में॥
मत झुक जाओ देख प्रभंजन, गिरि को देख न रुक जाओ।
और न जम्बुक-से मृगेंद्र को, देख सहम कर लुक जाओ॥

झुकना, रुकना, लुकना, ये सब कायर की सी बातें हैं।
बस तुम वीरों से निज को बढ़ने को उत्सुक पाओ॥
अपनी अविचल गति से चलकर नियतिचक्र की गति बदलो।
बढ़े चलो बस बढ़े चलो, हे युवक! निरंतर बढ़े चलो।
देश-धर्म-मर्यादा की रक्षा का तुम व्रत ले लो।
बढ़े चलो, तुम बढ़े चलो, हे युवक! तुम अब बढ़े चलो॥ अपठित काव्यांश

प्रश्नः 1.
राष्ट्र को प्रगति के पथ पर ले जाने का दायित्व किसके कंधों पर है?
उत्तर:
राष्ट्र को प्रगति के पथ पर ले जाने का दायित्व नवयुवकों एवं जवानों के कंधे पर है।

प्रश्नः 2.
किन बातों को कायरों की सी बातें कहा गया है?
उत्तर:
संकटों-बाधाओं को देखकर झुक जाना, रुक जाना और छिप जाना कायरों की-सी बाते हैं।

प्रश्नः 3.
‘नियतिचक्र की गति बदलो’ में निहित अलंकार बताइए।
उत्तर:
‘निर्यात चक्र की गति बदलो’ में रूपक अलंकार है।

प्रश्नः 4.
‘चाहे जिसे इधर कर दे तू चाहे जिसे उधर क्षण में’-कवि ने ऐसा किनके बारे में कहा है और क्यों?
उत्तर:
कवि ने ऐसा नवयुवकों एवं जवानों के बारे में कहा है क्योंकि वे असीम शक्ति एवं ऊर्जा के भंडार होते हैं। उनकी शक्ति पर देश की प्रगति निर्भर करती है। वे असंभव से दिखने वाले काम को भी संभव बना सकते हैं।

प्रश्नः 5.
कवि नवयुवकों से क्या आह्वान कर रहा है और किस तरह प्रेरित कर रहा है?
उत्तर:
कवि नवयुवकों को निरंतर आगे बढ़ने का आह्वान कर रहा है। कवि नवयुवकों को उनमें छिपी बिना रुके चलते जाने की शक्ति, नियतिचक्र बदलने की क्षमता, देश के धर्म और मर्यादा की रक्षा करने में समर्थता का बोध कराकर उन्हें प्रेरित कर रहा है।

22. निर्मम कुम्हार की थापी से
कितने रूपों में कुटी-पिटी
हर बार बिखेरी गई किंतु
मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी।
आशा में निश्छल पल जाए, छलना में पड़कर छल जाए ।
सूरज दमके तो तप जाए रजनी ठुमके तो ढल जाए,
यो तो बच्चों की गुड़िया-सी, भोली मिट्टी की हस्ती क्या
आँधी आए तो उड़ जाए, पानी बरसे तो गल जाए,
फ़सलें उगती, फ़सलें कटती लेकिन धरती चिर उर्वर है।
सौ बार बने सौ बार मिटे लेकिन मिट्टी अविनश्वर है।

प्रश्नः 1.
सूरज के दमकने पर मिट्टी पर क्या असर पड़ता है?
उत्तर:
सूरज के दमकने पर मिट्टी तप जाती हैं और उसका स्वरूप और भी मजबूत हो जाता है।

प्रश्नः 2.
‘यो तो बच्चों की गुड़िया सी’ में कौन-सा अलंकार है ?
उत्तर:
‘यो तो बच्चों की गुड़िया-सी’ में उपमा अलंकार है।

प्रश्नः 3.
मिट्टी कब ढल जाती है?
उत्तर:
जब रात होती है तब मिट्टी ढल जाती है।

प्रश्नः 4.
उन परिस्थितियों का वर्णन कीजिए जो मिट्टी के स्वरूप को मिटाने में असफल रही।
उत्तर:
मिट्टी के स्वरूप को नष्ट करने का असफल प्रयास करने वाली परिस्थितियाँ हैं –

क. कुम्हार के द्वारा मिट्टी को कूटा-पीटा जाना।
ख. धूप में खूब तपाया जाना।
ग. बार-बार बिखराया जाना।
घ. छन्ने के द्वारा छाना जाना।

प्रश्नः 5.
‘भोली मिट्टी की हस्ती क्या’ कवि ने ऐसा क्यों कहा है पर उसने अपने कथन का खंडन भी किस तरह किया है ?
उत्तर:
कवि ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि आँधी आने पर मिट्टी उड़ जाती है, पानी में गलकर बह जाती है, पर बार-बार फ़सलें कटने और उगने से धरती की चिर उर्वरता और मिटाने का प्रयास करने पर भी न मिटने की बात कहकर उसने अपने कथन का खंडन किया है।

23. बहुत बड़ी बरबादी की
इस धरती पर आबादी की
यूँ फ़सल उगाते जाओगे
अब वह दिन ज़्यादा दूर नहीं
जब सिर धुन-धुन पछताओगे।
तुम कितने जंगल तोड़ोगे,
कितने वृक्षों को काटोगे,
इस शस्य श्यामला धरती को
कितने टुकड़ों में बाँटोगे?
है किंचित तुमको सबर नहीं
क्या ये भी तुमको खबर नहीं?
ये धरती तो बस धरती है,

ये धरती कोई रबर नहीं,
बोते हो पेड़ बबूलों के
फिर आम कहाँ से खाओगे?
यह बढ़ती जाती बदहाली,
खो गई सुबह की तरुणाई,
खो गई शाम की वह लाली,
बिन वर्षा के इस धरती पर,
तुम कैसे अन्न उगाओगे?
यह गंगा भी अब मैली है,
जल की हर बूंद विषैली है,
दस दूषित जल के पीने से,
नित नई बीमारी फैली है।

प्रश्नः 1.
किस फ़सल को उगाने से कवि मनुष्य को सावधान कर रहा है ?
उत्तर:
जनसंख्या की फ़सल उगाने के प्रति कवि मनुष्य को सावधान कर रहा है।

प्रश्नः 2.
धरती पर अन्न उगाना कब संभव नहीं होगा?
उत्तर:
पेड़ों के निरंतर काटे जाने से वर्षा होनी बंद हो जाएगी तब धरती पर अन्न उगाना संभव नहीं होगा।

प्रश्नः 3.
काव्यांश में निहित संदेश स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
काव्यांश में निहित संदेश यह है कि बढ़ती जनसंख्या पर अविलंब अंकुश लगाने की आवश्यकता है अन्यथा इसका दुष्परिणाम भयानक होगा।

प्रश्नः 4.
धरती के विषय में कवि मनुष्य को किस तरह सावधान कर रहा है और क्यों?
उत्तर:
धरती के बारे में कवि मनुष्य को सावधान करते हुए कह रहा है कि इस हरी-भरी धरती के अब और टुकड़े करना बंद करो। तुम अपनी अधीरता छोड़ दो। यह धरती असीमित नहीं बल्कि सीमित है। इसके साथ छेड़छाड़ का परिणाम बुरा होगा।

प्रश्नः 5.
कवि ने गंगा की स्थिति पर चिंता क्यों प्रकट की है?
उत्तर:
कवि ने गंगा की स्थिति पर चिंता इसलिए प्रकट की है क्योंकि जनसंख्या में निरंतर वृदधि के कारण गंगा इतनी मैली हो गई है कि उसकी एक-एक बूंद जहरीली हो गई है। इसका सेवन करने से नई-नई बीमारियाँ हो जाती हैं।

24. हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार। ।
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार।
जगे हम, लगे जगाने विश्व लोक में फैला फिर आलोक,
व्योम-तम-पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक।

विमल वाणी ने वीणा ली कमल कोमल कर में सप्रीत।
सप्त स्वर सप्त सिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत।
बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत।
अरुण-केतन लेकर निज हाथ वरुण पथ में हम बढ़े अभीत।

प्रश्नः 1.
प्रथम किरणों का उपहार किसे मिलता है?
उत्तर:
सूरज की पहली किरणों का उपहार भारत भूमि को मिलता है।

प्रश्नः 2.
‘विमल वाणी ने वीणा ली कमल कोमल कर में सप्रीत’ में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर:
‘विमल वाणी ने वीणा ली कमल कोमल कर में सप्रीत’ में अनुप्रास अलंकार है। अपठित काव्यांश

प्रश्नः 3.
दुनिया में आलोक कब फैला?
उत्तर:
दुनिया में आलोक तब फैला जब भारतीय मनीषियों ने विश्व को ज्ञान दिया।

प्रश्नः 4.
उषा किसका स्वागत करती है और किस तरह?
उत्तर:
उषा भारत भूमि का हँसकर स्वागत करती है। वह सूरज की पहली किरणों का उपहार देकर हीरों का हार पहनाती है।

प्रश्नः 5.
‘बचाकर बीज रूप से सृष्टि’ पंक्ति में किस प्रसंग का उल्लेख है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
‘बचाकर बीज रूप से सृष्टि’ पंक्ति में उस प्रसंग का उल्लेख है जब सारी सृष्टि जलमय हो गई थी। धरती पर अत्यधिक सरदी पड़ने लगी थी तब आदि पुरुष मनु ने सृष्टि का बीज बचाने के लिए नाव पर इस शीत को झेला था जिससे सृष्टि को ऐसा स्वरूप मिला।

25. तुम भारत, हम भारतीय हैं, तू माता हम बेटे,
किसकी हिम्मत है कि तुम्हें दुष्टता-दृष्टि से देखे।
ओ माता, तुम एक अरब से अधिक भुजाओं वाली
सबकी रक्षा में तुम सक्षम, हो अदम्य बलशाली।
भाषा, देश, प्रदेश भिन्न है, फिर भी भाई-भाई,
भारत की साझी संस्कृति में पलते भारतवासी।

सुदिनों में हम एक साथ हँसते, गाते, सोते हैं,
दुर्दिन में भी साथ-साथ जागते, पौरुष धोते हैं।
तुम हो शस्य-श्यामला, खेतों में तुम लहराती हो,
प्रकृति प्राणमयी, साम-गानमयी, तुम न किसे भाती हो।
तुम न अगर होती तो धरती वसुधा क्यों कहलाती?
गंगा कहाँ बहा करती, गीता क्यों गाई जाती?

प्रश्नः 1.
काव्यांश में भारत और भारतीयों में रिश्ता बताया गया है?
उत्तर:
काव्यांश में भारत और भारतीयों में माँ-बेटे का रिश्ता बताया गया है।

प्रश्नः 2.
‘तुम्हें दुष्टता-दृष्टि से देखे’ में निहित अलंकार का नाम बताइए।
उत्तर:
‘तुम्हें दुष्टता-दृष्टि से देखे’ में अनुप्रास अलंकार है।

प्रश्नः 3.
माता का शस्य-श्यामला रूप कहाँ देखा जा सकता है और किस रूप में?
उत्तर:
माता का शस्य-श्यामला रूप खेतों में देखा जा सकता है जहाँ वह हरी-भरी फसलों के रूप में लहराती है।

प्रश्नः 4.
काव्यांश के आधार पर भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संस्कृति की विशेषता है- अनेकता में एकता। यहाँ विभिन्न जाति धर्म के लोग जिनकी भाषा, पहनावा, खान-पान, रहन-सहन अलग-अलग होने पर भी सब मिल-जुलकर रहते हैं। वे आपस में भाई-भाई हैं और सुख-दुख में एक दूसरे का साथ देते हैं।

प्रश्नः 5.
काव्यांश में वर्णित माता की विशेषताएँ एवं महत्ता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
काव्यांश में वर्णित भारत माता अदम्य बलशाली है जो सबकी रक्षा में सक्षम है। एक अरब से अधिक उसके पुत्र हैं। अगर भारतमाता न होती तो यह धरती वसुधा न कहलाती। तब गंगा कहाँ बहती और गीता का गायन क्यों किया जाता। इस तरह भारत माता की विशेष महत्ता है।

अब स्वयं करें

1. तुम कुछ न करोगे, तो भी विश्व चलेगा ही,
फिर क्यों गर्वीले बन लड़ते अधिकारों को?
सो गर्व और अधिकार हेतु लड़ना छोड़ो,
अधिकार नहीं, कर्तव्य-भाव का ध्यान करो!
है तेज़ वही, अपने सान्निध्य मात्र से जो
सहचर-परिचर के आँसू तुरत सुखाता है,
उस मन को हम किस भाँति वस्तुतः सु-मन कहें,
औरों को खिलता देख, न जो खिल जाता है?
काँटे दिखते हैं जब कि फूल से हटता मन,
अवगुण दिखते हैं जब कि गुणों से आँख हटे;
उस मन के भीतर दुख कहो क्यों आएगा;
जिस मन में हों आनंद और उल्लास डटे!
यह विश्व व्यवस्था अपनी गति से चलती है,
तुम चाहो तो इस गति का लाभ उठा देखो,
व्यक्तित्व तुम्हारा यदि शुभ गति का प्रेमी हो
तो उसमें विभु का प्रेरक हाथ लगा देखो!

प्रश्नः

  1. काव्यांश में लोगों की किस प्रवृत्ति की ओर संकेत किया गया है?
  2. काव्यांश में निहित संदेश का उल्लेख कीजिए।
  3. कवि मनुष्य से किसका लाभ उठाने के लिए कह रहा है?
  4. ‘सच्चा तेज़’ और ‘सु-मन’ किन्हें कहा गया है, स्पष्ट कीजिए।
  5. व्यक्ति को काँटे और अवगुण क्यों दिखाई देते हैं और व्यक्ति के मन में दुख का प्रवेश कब नहीं हो सकता?

2. मैं चला, तुम्हें भी चलना है असिधारों पर,
सर काट हथेली पर लेकर बढ़ आओ तो।
इस युग को नूतन स्वर तुमको ही देना है,
तुम बना सकोगे भूतल का इतिहास नया,
मैं गिरे हुओं को, बढ़कर गले लगाऊँगा।
क्यों नीच-ऊँच, कुल, जाति, रंग का भेद-भाव?
मैं रूढ़िवाद का कल्मष महल ढहाऊँगा।

तुम बढ़ा सकोगे कदम ज्वलित अंगारों पर?
मैं काँटों पर बिंधते-बिंधते बढ़ जाऊँगा।
सागर की विस्तृत छाती पर हो ज्वार नया अपनी कूवत को आज जरा आजमाओ तो।
मैं कूद स्वयं पतवार हाथ में था[गा।
है अगर तुम्हें यह भूख ‘मुझे भी जीना है’
तो आओ मेरे साथ नींव में गड़ जाओ।
ऊपर से निर्मित होना है आनंद महल
मरते-मरते भी दुनिया में कुछ कर जाओ।

प्रश्नः

  1. काव्यांश में असिधारों पर चलने के लिए किसे कहा जा रहा है?
  2. कवि अपनी शक्ति का परीक्षण करने के लिए क्यों कह रहा है?
  3. ‘जीने के लिए बलिदान देना होता है’ – यह भाव किस पंक्ति में निहित है?
  4. भूतल का नया इतिहास बनाने का क्या तात्पर्य है ? ऐसा होने पर कवि क्या करना चाहता है?
  5. जीने की भूख रखने वालों को कवि क्या सलाह देता है ? व्यक्ति अपना नाम किस तरह अमर कर सकता है?

3) बस फूलों का बाग नहीं, जीवन में लक्ष्य हमारा,
उससे आगे बहुत दूर है, बहुत दूर तक जाना।
थोड़ी मात्र सफलता से ही, जो संतोष किए हैं,
घर की चारदिवारी में मस्ती के साथ जिए हैं।
क्या मालूम उन्हें कितना परियों का लोक सुहाना,
उससे आगे बहुत दूर है, बहुत दूर तक जाना।
चलते-चलते नहीं पड़े, जिनके पैरों में छाले,
खुशियाँ क्या होती हैं, वे क्या जानेंगे मतवाले।
सुख काँटों के पथ से है, बचने का नहीं बहाना,
उससे आगे बहुत दूर है, बहुत दूर तक जाना।
एक बाग क्या, जब धरती पर बंजर मौज मनाएँ,
एक फूल क्या, जब पग-पग काँटे जाल बिछाएँ।
गली-गली में, डगर-डगर में है नंदन लहराना,
उससे आगे बहुत दूर है, बहुत दूर तक जाना।

प्रश्नः

  1. ‘बहुत दूर तक जाना’ पंक्ति का आशय क्या है?
  2. असली खुशियों के बारे में कौन नहीं जानते हैं ?
  3. काव्यांश में निहित संदेश स्पष्ट कीजिए।
  4. परियों के सुहाने लोक के बारे में किन्हें पता नहीं लग पाता है और क्यों?
  5. कवि एक बाग और एक फूल से संतुष्ट क्यों नहीं है? वह क्या करना चाहता है ?

4. इस देश-धरा की व्यथा-कथा, निज टीस समझकर पहचानो।
संकट की दुर्दिन-वेला में, मानव की गरिमा को जानो॥
इस धरती पर तो अकर्मण्य को, जीने का अधिकार नहीं।
मानव कैसा, यदि मानवता से, हो स्वाभाविक प्यार नहीं॥

यह दुनिया का है अटल-चक्र, तुम मानो चाहे न मानो। ।
इस देश धरा की व्यथा-कथा, निज टीस समझकर पहचानो।
है हर्ष-विषाद निरंतर क्रम, या है सह जीवन का स्पंदन।
हैं कहीं गूंजते अट्टहास, तो कहीं मचलते हैं क्रंदन ॥
क्यों पीछे दौड़े हो सुख के, दुख को भी तो अपना मानो।
इस देश-धरा की व्यथा-कथा, निज टीस समझकर पहचानो।
अति दुर्गम ये राहें जग की, इनका है कोई पार नहीं।
संघर्ष सार है जीवन का कुछ विषय-भोग का द्वार नहीं।
धारो जीवन में हंस-वृत्ति, फिर नीर-क्षीर अंतर जानो।
इस देश-धरा की व्यथा-कथा निज टीस समझकर पहचानो॥

प्रश्नः

  1. इस धरती पर जीने का अधिकार किन्हें नहीं है?
  2. सच्ची मानवता किसे कहा गया है?
  3. कवि लोगों से क्या आह्वान कर रहा है?
  4. कवि ने लोगों को जीवन की किस सच्चाई से अवगत कराया है? वह मनुष्य को क्या सीख दे रहा है?
  5. जीवन का सार किसे कहा गया है? जीवन में नीर-क्षीर का अंतर कैसे जाना जा सकता है?


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अक्क महादेवी

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